अब्दुल हई
हाल ही में एक खबर पढ़ी थी जिसकी हेडलाइन थी- दक्षता परीक्षा में फेल शिक्षकों की नौकरी खतरे में। मध्य प्रदेश में शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए अब शिक्षकों का भी शैक्षणिक स्तर परखा जा रहा है। बोर्ड की परीक्षा में विद्यार्थी के खराब प्रदर्शन के बाद प्रदेशभर के शिक्षकों की परीक्षा हुई। इसमें प्रदेश भर के ऐसे स्कूलों को चिन्हित किया गया था, जिनका रिजल्ट 30 फीसदी से भी कम था। ऐसे शिक्षकों के लिए स्कूल शिक्षा विभाग ने परीक्षा कराई थी, ताकि ये पता चल सके कि शिक्षक छात्र-छात्राओं को पढ़ाने के लायक है या नहीं।
पहली बार परीक्षा लेने के बाद अब शिक्षकों को दूसरा मौका दिया गया। दूसरा मौका भी प्रशिक्षण के बाद दिया गया। अबकी बार शिक्षकों के लिए ये आखिरी मौका है। जी हां, अगर शिक्षक पास नहीं होते है तो फिर शिक्षकों को विभाग से बाहर करने की तैयारी लगभग पूरी कर ली गई है। अब जो शिक्षक पास नहीं होगा, उन पर वैधानिक कार्रवाई की जाएगी।
शिक्षकों की परीक्षा लेने को लेकर स्कूल शिक्षा मंत्री डॉ. प्रभुराम चैधरी का कहना है ‘‘इससे पहले शायद ही कोई इस तरह का कदम उठा पाया है। हमने कोशिश की है कि शिक्षा का स्तर सुधरे। वहीं कमजोर शिक्षकों की नींव भी मजबूत की जा सकें।’’ देखा जाए तो शिक्षा को सुधारने की यह एक बहुत अच्छी पहल है और यकीनन इस तरह से शिक्षा में सुधार भी लाया जा सकेगा, लेकिन राजनीति में जो स्तर गिरा है क्या उसे सुधारने के लिए कोई ‘दक्षता परीक्षा’ होगी? ओह… सो साॅरी राजनीति में तो कोई पढ़ाई ही नहीं होती और न ही कोई परीक्षा, कि राजनीति परीक्षा में पास होने वाला और अच्छे नंबर लाने वाला ही राजनीति करेगा, तो उसकी ‘दक्षता परीक्षा’ कैसे होगी?
चुनावी मंचों पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से दस कदम आगे नेता एक-दूसरे पर व्यक्तिगत हमले करते हैं। इसमें पक्ष-विपक्ष सभी शामिल हैं। भाषा लगातार गिरते राजनीतिक स्तर को मापने का एक पैमाना है। इसमें नेता का स्तर रिफ्लेक्ट होता है। अगर राजनीतिक दल के नेता ये पंक्तियां पढ़ रहे हैं, तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि भाषा की मर्यादा आपको बनाती है और अमर्यादा गिराती ही है। व्यक्तिगत हमलों से समर्थक भले ही ताली बजाते हों पर वह मतदाता जो अपनी सोच रखता है, तटस्थ है, वह उस नेता की मन में एक तस्वीर बनाता है जो लाख अच्छी बातें कहने से भी नहीं हटती।
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जिस लोकतंत्र को दुनियाभर में भारत की पहचान माना जाता है उस लोकतंत्र के मंदिर में बैठने वाले नेता एक दूसरे को चोर, लुटेरा और अपराधी कहने तक से बाज नहीं आ रहे हैं। राहुल गांधी ने राफेल डील को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चोर और कमांडर इन थीफ कहा।
चौकीदार चोर है, गोडसे देशभक्त है, राजीव गांधी भ्रष्टाचारी नंबर वन हैं, मोदी उस दुल्हन की तरह हैं जो रोटी कम बेलती है और चूड़ियां ज्यादा खनकाती है, खुद को दलित बताने वालीं मायावती फेशियल कराती हैं, बाबर की औलाद को देश सौंपना चाहते हो, पीएम दुर्योधन नहीं जल्लाद हैं, बीजेपी नेताओं को दस-दस जूते मारो, अनारकली, खाकी अंडरवियर, कंकड़ के लड्डू, लोकतंत्र का थप्पड़…ये एक बानगी है, इस बार के आम चुनाव में हमारे नेताओं द्वारा दिए भाषणों की।
भारत की सियासत में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी नहीं देखी गयी। ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है। ऐसे में एक पक्ष यह भी गौर फरमाने वाला है कि जिन जनसभाओं में नेता संबोधित करने पहुंचते हैं, वहां हर तरह की भीड़ इकट्ठा होती है। महिलाएं होती हैं, बच्चें होते हैं तो बड़े बूढ़े भी शरीक होते हैं। इसके बावजूद नेता अमर्यादित बयान देकर जाने क्या जताना चाहते हैं।
