भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
चुनावी काल की राजनैतिक सरगर्मियों के मध्य विदेशी ताकतों के व्दारा देश की आन्तरिक व्यवस्था पर टिप्पणियों का दौर प्रारम्भ हो गया है। दुनिया की व्यवस्था की स्वयंभू ठेकेदारी सम्हालने वाले भारत के स्वरूप को अपने ढंग से नियंत्रित करने का प्रयास करने लगे हैं।
स्वाधीनता के बाद की इण्डिया का भारत के रूप में कायाकल्प होते ही अहंकार में डूबे हथियारों के विक्रेताओं के माथे पर बल पडने लगा है। कभी हमारी न्याय व्यवस्था को रेखांकित करने की कोशिशें होतीं हैं तो कभी आरोपियों की वकालत की जाने लगती है।
जग जाहिर है कि दुनिया भर के जालसाज-भगोडों का कवच बनने वाले राष्ट्र हमेशा से ही अन्य देशों पर शिकंजा कसने के लिए दबाव बनाकर लाभ का अवसर तलाशते रहते हैं।
आतंकवाद को पर्दे के पीछे से सहयोग करके संसार में अस्थिरता पैदा करने वाले हथियारों के निर्यातक देश दूसरों के कन्धों पर बंदूक रखकर गोली चलने में माहिर है। ऐसे षडयंत्रकारी भूभाग वर्तमान में भारत की नीतियों, व्यवस्था और विकास के कारण आन्तरिक रूप से व्यथित हैं। स्वाभिमान के शिखर की ओर अग्रसर होने वाले भारत में आत्मविश्वास का सूर्य चमकने लगा है।
देश के साथ वैमनुष्यता रखने वालों के हाथों में कटोरे आते जा रहे हैं। वहां की अभाव भरी जिन्दगियों ने आन्तरिक विद्रोह की राह पकड ली है। चीन की चालों में फंसे कई देशों की कराह निकलने लगी है।
वे दिवालिया होने होने की कगार पर पहुंच गये हैं। ऐसे में विश्वगुरु के सिंहासन की ओर बढते भारत के कदमों पर सकारात्मक राष्ट्रों व्दारा पंखुडियां बिछाने, प्रोटोकाल तोडकर वहां के राष्ट्राध्यक्षों व्दारा अगवानी करने तथा सर्वोच्च सम्मान देने से आतंक को संरक्षकों के सीने पर सांप लोटने लगे हैं।
मुस्लिम राष्ट्रों में भी साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित करने की दिशा में भारत के साथ कदमताल करने के संकेत दे दिये हैं। वसुधैव कुटुम्ब कम की अवधारणा तले विश्व विरादरी जमा होने लगी है। सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुष्ठानिक संकल्प दोहराये जाने लगे हैं।
वर्तमान भारतवर्ष का ऊर्जा चक्र विश्व संघर्षों पर पूर्णविराम लगाने लगा है। वर्तमान के लोकसभा के चुनावी काल में ही रूस और यूक्रेन जैसे राष्ट्रों ने एक साथ भारत को आमंत्रित किया है।
दौनों पक्षों के विश्वास है कि भारत की पहल पर ही विश्व शान्ति सम्भव है। दूसरों के मामलों में चौधरी बनने के मंसूबे पालने वालों को मुंहतोड जवाब मिलते ही उनके सिपाहसालार मासूसी के दलदल में डूबने लगे हैं। आर्थिक अपराध, सामाजिक अपराध, संवैधानिक अपराध, मानवीय अपराध के पुराधाओं को सलाखों की सौगात मिलते ही उनके संरक्षक बौखला उठे। देश की स्वतंत्र संस्थाओं की कार्य प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह अंकित करके वे अपने कलेजे को ठंडा करने की कोशिश में हैं।
संयुक्त राष्ट्र की पत्रकार वार्ता में भारत के आन्तरिक मुद्दों पर बंगलादेशी पत्रकार से प्रश्न उठवाने वाले एक तीर में दो निशाने करना चाहते थे। अमेरिका, जर्मनी के व्दारा भारत के आन्तरिक मुद्दों पर ज्ञान देने की श्रंखला को संयुक्त राष्ट्र संघ तक पहुंचने की कोशिश के साथ-साथ भारत-बंगलादेश की दोस्ती को संदेह के दायरे में लाने का लक्ष्य भी शामिल था।
आश्चर्य होता है कि बंगलादेशी पत्रकार व्दारा किन्हीं खास कारणों से पूछे गये प्रश्न को हमारे देश के अनेक मीडिया हाउस स्वयं की सुर्खियां बनाने में जुट गये। दूसरों की सोच को समर्थन देने के पीछे की मंशा को देश हित की पहल नहीं कहा जा सकता।
