Friday - 18 April 2025 - 4:14 PM

राष्ट्रपति बनाम सुप्रीम कोर्ट: पॉकेट वीटो पर संवैधानिक जंग

जुबिली न्यूज डेस्क 

नई दिल्ली। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की न्यायपालिका, खासकर संविधान के अनुच्छेद 142 पर की गई टिप्पणी के बाद एक नया संवैधानिक विवाद खड़ा हो गया है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले में राष्ट्रपति और राज्यपाल की निर्णय प्रक्रिया के लिए तीन महीने की समय-सीमा निर्धारित की गई है, जिससे राष्ट्रपति की पॉकेट वीटो की शक्ति पर सवाल उठने लगे हैं।

यह पहली बार है जब सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों के लिए कोई समयसीमा निर्धारित की है। यह फैसला तमिलनाडु की राज्य सरकार द्वारा राज्यपाल के व्यवहार को लेकर दायर याचिका पर आया है।

सुप्रीम कोर्ट का आदेश

8 अप्रैल को न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय पीठ ने कहा कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचारार्थ भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए। कोर्ट ने यह आदेश अनुच्छेद 142 के तहत “पूर्ण न्याय” की अवधारणा के आधार पर दिया।

संविधानविदों की आपत्ति -सुप्रीम कोर्ट

हालांकि, कई संविधानविद इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक अति-सक्रियता (judicial overreach) करार दे रहे हैं। उनका कहना है कि पॉकेट वीटो राष्ट्रपति की एक संवैधानिक शक्ति है, जिसे सीमित नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट की 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने केशवानंद भारती मामले में स्पष्ट किया था कि न्यायपालिका संविधान में संशोधन नहीं कर सकती, केवल उसकी व्याख्या कर सकती है।

विशेषज्ञों के अनुसार, राष्ट्रपति का यह अधिकार इसीलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कई बार विधायिका राजनीतिक हितों के तहत ऐसे कानून बना सकती है, जिन पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।

ऐतिहासिक उदाहरण

देश के सातवें राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने 1986 में इंडियन पोस्ट ऑफिस (संशोधन) विधेयक पर पॉकेट वीटो का इस्तेमाल किया था, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने संसद से पारित किया था। उस समय यह फैसला एक संवैधानिक संतुलन का उदाहरण बना था।

राजनीतिक और प्रशासनिक चिंता

कानूनविदों का मानना है कि यदि इस फैसले को लागू किया गया, तो राष्ट्रपति या राज्यपाल की स्वायत्तता प्रभावित होगी। भविष्य में ऐसी स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है, जब कोई राज्य सरकार केंद्र के कानून को न मानते हुए राज्य विधान सभा से उलट विधेयक पारित कर राष्ट्रपति को भेज दे। उस स्थिति में राष्ट्रपति क्या करेंगे, यह स्पष्ट नहीं है।

सरकार के पास विकल्प

सरकार के पास इस फैसले को चुनौती देने के लिए दो न्यायिक विकल्प हैं—

  1. पुनर्विचार याचिका (Review Petition)

  2. क्यूरेटिव याचिका (Curative Petition)

इसके अतिरिक्त, सरकार चाहें तो अध्यादेश जारी कर इस आदेश को पलट सकती है और फिर संसद में विधेयक पारित कर इसे स्थायी रूप दे सकती है।

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संवैधानिक संतुलन पर बहस

भारतीय संविधान में शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers) एक मूलभूत सिद्धांत है, जिसके तहत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से कार्य करती हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि न्यायपालिका को संविधान की सीमाओं का सम्मान करना चाहिए, ताकि तीनों स्तंभों के बीच संतुलन बना रहे।

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