भारत की राजनीति में यूं तो शिक्षा की कोई अनिवार्यता नहीं है, लेकिन ग्रामीण सरकार के चुनाव में पंच-सरपंच के लिए न्यूनतम शिक्षा की अनिवार्यता कर दी गई। विधानसभा और लोकसभा सदस्यों के चुनाव में किसी प्रकार की कोई शैक्षणिक योग्यता लागू नहीं है। जिन लोगों को जनमत हासिल हो जाता है वे उस कुर्सी तक पहुंच जाते हैं। देश में चपरासी से लेकर अधिकारी पद की नौकरी के लिए युवाओं को उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी कई तरह की परीक्षाओं को पास करते हुए नौकरी हासिल होती है, जबकि एमएलए या एमपी बनने के लिए शिक्षा का कोई पैमाना तय नहीं है।
राजनीति में शिक्षा को लागू करने से राजनीतिक पार्टियों के लिए परेशानी हो सकती है। अभी तक तो राजनीतिक पार्टियां क्षेत्रीय वर्चस्व के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करती है चाहे वे शिक्षित हों या अशिक्षित, लेकिन शिक्षा की अनिवार्यता से राजनीतिक पार्टियों को संबंधित योग्यताधारी उम्मीदवार ही ढूंढ़ना पड़ेगा। देश में अब तक राजनीति में शिक्षा की अनिवार्यता पर जोर नहीं दिया गया। मुझे लगता है कि राजनीति में भी शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। राजनीति के स्तर में जो गिरावट देखी जा रही है उसे दूर किया जा सके।
राजनीति की पढ़ाई के लिए विश्वविद्यालय का निर्माण किया जाना चाहिए जहां छात्र राजनीति के गुर सीख सकें। आज का युग तकनीकी युग है। सभी सरकारी या गैर सरकारी कार्यालयों में तकनीक आधारित कार्यों को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे में उच्चशिक्षा प्राप्त जनप्रतिनिधि तकनीक को आसानी से समझते हुए कार्यों को श्रेष्ठ तरीके से संपादित कर सकते हैं। जब जनप्रतिनिधि उच्चशिक्षा प्राप्त होने के बाद भी गुणवत्ता पर खरे नहीं उतरेंगे तो उन्हें ‘दक्षता परीक्षा देनी होगी।
अनेक जनप्रतिनिधि भले ही वे पढ़े लिखे कम हों या अनपढ़ हो लेकिन अपने क्षेत्र के मतदाताओं में वे अच्छा वर्चस्व रखते हैं और उसके दम पर वे चुनाव जीत जाते हैं। शिक्षा की अनिवार्यता से उन नेताओं की जनता में पैठ भी कोई काम नहीं आ सकेगी। अनिवार्य शिक्षा योग्यता पूरी नहीं कर पाने के कारण वे चुनाव में शामिल नहीं हो सकेंगे। राजनीति में भी शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। शिक्षा अनिवार्यता होने से आपराधिक छवि वाले लोगों का राजनीति में प्रवेश आसानी से हो जाता है। अशिक्षित होने पर भी आपराधिक छवि के लोग जनप्रतिनिधि बन बैठते हैं। शिक्षा की अनिवार्यता से राजनीति में शिक्षित और अच्छे लोगों को आगे आने का मौका मिलेगा। राजनीति में शैक्षणिक योग्यता लागू होने से साफ छवि और नए लोगों को मौका मिल सकेगा। इससे युवाओं के मन में राजनीति की गलत छवि भी सुधारी जा सकती है। उच्च शिक्षा की अनिवार्यता से युवाओं का राजनीति में भी रूझान बढ़ेगा। उचित शैक्षणिक योग्यता को पूरी करने पर उनके लिए भी राजनीति में करियर बनाने के रास्ते खुलेंगे।
शिक्षित जनप्रतिनिधि समाज को भी सही दिशा देने में सक्षम होंगे। सरकारी योजनाओं का लाभ जनता को मिले और लोगों को ज्यादा से ज्यादा फायदा मिले इसके लिए शिक्षित जनप्रतिनिधि एक योजनाअनुसार काम करते हुए जनता को लाभान्वित कर सकते हैं। राजनीति जिसे देश चलाना है और देश को रास्ता दिखाना है, वह खुद गहरे भटकाव की शिकार है। हमारे नेता बार-बार यह भूल जाते हैं कि उनका काम सिर्फ सत्ता हासिल करना नहीं है, देश और बेहतर समाज के निर्माण की जिम्मेदारी भी उनकी ही है।
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कितना अच्छा होता अगर हमारे नेता भाषा और संवाद के मामले में भी उतने ही नफासत पसंद या सुरुचिपूर्ण होते, जितने वे पहनने-ओढ़ने के मामले में हैं। दरअसल इस बार के चुनावी अभियान से यह साफ है कि राजनेताओं ने अपनी कर्कश भाषा और भाषण शैली को ही अपनी सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी और अपनी सफलता का सूत्र मान लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिक्षा के बारे में कहा था कि ‘‘जब पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया’’ और जनता को कहना होगा ‘‘जब पढ़ेंगे नेता तभी तो बढ़ेंगे ’हम’।’’