संस्थान विशेष का पत्रकार अपने नियुक्तकर्ता के सिध्दान्तों का अनुशरण करता है, उनकी नीतियों के अनुरूप प्रश्न करता है और वहीं प्रकाशित-प्रसारित भी करता है।
यदि कोई अन्य संस्थान उसी प्रश्न को उठाता है तो निश्चय ही उसकी सोच भी प्रश्नकर्ता की सोच से सहमत होगी। ऐसे में राष्ट्रहित, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीयता पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाते हैं।
इन दिनों हाथों में हरा झंडा थामकर लाल सलाम करने वालों के षडयंत्र उजागर होने लगे हैं जिन्हें दबाने हेतु काले लबादा का सहारा लिया जाने लगा है। दबाव की राजनैतिक चालों से देश के वातावरण में अराजकता फैलाने के प्रयास एक बार फिर तेज कर दिये गये हैं।
मीर जाफर को आदर्श मानने वाले स्वयं के हित के लिए देश की अस्मिता को सौदा करने लगे। कभी निर्वाचन आयोग पर सवालिया प्रहार होते हैं तो कभी न्यायपालिका के क्रियाकलापों को संदेह की नजरों से देखा जाता है। शिक्षा के मंदिरों में राजनैतिक अलाव जलाया जाने लगा। शिक्षा माफियों की एक बडी जमात फर्जी अंकसूचियों के आधार पर असामाजिक तत्वों को देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश दिलाकर वहां के वातावरण को दूषित करने में लगी है। शिक्षा प्रदान करने वाले स्थानों में देश के टुकडे करने की कसमें दिलाई जाने लगीं हैं।
राजनीति को पेशा बना चुके घरानों के स्वयंभू सुप्रीमो ऐसे लोगों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खडे हो जाते हैं। आज हालात यहां तक पहुंच गये हैं कि जातियों के वोटों का ठेका लेने वाले लोग राजनैतिक दलों से सौदेबाजी करने में जुटे हैं। समानता का राग अलापने वाले अब जातिगत विभेद पैदा करने हेतु षडयंत्र करने में जुट गये हैं। सम्प्रदायगत भय पैदा करने वाले कट्टरवादियों व्दारा देश के विभिन्न स्थानों पर अपने गुर्गों से आतंक फैलाने की कोशिशें कर रहे हैं।
कहीं आईएसआईएस से धमकी दिलाई जा रही है तो कहीं आईएसआई के समर्थकों की चुनौतियां सामने आ रहीं हैं। रमजान के महीने में भी निरीहों के खून की होली खेलने वाले अब अल्लाह के पैगाम पर मुल्लाओं के तर्र्जुमा को यकीनी मानकर जन्नत की हूरों के सपने देखने लगे हैं। तर्जुमा करने वालों की संतानें खुशहाल देशों में अय्यासी भरी जिन्दगी जी रहीं हैं।
सुरक्षा के सात तालों में बंद होकर रहने वाले खुराफाती लोग ही दूसरों की औलादों को खुदा के नाम पर खुदकशी करने के लिए उकसा रहे हैं। दीन की तालीम के नाम पर अनेक संस्थानों में जेहाद की पढाई चल रही है। लोकसभा चुनाव में झूठी अफवाहों, मनगढन्त घटनाओं और उत्तेजनात्मक सामग्री परोसी जा रही है।
वाट्सएप जैसे अनगिनत प्लेटफार्म निरंकुश होकर देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को रेगस्तान बनाने पर तुले हैं।
निजी समूहों के नाम पर बनाये जाने वाले अनेक ग्रुप में उत्तेजनात्मक सामग्री उडेली जा रही है। कानून की धज्जियां उडाने वाले कट्टरपंथियों के ग्रुप पर काले कोटवालों की दलीलें हावी हो जातीं हैं और काजल की कोठरी के निर्माण करने वाले ग्रुप के एडमिन न्यायालय की चौखट से बेदाग बच निकलते हैं।
संविधान का यही लचीलापन राष्ट्रदोहियों के लिए कवच का काम करता है। धर्म के नाम पर बनाये गये अनेक संगठनों की शक्ति का उपयोग समाज हित में न होकर कट्टरता के नाम पर जुल्म करने के लिए हो रहा है। बचपन से ही कट्टरता का पाठ पढाने वालों को देश के ईमानदार नागरिकों के खून-पसीने की कमाई से पाला जा रहा है।इसे नस्तनाबूत करने के लिए नागरिकों के मन में राष्ट्रीयता की भावना का प्रादुर्भाव नितांत आवश्यक है।
वर्तमान हालातों को देखते हुए इस बार के लोकसभा चुनावों में विकास और प्रतिष्ठा के आधार पर मतदान की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।