उत्कर्ष सिन्हा
मायावती और मोदी की वो लाखों की भीड़ वाली रैलियां क्या अब अतीत के किस्से रह जाएंगे ? भीड़ भरे शहरों की सड़कों पर होने वाले रोड शो का दौर क्या खत्म हो चुका है ?
कोरोना संक्रमण ने पूरे देश को एक नया शब्द समझा दिया है – सोशल डिस्टेनसिंग । कोरोना का डर इतना बड़ा हो चुका है कि अगर धर्मं के कट्टरपंथियों या शराब की दुकानों की भीड़ को छोड़ दें तो आम आदमी खुद ही तब तक उचित दूरी बनाए रखना चाहता है जब तक कोई बड़ी मजबूरी उसके सामने न खड़ी हो जाए ।
कोरोना काल में कई ऐसी खबरे भी आई जिसमे रसूखदार नेताओं ने सोशल डिस्टेनसिंग की धज्जियां उड़ा दी । सोशल मीडिया ने इस पर जम कर प्रतिक्रिया भी दी। जाहिर है लाकडाउन में फंसे लोगों को ये कतई नहीं सुहाया।
कोरोना का डर इतना बड़ा हो चुका है कि आने वाले दिनों में लाखों की भीड़ के दावे वाली राजनीतिक रैलियाँ अगले 2 या 3 साल शायद ही हो सकें। भीड़ जुटा कर ताकत दिखाने का ये फार्मूला तो फिलहाल ठंडे बस्ते में ही गया मानिए।
बड़े नेताओं को घेर कर चलने वाली सड़क यात्राएं भी निश्चित ही प्रभावित होंगी। तो ऐसे में ये राजनेता क्या करेंगे? आखिर अपने समर्थकों को संदेश देने का काम किस तरह से होने वाला है ?
राहुल गांधी ने इसका रास्ता फिलहाल निकाल लिया है। वे डिजिटल माध्यम का खूब उपयोग कर रहे हैं। बीते 15 दिनों में उन्होंने 2 बड़े अर्थशास्त्रियों से बात की और 2 प्रेस कांफ्रेंस भी की । इन सबका प्रसारण उनकी डिजिटल टीम ने फेसबुक सरीखे प्लेटफ़ार्म पर किया। जाहिर हैं जनता का एक बड़ा वर्ग वहाँ राहुल की बात सुन रहा था। 8 मई को उनकी प्रेस कांफ्रेंस को करीब 30 लाख लोगों ने देखा ।
सोशल मीडिया पर लाईव आने का ये चलन नया तो नहीं है लेकिन करोना काल में दूसरे विपक्षी नेताओं ने इसे अब तक नहीं अपनाया। एक वक्त में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की रैलियों का भी सोशल मीडिया पर ऐसा ही प्रसारण होता था , मगर कोरोना काल में टीम अखिलेश चूक रही है।
भाजपा ने जब अपने तेवर बदले थे तो उसने भी सोशल मीडिया का खूब उपयोग किया । पार्टी ने बाकायदा साईबर योद्धा बनाए जिनको तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह अक्सर संबोधित भी करते थे। फिलहाल नरेंद्र मोदी के ढेर सारे वीडियो सोशल मीडिया पर चलते दिखाई देते हैं ।
तो क्या करोना काल के बाद राजनीति के लिए ये रास्ता ज्यादा बड़ा हो जाएगा? समाजवादी पार्टी के युवा नेता योगेश यादव इस बात से सहमत हैं। योगेश का कहना है – “यूपी में विधान सभा चुनावों में ज्यादा वक्त नहीं है, फिलहाल बड़ी रैलियां करना भी संभव नहीं होने वाला । ऐसे में तकनीकी की मदद लेनी ही होगी। अपनी पार्टी की मीटिंगों के लिए भी अब वीडियो माध्यमों का प्रयोग करना पार्टियों के लिए जरूरी हो जाएगा।“
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत तिवारी का कहना है कि इस संकट काल में जनता ने लोकशाही के सभी पहलूओं को बड़े करीब से देख लिया है, उसे अब किसी के वादे मात्र प्रभावित नहीं करने वाले हैं । हर वर्ग ये देख रहा है कि कौन उसके लिए लिए क्या कर रहा है । वो अपना मन इसी अनुभव के आधार पर बनाएगी ।
सोशल मीडिया की ताकत से वरिष्ठ पत्रकार हेमंत तिवारी भी सहमत हैं । हेमंत कहते हैं – “ सोशल मीडिया अब शहरों की बात नहीं रही । हर गाँव और चट्टी पर इसकी पहुँच है, अब नेताओं को इसका उपयोग करना मजबूरी हो चुकी है। वे भीड़ वाली मीटिंगे नहीं कर सकते तो सोशल मीडिया के जरिए ही अपनी बात वोटर तक ले जाएंगे ।“
भाजपा इस खेल में पहले से ही उतर चुकी थी और इस वजह से वह इस मैदान पर दूसरी पार्टियों ने आगे भी दिखाई देती है ।
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उत्तर प्रदेश कांग्रेस के महासचिव विश्वविजय सिंह भी इस बदलाव को स्वीकार करते हैं। विश्वविजय सिंह का मानना है कि आने वाले दिनों में राजनीतिक की शैली जरूर बदलेगी, और इसमे तकनीकी के साथ साथ पुराने तौर तरीके मिलने पड़ेंगे। हर पार्टी को निचले स्तर तक संगठन को मजबूत करना होगा और व्यक्तिगत संपर्कों के लिए कार्यकर्ताओं को प्रेरित करना होगा। साथ ही साथ सोशल मीडिया टीम को भी मजबूत करना ही पड़ेगा।
हालिया दिनों में राहुल गांधी के प्रयासों को भी विश्वविजय इसी का हिस्सा मानते हैं । वे कहते हैं कि सोशल मीडिया पर राहुल ने रघुराम राजन और अभिजीत भट्टाचार्य से जो संवाद किया उसका लोगों में अच्छा असर गया है ।
भाजपा नेता अमित पुरी इस सवाल को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं – “ हर दौर अपने साथ कुछ बदलाव और सुधार लाता है , लेकिन एक बात जरूर होती है कि राजनेता के लिए जनता से व्यक्तिगत भाव से संवाद बनाना बहुत महत्वपूर्ण होता है। सोशल मीडिया का दाखल राजनीति में पहले ही बढ़ चुका है। अब चुनौती जीवंत संवाद को बनाए रखने की है ।
तरीकों से ज्यादा बड़ा एक और प्रश्न सामने आने लगा है । वो ये कि यदि कोरोना काल लंबा चला तो लोकतंत्र की प्रक्रियाओं में भी बदलाव आएंगे ? राज्य सभा के चुनाव टाले गए और कई राज्यों में उपचुनाव भी होने हैं । साथ ही बिहार विधान सभा का चुनाव भी बहुत निकट है । ऐसे में क्या इन चुनावों को टालने की की भी बात शुरू होगी ?
प्रश्न ढेरों हैं जो समय ने अचानक सामने रख दिए हैं । समय ही इनके उत्तर भी देगा ।