डा. रवीन्द्र अरजरिया
स्वाधीनता के बाद केन्द्र और राज्यस्तर पर स्थापित विभागों के अलावा अनेक उप-विभाग, निकाय, निगम, संघ जैसी संस्थाओं को समय की आवश्यकता बताते हुए स्थापित किया गया। प्रत्यक्ष में भले ही वे संस्थायें व्यवस्था में सहायता करने की घोषणायें करती हों परन्तु अप्रत्यक्ष में वे सत्ताधारी दलों के उन लोगों के लाभ का घर होतीं है जो जनप्रतिनिधि के रूप में सदन तक नहीं पहुंच पाते।
ऐसी संस्थाओं की कमी न तो केन्द्र के दरबार में है और न ही राज्यों में। मध्य प्रदेश में आपदा प्रबंधन संस्थान, वित्त निगम, तीर्थ स्थल एवं मेला प्राधिकरण, वन विकास निगम लिमिटेड, लघु वनोपज सहकारी संघ मर्यादित,जैव विविधता बार्ड, लघु उद्योग निगम, इण्डस्ट्रियल डेव्हलपमेन्ट कार्पोरेशन लिमिटेड जैसी अनेक संस्थायें काम कर रहीं है।
तो उत्तर प्रदेश में आवास एवं विकास परिषद, सहकारी आवास निर्माण एवं वित्त निगम लिमिटेड, मदरसा शिक्षा परिषद, अल्पसंख्यक वित्तीय विकास निगम, पावर कारपोरेशन लिमिटेड, भूमि सुधार निगम, खाद्य एवं आवश्यक वस्तु निगम, सहकारी गन्ना समिति, चीनी निगम, मध्य गन्ना बीज विकास निगम, पश्चिम गन्ना बीज विकास निगम, सहकारी चीनी मिल संघ लिमिटेड जैसी संस्थायें।
इन संस्थाओं में अध्यक्ष से लेकर अनेक पदों का मनोनयन सत्ताधारी दल के कद्दावर लोगों का होता है। गहराई से देखा जाये तो इन संस्थाओं के माध्यम से पार्टी का झंडा ऊंचा करने वाले लोगों को समायोजित करने, उन्हें विशेष बजट आवंटित किया जाता है। इन्हें पूरक कार्यों की वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में निरूपित करते हुए अतिरिक्त लाभ के अवसर भी मिलता है।
जिस देश में लोगों को रोटी, कपडा और मकान की आवश्यकता की पूर्ति हेतु रोजगार की आवश्यकता हो, वहां पर मध्यम वर्गीय परिवारों व्दारा ईमानदारी से दिये जाने वाले टैक्स से सस्ता राशन, ऋण माफी, अनुदान जैसे कार्यक्रम चलाकर वाहवाही लूटने की होड मची है। कहीं उज्जवला की गूंज तो कहीं मनरेगा की उपलब्धियों का ढिंढोरा, कहीं व्यक्ति विशेष के नाम पर आवासीय कालोनियों का लालीपाप तो कहीं लैपटाप का वितरण।
ईमानदार नागरिक व्दारा राष्ट्रभक्ति को समर्पित श्रध्दा सुमनों को जिस बेदर्दी के साथ कामचोर और अकर्मण्य लोगों पर लुटाया जा रहा है। उससे तो यही लगता है कि वास्तव में कलयुग आ गया है और कलयुगी लोगों के तांडव पर हमें तालियां बजाने के लिए बाध्य भी किया जा रहा है। विचार चल ही रहे थे कि तभी फोन की घंटी बज उठी। चिन्तन थम गया। फोन पर देश के जानेमाने विचारक राकेश शर्मा की आवाज गूंजी।
उन्होंने मिलने की इच्छा जाहिर की। समय और स्थान निर्धारित हुआ। आमने-सामने पहुंचते ही हमने अभिवादन की औपचारिकता और कुशलक्षेम पूछने-बताने का क्रम पूरा किया। वे कुछ कहते उसके पहले ही हमने उन्हें अपने मन में चल रहे चिन्तन से अवगत कराया। देश के संविधान के लचीलेपन की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि व्यवहारिक कठिनाइयों और सैध्दान्तिक उपलब्धियों के मध्य की दूरी पाटने के लिए बहुत सारे उपाय किये जाते हैं।
सत्ता सुख का मोह पाले लोगों को देश, देशवासियों और देश के भविष्य की चिन्ता से अधिक स्वयं, परिवार और अपने खास लोगों के हितों के रक्षा का ख्याल होता है। प्राथमिकताओं में पहली पायदान पर वे स्वयं और आखिरी पायदान पर देश होता है। टैक्स की नीति निर्धारण के दौरान भुगतान करने वालों की मन:स्थिति देखी जाती है। बडे औद्योगिक घरानों को संरक्षण देने का काम उनके विधि विशेषज्ञों की टीम करती है।
गरीबी का लबादा ओढे कारों पर चलने वाले लोगों के शौक पूरा करने का ठेका तो पहले से ही सरकार ने ले रखा है। जीवित सांसों में मौत का अहसास तो केवल और केवल मध्यम वर्गीय परिवार ही करते हैं। दूसरी ओर पार्टी के खास सिपाहसालारों की फौज को संतुष्ट करना, वोट बैंक में इजाफा करने हेतु लालच का मायाजाल फैला, राष्ट्रवादी दिखना और स्वयं को ज्ञानवान परिभाषित करना, आज की राजनीति में सर्वाधिक महात्वपूर्ण कारक बन गया है।
अंग्रेजों की फूट डालो – राज करो, बाह्य आक्रान्ताओं का सांस्कृतिक अतिक्रमण और भितरघातियों के स्वार्थ सिध्दि के सिध्दान्त, आज एक साथ राजनैतिक परिदृश्य में देखने को मिल रहे है। यही कारण है कि केन्द्र और राज्यों का व्यवस्था तंत्र भी दलगत नीतियों का बोझ ढोने को विवस है। वास्तविकता तो यह है कि महात्वाकांक्षाओं की पूर्ति से वोट बैंक बढाने में लगे हैं राजनैतिक दल।
विचार मंथन चल ही रहा था कि तभी नौकर ने ड्राइंग रूम आकर सेन्टर टेबिल पर चाय के साथ स्वल्पाहार की प्लेटें सजाना शुरू कर दी। तब तक हमें अपने मस्तिष्क में चल रहे विचारों को दिशा देने हेतु पर्याप्त साधन मिल चुके थे।