केपी सिंह
साधारण पृष्ठभूमि से असाधारण पद पर पहुंचे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पता है कि इतिहास किसी- किसी की जिंदगी में ऐसा कुछ करने का अवसर देता है जिससे वह वास्तव में महान लोगों की सूची में अपना नाम दर्ज करा सके। देश के प्रथम पुरूष ने महामारी से उपजे संकट को देखते हुए अपने वेतन में 30 प्रतिशत कटौती की घोषणा करके अवसर का ऐसा ही उपयोग किया है। काश उनका यह कदम देश में प्रेरणा की ऐसी लहर पैदा कर सके जिससे हर कोई त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करने को उद्यत हो जाये।
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अत्यधिक अधिकार प्रदर्शन शील के विरूद्ध है लेकिन हमारे देश में इसकी परवाह ने करते हुए ऐसे आचरण को प्रवृत्ति बना लिया गया है। सरकार ने जब सांसद क्षेत्र विकास निधि का अधिग्रहण करने की घोषणा की तो दबी जुबान से ही सही लेकिन इस पर माननीयों की खिन्नता उजागर हुई थी। कर्मचारियों के भत्ते खत्म करने की घोषणा पर बवाल हो गया तो सरकार को कहना पड़ा कि कर्मचारियों के भत्ते केवल स्थगित किये गये हैं समाप्त नहीं।
हालत यह है कि अभी भ्रष्टाचार की खबरें सामने लाने में संकोच दिखाया जा रहा है अन्यथा सरकारी महकमें विपदाग्रस्त लोगों को राहत के लिए खर्चे में से बारा न्यारा करने में भी नहीं चूक रहे जो कि कफनखसोट मानसिकता को बेशर्म नमूना है।
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क्या व्यक्ति या वर्ग देश और समाज से ऊपर है। देश पर संकट आ जाये तो हर व्यक्ति और वर्ग को सर्वस्व निछावर करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। आजादी की लड़ाई में ऐसा हुआ है। सिर्फ महापुरूषों ने उत्सर्ग की भावना नहीं दिखाई थी बल्कि जनसाधारण तक में राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए सब कुछ होम देने की ललक उमड़ पड़ी थी। पर आज भारतीय समाज उदात्त भावानाओं के शून्य में जी रहा है तो नैतिक पुनरूत्थान के लिए उच्च पदस्थ व्यक्तित्वों को अपने को उदाहरण बनाते हुए आगे आना होगा। राष्ट्रपति की पहल इस वांछनीयता के एकदम अनुरूप है।
यह पहल अकेले चने की कुलबुलाहट बनकर न रह जाये इस कारण भाड़ फोड़ने के लिए इससे प्रेरित श्रृंखला सामने लाने की जरूरत है।
माननीय के संबोधन से विभूषित अन्य गण प्रतिनिधि भी इसके लिए विचार करें। सरकार ने एक हाथ से एमपी लैड का बजट लिया तो दूसरे हाथ से इस कड़की में सांसदों के भत्ते बढ़ा दिये। क्या सरकार खुद कोरोना ग्रस्त हो गई है। एमपी लैड लिये जाने पर सांसदों की नाराजगी की खबर पर उनके तुष्टीकरण की जरूरत महसूस करके क्या सरकार ने जता दिया है कि उसकी इम्यून पावर चुक गई है।
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हालांकि माननीयों को बाध्य किये जाने की स्थिति न आने देकर स्वेच्छा से देश के लिए अर्पण की भावना दिखानी चाहिए। आज वैभव प्रतिष्ठा का मूल्य बन गया है लेकिन यह छलावा है। उनका माननीय दर्जा हर वैभव से ऊपर है। यह दर्जा जरूरत पड़ने पर अपने बड़प्पन के लिए समाज पर सब कुछ न्यौछावर कर देने से सार्थक होता है। राजा तो बहुत हुए लेकिन सदियों से लोग सत्यवादी हरिश्चन्द और हर्षवर्धन का नाम क्यों लेते हैं क्योंकि इन राजाओं ने अर्जित करने की नहीं सब कुछ लोगों की भलाई के लिए दान कर डालने की लालसा दिखाई थी।
