Wednesday - 30 October 2024 - 2:40 AM

कौन देता है जनभावनाओं के विरुद्ध उम्मीदवार थोपने का दुस्साहस

Bebak Baat with P K Singh
के पी सिंह 

सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव की कवायद जारी है। चौथे चरण के लिए नामांकन चल रहे हैं और पीछे के तीन चरणों को कवर करने वाले क्षेत्रों में इस महासमर का माहौल पूरी तरह गर्मा चुका है। इसके बीच जो विपर्यास सबसे ज्यादा उभर रहा है वह है स्वतः स्फूर्त के आधार मतदाताओं के जनमत को संगठित करने का प्रयास हो, इसकी बजाय राजनीतिक दल तमाम हथकंडों के जरिये अपने स्वार्थ और अनकूलता के विमर्श मतदाताओं पर थोपने में सफल होते जा रहे हैं। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के पतन की गाथा का एक और अध्याय रच रही है।

अवतारवाद के संस्कार

लोकतंत्र की सफलता का सबसे बड़ा मानक यह है कि लोग व्यवस्थाओं को सुधारने में अपनी सक्षमता को अनुभव करें और इसके लिए पहलकदमी की इच्छा शक्ति दिखाएं। दूसरी ओर अवतारवाद के विरासत में मिले संस्कारों की जड़ें भारतीय समाज में इतनी गहरी हैं कि बदलाव के लिए किसी मसीहा पर निर्भर हो जाने की ग्रंथि से जनमानस उबर नही पा रहा है।

क्रांतिकारी परिणामों का सर्जक

ऐसा नही है कि भारतीय समाज में लोकतंत्र का अनुशीलन निर्थक रहा हो। यह लोकतंत्र ही है जिसने यहां के औपनवेशिक समाज की चटटानों को तोड़ा है। उन धार्मिक सामाजिक विश्वासों के जीवित रहते हुए भी जिनमें जाति के आधार पर अर्हता और पात्रता निर्धारित की जाती हो, तिरस्कृत तबकों को सत्ता में भागीदारी दिलाने में लोकतंत्र ने क्रांतिकारिता की हद तक सफल भूमिका का निर्वाह किया है। यह व्यक्तिपूजा से उबरने के द्वारा ही संभव हो पाया।

अस्मिता की राजनीत ने स्थापित व्यक्तित्वों के सम्मोहन की जकड़न खोलकर लोगों को सामुदायिक अधिकार और स्वाभिमान के प्रति सचेत किया। बाबा साहब अंबेडकर ने जिस सामाजिक लोकतंत्र की अभीप्सा की थी उसे किसी हद तक अपना मुकाम मिला।

प्रति क्रांति में कैसे गर्क हुई क्रांति

लेकिन यह क्रांति अब प्रतिक्रांति में बदल चुकी है और व्यक्ति पूजा के नये दौर ने इसे ग्रसित कर लिया है। पार्टियां और विचारधारा शीर्ष नेतृत्व की स्वेच्छाचारिता के तले सिसक रहीं हैं। पूरी व्यवस्था किसी निर्वात (शून्य) में जाकर विलीन हो गई है जिसमें लोकतंत्र के उच्छवास के लिए प्राण वायु का अभाव है।

उम्मीदवारी का फैसला पहला सोपान

चुनाव का पहला चरण शुरू होता है पार्टियों द्वारा प्रत्याशियों के चयन से। पार्टियां कार्यकर्ता और आम जनता की इच्छा के मुताबिक उम्मीदवार का चयन करने के लिए बाध्य रहें, यह आदर्श स्थिति है। लेकिन रुपये लेकर किसी को भी उम्मीदवार तय कर दिया जाय यह हेकड़ी पार्टी के नेतृत्व में तभी आ सकती है जब व्यक्तिपूजा इस कदर प्रभावी हो गई हो कि लोग अपनी इयत्ता के भान से ही विस्मृत हो चुके हों। कुछ पार्टी ऐसी हैं जो इस मामले में खुला खेल फर्रुखाबादी खेलती हैं लेकिन यह खेल केवल उन्हीं पार्टियों में नही चलता। दूसरी भी दूध के धुले नही हैं। कमोवेश कुछ और पार्टियां भी हैं जो उम्मीदवारी बेचने का चोर बाजार अपने यहां सजाये हुए हैं।

व्यक्ति पूजा मदांध नेतृत्व के लिए जिम्मेदार

व्यक्ति पूजा पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व को मदांध बना रही है। जहां नेतृत्व पैसा नही लेता वहां उम्मीदवारी तय करने में अपने मद का प्रकटन अन्य तरीकों से करता है। अंग्रेजी शासन कहता था कि पुलिस को ज्यादा पगार मत दो। पगार अच्छी होगी तो पुलिस ईमानदारी से काम करेगी और लोगों से उसका संबंध अच्छा होगा। संभव है कि ऐसे में पुलिस स्वतंत्रता संग्राम की भावना से संक्रमित हो जाये जो साम्राज्य के लिए बड़ा खतरा बन जायेगा।

