के.पी. सिंह
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संवैधानिक तौर पर देश के सर्वोच्च कार्यकारी नेता है जिसके मददेनजर नाजुक मामलो में भावावेश का परिचय देने के बजाये उन्हें अन्य प्रधानमंत्रियों की तरह संयम दिखाना चाहिए। खास तौर से कई ऐसे संदर्भों में वे कांग्रेस के खिलाफ भड़ास निकालने के लिए 1984 के सिख विरोधी दंगों का जिक्र कर डालते हैं जिससे बहुत से ऐसे पुराने जख्म खुरच जाने की आशंका हो जाती है कि कांग्रेस का नुकसान हो या न हो लेकिन समाज और देश का बड़ा नुकसान हो सकता है।
खालिस्तानी आंदोलन का काला अध्याय
खालिस्तानी आंदोलन देश का काला अध्याय था। इस आंदोलन को भड़काने के पीछे जहां पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई काम कर रही थी वहीं उससे भी ज्यादा शातिर अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का इसमें योगदान था। जो भारत की स्वतंत्र गुटनिरपेक्ष नीति को हजम नही कर पा रही थी। वैसे भी अंग्रेजों का तो देश को आजाद करते समय ही प्लान था कि यह देश खंड-खंड हो जाये तांकि जो उनके गुलाम रहे वो कभी उनकी बराबरी पर खड़े न हो सकें।
इसीलिए उन्होंने रियासतों को छुटटा छोड़ दिया था। अमेरिकन के बाप भी मूल रूप से अंग्रेज हैं इसलिए उन पर भी यह पूर्वाग्रह हावी था। सीआईए एक ही काम करती थी कि हर देश में जो भी घरेलू अंतर्विरोध हैं उनका अध्ययन करके ऐसे ग्रुप दूसरे देशों में खड़े करें जो गृह युद्ध और अलगाववाद को हवा दें। इंदिरा गांधी अपनी ही गलतियों के कारण सीआईए के इस जाल में फंस गईं थीं। अकालियों की काट के लिए पहले उन्होंने ही भिंडरावाले को खड़ा किया। बाद में वह भस्मासुर बन गया।
दिल्ली का हाल नरक से भी बदतर हो गया था। खालिस्तानी आतंकवादियों के द्वारा देश की राजधानी में आये दिन हत्यायें की जा रहीं थीं। उनका विस्तार देश के कोने-कोने मे हो गया था। सीआईए ने कुछ ऐसा जहरीला प्रचार किया था कि सिखों में बहुतायत लोग अलग खालिस्तान के पक्षधर हो गये थे।
आपरेशन ब्लू स्टार के फैसले से और खतरनाक हुए हालात
ऐसे माहौल में इंदिरा गांधी को आपरेशन ब्लू स्टार का फैसला लेना पड़ा तो स्थिति और खतरनाक हो गई। उनके शुभ चिंतकों ने राय दी थी कि वे अपने निजी सुरक्षा दस्ते में सिखों को शामिल न करें। इंटेलीजेंस के अधिकारियों ने भी उन्हें इस बारे में आगाह किया था। एक ओर इंदिरा गांधी शातिर राजनैतिक थीं, दूसरी ओर राष्ट्रवाद के लिए भी उनकी प्रतिबद्धता थी। वे नहीं चाहती थी कि कोई ऐसा काम करें जिससे देश के किसी खास तबके में कोई गलत संदेश जाये।
खासतौर से सिखों में जो देश की सबसे बहादुर और मेहनतकश कौम में से एक है। इसलिए उन्होंने अपने आवास से सिख सुरक्षा कर्मियों को हटाने से इंकार कर दिया। इसका नतीजा उन्हें भोगना पड़ा। उनके सिख अंगरक्षक देश विरोध ताकतों के बहकावे में आ गये। उन्हीं के हाथों इंदिरा गांधी को शहीद होना पड़ा।
इंदिरा गांधी की हत्या ने झकझोर डाला राष्ट्रवादी मानस
इंदिरा गांधी की हत्या को देश के हर राष्ट्रभक्त नागरिक ने बहुत गंभीरता से संज्ञान में लिया। किसी के लिए यह कांग्रेस की नेता की हत्या का मामला नही था। बल्कि यह देश के लोगों के लिए उनके प्रधानमंत्री की हत्या का मामला था। यह पद देश की सर्वोच्च शक्ति का प्रतीक है। इसलिए हर राष्ट्रवादी नागरिक उस समय इसका प्रतिशोध लेने के लिए बावला हो गया था। इनमें आरएसएस भी पीछे नही थी।
सिखों का जिस तरह कत्लेआम हुआ वह एक अत्यंत अमानवीय कार्रवाई थी लेकिन देश विवेक शून्य हो गया था। खासतौर से लगभग हर हिंदू ने इसमे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका निभाई थी। इसीलिए सिख विरोधी दंगों की निंदा का कोई बयान आरएसएस की ओर से जारी हुआ यह देखने में नही मिलता। बल्कि हालत यह थी कि इसके बाद हुए चुनाव में आरएसएस के समर्थन की वजह से ही अटल जी जैसी हस्ती चुनाव हार गई थी और न भूतो न भविष्यतो जैसा बहुमत राजीव गांधी को हासिल हुआ था। उस समय के अखबार और पत्रिकाएं इसके गवाह हैं।