सांसदों को इस दौर में बढ़े हुए भत्तों को सरकार को वापस करने की दिलेरी दिखानी चाहिए ताकि जो अशोभनीय कार्रवाई उन्हें प्रलोभित करने के लिए हुई है उसका शमन हो सके।
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सरकारी तंत्र का दायरा संख्यात्मक दृष्टि से अल्प है। असली भारत तो असंगठित क्षेत्र में बुद्धजीवी पेशे से शारीरिक पेशे तक में काम करने वाले बहुतायत लोगों में बसता है। आनुपातिक तौर पर दोनों क्षेत्रों के वेतनमान में जमीन आसमान का अंतर है। पहले आय की असमानता मिटाने की चर्चा छिड़ी रहती थी लेकिन अब तो चर्चा के लिए भी इन विसंगतियों को जुबान पर नहीं लाया जाता। तुलनात्मक रूप से सरकारी तंत्र में आवश्यकता से बहुत अधिक वेतनमान है फिर भी यहां अर्जन की भूख अनंत है। सूद से ज्यादा ब्याज की कहावत की तर्ज पर सरकारी तंत्र ऊपरी कमाई के लिए बेदर्द होने की सीमा तक चला जाता है। आज जब समाज के सामने इतना बड़ा संकट है तो देश के नाम पर भत्तों की कटौती तक सरकारी तंत्र को स्वीकार नहीं हो रहा यह विडंम्बना है।
सरकार को अब दिलेरी दिखानी पड़ेगी। यथा स्थिति बाद एक सीमा से ज्यादा सरकार के लिए वरेण्य नहीं होता। माना कि आज मैनेजमेंट का जमाना है लेकिन इसमें हुकूमत का गुण पूरी तरह आप्रासंगिक नहीं हो गया। सरकार में व्यापक हित के लिए ऐसे फैसले करने की कुब्बत जरूरी है जो कुछ लोगों को नाराज करने की कीमत चुका सके।
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मेहनतकश जनता की खून पसीने की कमाई से संसाधन इसलिए नहीं जुटाए और बढ़ाये जाते कि सरकारी तंत्र का स्तर वेतन भत्ते और रखरखाव में वृद्धि के जरिए ऊंचा उठाया जाये और आम लोगों की स्थिति की परवाह न की जाये यह संतुलित नीति नहीं है। जब से सरकार ने विभिन्न विभागों में आउट सोर्सिंग शुरू की है तब से तो यह नीति और आक्रोश पैदा कर रही है। ठेकेदार कंपनियों को एक तो बहुत कम वेतन पर कर्मचारी रखने की छूट दी गई है दूसरे जितने पैसे उनको खाते में भेजे जाते हैं उसमें से आधा पहले ही कंपनी अपने पास रखवा लेती है। इस अमानवीय शोषण के प्रति सरकार आंखे मूंदे हुए है जबकि इस अपकृत्य के लिए आजीवन कारावास जैसी बड़ी और कठोर सजा का प्रावधान होना चाहिए।
लेकिन अंततोगत्वा इस बिंदु पर ध्यान देना होगा कि केवल नियम कानून और नीतियों से इस तरह के सुधार नहीं हो सकते। लोगों के अंदर जब तक आध्यात्मिक परिष्करण नहीं होगा तब तक उनमें उदात्त भावना जाग्रत नहीं होगी जिसके बिना भौतिक प्रक्रियाओं से किये गये समाधान अधूरे रहेंगें। आध्यात्मिक परिष्करण के लिए महामहिम राष्ट्रपति की तरह गणमान्य विभूतियों को त्याग और नैतिकता के मामले में अपने को उदाहरण बनाकर सामने लाने की जरूरत इसीलिए है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)