उत्कर्ष सिन्हा
बहुमत का शासन जब ज़ोर-जबरदस्ती का शासन हो जाए तो वह उतना ही असहनीय हो जाता है जितना कि नौकरशाही का शासन।
— महात्मा गांधी
देश के बहुसंख्यक धर्म निरपेक्ष हिस्से को लगता है की भारत में अल्पसंख्यकों के प्रति सरकार का रुख 70 साल पुराने विभाजन के बदले से संचालित हो रहा है, उद्योगपतियों को लगता है कि सरकार की आर्थिक नीतियां साफ नहीं है जिन पर भरोसा किया जा सके, नौजवानों को लग रहा है कि उनके रोजगार और भविष्य के लिए सरकार के पास कोई नीति नहीं है, किसानों को भी कमोबेश ऐसा ही लग रहा है।
इस सारे चिंताओं के लिए सरकार के पास सिर्फ एक नारा है – ‘’ सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” लेकिन इस नारे पर ही जनता का विश्वास डगमगाने लगा है ।
बीते करीब एक हफ्ते से भारत अशांत है । देश के करीब हर कोने में लोग सड़कों पर हैं, आगजनी की ढेरों घटनाए हो चुकी हैं । उत्तर पूर्व से शुरू हुआ विरोध दिल्ली तक आते -आते एक बड़े असंतोष में तब्दील हो गया है ।
जामिया विश्वविद्यालय की घटना ने इस आग में घी का काम किया और देश के 27 उच्च शिक्षा संस्थानों से विरोध के स्वर उभरे । इसके बाद अमेरिका और इंग्लैंड के विश्वविद्यालयों का भी साथ मिल गया ।
पूरे विरोध की जड़ में मोदी सरकार द्वारा लाया गया नागरिकता संशोधन बिल है जो अब कानून में बदल चुका है । मजे की बात ये है की असम में इस विरोध की वजहें कुछ और है, तमिलनाडु में कुछ और शेष भारत में कुछ और ।
मगर इस पूरे मसले में सियासत किसी और एंगल से अपना खेल जारी रखने की कोशिश में है । झारखंड के चुनाव प्रचार में खुद प्रधानमंत्री विरोध करने वालों को उनके कपड़ों से पहचानने का बयान दे चुके हैं और बंगाल की सीएम ममता बनर्जी अब उन्हे चुनौती दे रही है कि मेरे कपड़ों से मेरी पहचान बात कर पीएम दिखाएं ।
संसद में गृह मंत्री अमित शाह इसे कांग्रेस द्वारा देश विभाजन की गलती का असर बता कर कानून को सही ठहराने की कोशिश में लगे हैं । वाद और प्रतिवाद का खेल जोर शोर से जारी है । सरकार का कहना है कि यह बिल भारतीय मुसलमानों के खिलाफ नहीं है । बिल की भाषा भी वाकई ऐसी नहीं है, इस बिल के अनुसार सिर्फ पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए अवैध शरणार्थियों को नागरिकता न देने की बात लिखी गई है ।
तो फिर भारत अशांत क्यों है ?
दरअसल ये अशान्ति महज इस बिल को ले कर नहीं है । इस अशान्ति के पीछे सरकार के अचानक फैसले लेने की वो पुरानी प्रवृत्ति है जिसका समय समय पर प्रदर्शन नरेंद्र मोदी की सरकार करती रही है। संसंद में अपने प्रचंड बहुमत के जरिए वे अपने हर ऐसे फैसले को आनन फानन में पास भी करा लेती है जिनपर एक व्यापक विमर्श की जरूरत होती है ।
यही लोकतंत्र में प्रचंड बहुमत की खासियत भी है और उसके तानाशाही में तब्दील होने के खतरे की वजह भी ।
जरा बीते कुछ सालों के पन्ने पलट के देखिए । पहले नोटबंदी का फैसला आया । वो भी अचानक एक रात को बिना कैबिनेट की बैठक के सीधे एक उद्घोषणा के जरिए । सरकार में शामिल अधिकांश मंत्रियों को भी इसकी भनक तक नहीं थी । इसके बाद GST,सर्जिकल स्ट्राईक, तीन तलाक बिल और एनआरसी जैसे मुद्दों पर सरकार जिस आक्रामक तरीके से आगे बढ़ी वो बिल्कुल नरेंद्र मोदी के चुनावी अभियानों में चर्चित जुमले – 56 इंच के सीने – से मेल खाता था ।
काले धन पर प्रहार , पाकिस्तान को धूल चटाना जैसे भावनात्मक मुद्दों के साथ साथ कहीं से मुसलमानों के प्रति अपनी मातृ संस्था आरएसएस के पुराने सिद्धांतों को ले कर आगे बढ़ने के रुख ने नरेंद्र मोदी को जनता के एक वर्ग का समर्थन भी शुरुआती दिनों में जरूर मिला और वे इसे राजनीतिक लाभांश में बदलने में कामयाब भी रहे।
लेकिन जैसे जैसे दिन बीते वैसे वैसे नोटबंदी के बुरे असर बड़ी बेरोजगारी के रूप में सामने आने लगे, रियल स्टेट का बाजार धराशायी हो गया, GST ने असंगठित क्षेत्र के कारोबार को ऐसा झटका दिया कि देश की अर्थव्यवस्था हिचखोले खाने लगी। इन घटनाओं का असर ये हुआ कि अनिश्चित भविष्य ने आम आदमी के खर्चे पर ऐसा बुरा असर डाला की देश में निवेश करने वाले अपना पैसा निकालने में जुट गए। बीते 5 तिमाहियों से भारत की जीडीपी लगातार नीचे जा रही है ।
कुछ महीने पहले तक 5 बिलियन डालर की इकॉनमी बनाने के दावे अब दूर की कौड़ी हो गए हैं। अब तो उस जुमले का जिक्र भी नहीं होता।
एनआरसी भी एक ऐसा ही मामला साबित हुआ जहां 2 करोड़ विदेशी घुसपैठियों के भारत में होने के दावे की पोल खुल गई। करीब 16 सौ करोड़ रुपये खर्च होने और महीनों तक लोगों के भटकने के बाद बमुश्किल 19 लाख लोग ही ऐसे मिले जो भारत में अपनी विरासत साबित नहीं कर सके अब इन्हे एक और मौका दिए जाने की बात की जा रही है।
देश में उपजी असहजता इसी विश्वास का संकट है । लोगों को सरकार के अगले कदम का अंदाजा नहीं हो पा रहा है । एक संदेह यह भी है कि विमर्श के बिना लिए गए फैसले आम जनता की जिंदगी पर नकारात्मक फरक ही न डाले।
नागरिकता संशोधन बिल पर बहस के दौरान संसद में अमित शाह ने कहा- “भाजपा देश की सरकार चलाने नहीं आई है , बल्कि देश को सुधारने आई है ।“ अमित शाह के इस बयान के पीछे कही न कहीं यह संकेत था कि वह 70 सालों से चल रहे देश के आमूल चूल ढांचे में तबदीली करने के एजेंडे पर है ।
तो क्या भारत जैसे विविधता वाले देश में प्रचंड बहुमत वाली सरकार को लोकतान्त्रिक विमर्श की परंपरा पीछे छोड़ कर अचानक फैसले लेते रहने चाहिए ?
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