तब एसपी सिंह और चंद्रशेखर बन गये थे सबसे बड़े खलनायक
आपरेशन ब्लू स्टार के समय से ही यह हालत बन गई थी। आज की पीढ़ी को यह ध्यान नही है कि रविवार पत्रिका में उस समय आपरेशन ब्लू स्टार की वे तस्वीरें छप गई थीं जिनमें सेना के अधिकारी हाथ पीछे बांधकर स्वर्ण मंदिर के अंदर भिंडरावाले समर्थकों को गोली से उड़ाते हुए नजर आ रहे थे। आम जनमानस में इसे लेकर पत्रिका के संपादक एसपी सिंह के खिलाफ जबर्दस्त गुस्सा उछल रहा था। लेकिन गनीमत यह थी कि उस समय की सरकार ने सुरेंद्र प्रताप सिंह को देशद्रोही घोषित नहीं किया वरना उनके लत्ते-लत्ते हो जाते।
उस समय राजनीतिज्ञों में सिर्फ चंद्रशेखर आगे आये थे जिन्होंने आपरेशन ब्लू स्टार पर सवाल खड़े किये थे और जिसकी वजह से वे सारे देश में खलनायक बन गये थे। जबकि भाजपा और उसकी समर्थक ताकते तो परोक्ष में इंदिरा गांधी की ही पक्षधरता कर रहीं थी। उस समय का माहौल अलग था, चुनौतियां अलग थीं इसलिए इन पंक्तियों के लेखक का लिखना यह न माना जाये कि वह तात्कालिक परिस्थितियों में भाजपा को उसकी भूमिका के लिए किसी तरह अपराधी ठहराना चाहता है।
तब से अब तक कितना पानी बह चुका है झेलम और सतलुज में
बहरहाल आज वे देश विरोधी साजिशें नाकामयाब हो चुकी हैं। माहौल इतना बदल चुका है कि सिख देश भक्ति में पहले की तरह ही अन्य सारी कौमों के कान काट रहे हैं। इस बीच सिखों ने कांग्रेस तक के प्रति उस अतीत को भुला दिया है। अन्यथा पंजाब में कांग्रेस की सरकारें नही बन पातीं। डा. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद पंजाब में अलगाववाद एकदम आप्रासंगिक हो गया है। कैप्टन अमरिंदर सिंह जो आपरेशन ब्लू स्टार के कारण कम आहत नहीं हुए थे वे आज कांग्रेस के पंजाब में सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री हैं। इसमें सवाल कांग्रेस या भाजपा का नहीं है। गर्व इस बात पर होना चाहिए कि राष्ट्रवाद की जड़ें इस देश में इतनी मजबूत हैं कि एक भीषण आंधी के गुजर जाने के बावजूद वह न केवल सलामत है बल्कि राष्ट्र के तौर पर पहले से अधिक मजबूत हो गया है।
दो दशक पहले भाजपा भी नही उठा सकती थी सिख विरोधी दंगों के मुलजिमों का मामला
कांग्रेस की गलती वहां से शुरू होती है कि उसने सिख विरोधी दंगों से कुछ चेहरों को लगातार इनाम देने की कोशिश की। इस बीच कांग्रेस की पीढ़िया बदल चुकीं हैं। इसीलिए कांग्रेस सिख विरोधी दंगों के लिए माफी मांग चुकी है। जिन मामलों में दंगों के अभियुक्तों को सजा हुई है उनके खिलाफ नये सिरे से न्यायिक प्रक्रिया की शुरूआत भी कांग्रेस के समय ही हुई थी। लेकिन 1984 में जो कुछ हुआ वह एक जन उन्माद था। आज राष्ट्रवाद का पलड़ा भाजपा की ओर झुका हुआ है तो उस समय दंगें में शामिल रहे लोगों की ही संतानें भाजपा में आ गईं हैं।
वक्त का तकाजा है कि आज जब देश के लिए फिर से सिख खून बहाने को तैयार हैं तो उनके मन में किसी फितूर की गुंजाइश नही रहने दी जानी चाहिए तांकि भविष्य मे कोई राष्ट्र विरोधी शक्ति अपने षड़यंत्र में शामिल न कर सके। आज से डेढ़-दो दशक पहले सिख विरोधी दंगों के अभियुक्तों को सजा दिलाने की मुहिम शुरू करने पर भाजपा तक को मुश्किल हो सकती थी क्योंकि भाजपा का भी एक बड़ा वर्ग उसके खिलाफ होता। यह स्थिति भी समझी जानी चाहिए।
प्रज्ञा ठाकुर के बचाव के लिए हाजिर जबाव प्रधानमंत्री कुछ और भी कहने में है सक्षम
भोपाल में प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी से जुड़े सवाल पर प्रधानमंत्री ने 1984 के सिख विरोधी दंगों का राग फिर छेड़ा। वे प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी का बचाव दूसरी दलीलों से भी कर सकते थे क्योंकि मोदी एक बेहद हाजिर जबाव नेता हैं। लेकिन यह बहुत अच्छा नही होगा कि खालिस्तानी आंदोलन के उस डरावने दौर की याद आज दिलाई जाये। लोग समझ सकते हैं कि इसके नतीजे किस तरह सारे देश के लिए आगे चलकर खतरनाक बीजारोपण कर सकते हैं।