दूसरी ओर जरूरत से चौथाई पगार मिलने पर पुलिस अपनों को ही लूटेगी और उसकी बदनामी लोगों और उसके बीच जुड़ाव की संभावना को रोकने के लिए अभेद्य दीवार का काम करेगी। बदनामी की यह अंग्रेजी थ्योरी राजनीतिज्ञों ने भी अपने बड़े काम की चीज समझ ली है। निरंकुश नेतृत्व ऐसे उम्मीदवार को लोगों के सामने लाने में विश्वास रखता है जो अपने निकम्मेपन और दुष्टता के कारण लोगों के बीच खलनायक के रूप में पहचाने जाते हों। निरंकुश नेतृत्व को पता होता है कि उसके प्रति अंध भक्ति लोगों को उसके उम्मीदवार को ही वोट देने के लिए मजबूर करेगी। ऐसे लोग जब चुने जायेगें तो वे पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के हामियों की तरह उसके स्याह-सफेद फैसलों को लेकर चू-चपड़ करने की सोचेगें तक नहीं।

गैर जबावदेह नुमाइंदगीं का जहर

लोगों को जब गैर जबावदेह नुमाइंदगी का जहर भारी पड़ने लगा तो पार्टियों और उनके हाईकमान को सबक सिखाने के लिए उन्होंने हाल में कई प्रयोग किये। इस सदी की शुरूआत में बिहार विधानसभा के चुनाव में कई क्षेत्रों में लोगों ने चुनिंदा गांवों में जन पंचायतें बनाईं जिन्होंने तय किया कि सेवा और शुचिता के आधार पर किस व्यक्तित्व को लोगों का उम्मीदवार होना चाहिए और उसे चुनाव मैदान में उतरने के लिए रजामंद करके पार्टियों को एक संदेश देने की कोशिश की।

ऐसे प्रयोगों से पार्टियों का हाईकमान पर्याप्त सीमा तक जनभावना के अनुरूप उम्मीदवार तय करने का दबाव महसूस करने लगा था। लेकिन शिखंडी बनकर नोटा आ गया जिसे आज शगल के रूप में स्वीकार किया जा रहा है। कई क्षेत्रों में नोटा का बटन इतना ज्यादा दब जाता है कि उसके नंबंर पार्टियों के उम्मीदवारों को मिले मतों से भी ज्यादा हो जाते हैं। लेकिन इससे चुनाव तो खारिज हो नही जाता। अलबत्ता लोगों का उम्मीदवार थोपने की शैली के खिलाफ जो गुस्सा विद्रोह का ज्वालामुखी बनकर फटने वाला था नोटा ने उसका गुबार निकाल देने का इंतजाम कर दिया।

जिन पर किया भरोसा उन्होनें भी तोड़ी उम्मीदें

विडंबना यह है कि जिन पार्टियों को अस्तित्व बचाने या बढ़ाने के लिए जिताऊ की कसौटी पर किसी को भी उम्मीदवार बनाकर अपने गले में लटकाने से परहेज नही था उनसे तो कोई उम्मीद की नही जा सकती थी। लेकिन लोग आशा संजोये थे कि जिस दिन किसी पार्टी को अच्छा मानकर लोग उसे समर्थन का ब्लेंक चैक थमा देगें उस दिन उम्मीदवारों के चयन में साफ-सुथरे मापदंडों को सर्वोच्च वरीयता दिये जाने की परंपरा का नये सिरे से सूत्रपात होगा।यह उम्मीद लोकप्रियता की लहर पर सवार पार्टी द्वारा भी ऐरे-गैरों को उम्मीदवार बनाने से बुझी जा रही है। यहां तक कि ऐसी निरापद पार्टी जिताऊ के नाम पर बदनाम तत्वों को आयात करके अपने बैनर के साथ चुनाव मैदान में उतारने की बेशर्मी से दूर नही रह पा रही है।

मायावी युद्ध के पौराणिक रूपक का आधुनिक संस्करण

दरअसल उन्हें अपने को साबित करके निष्कपट मत याचना करने में विश्वास नही है। पौराणिक कथाओं में राक्षसों के जिस मायावी युद्ध का जिक्र है उससे मिलती-जुलती बाजीगरी शैली को अपना कर हर मोर्चे को जीतने की महारथ रखने वाले मूल्य मान्यता की राजनीति की ओर अपने कितने ही कामयाब दिनों में भी नही लौट सकते।

जरूरत है लोगों की पहलकदमी की

ऐसी स्थितियों में लोग किसी अवतार पुरुष के भरोसे अच्छे दिन की उम्मीद क्यों कर रहे हैं। लोग वांछनीय सुधारों के लिए समाज की पहलकदमी की सख्ती में विश्वास करें तभी उनकी अच्छे दिन की उम्मीद साकार होना संभव होगा।

(लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं।)

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