संदीप पांडेय
बैठे बिठाए सत्ता उसी को मिली है जो किसी संघर्षरत शख्स का बेटा हो, वर्ना सत्ता के लिए तो लोगों को अपना पूरा जीवन खपाना पड़ जाता है। सत्ता की चौतरफा लड़ाई में सबसे मुख्य किरदार जन सरोकार के मुद्दे को सड़क पर उतारने का होता है। ये काम जो कर गया उसकी सियासी रणनीति कमजोर भी हो तो भी उसकी दाल गल जाती है।
मौजूदा हालात को देंखे तो विपक्ष सड़क से परहेज कर रहा है, रणनीति बना नहीं पा रहा है, सरकार की कमजोर नस पकड़ नहीं पा रहा है, खुद को जनता से जोड़ नहीं पा रहा है और सत्ताधारी पार्टी को हरा नहीं पा रहा है। सिवाए बंगाल में बीजेपी के।
बीजेपी में तमाम खामियां हो सकती है, ये अपने- अपने नजरिये की बात होगी। लेकिन इस सच से भला कौन इंकार कर सकता है कि विपक्ष के तौर पर जो जद्दोजहद बीजेपी दिखा रही है उसके मुकाबले दूसरी कोई पार्टी नजर नहीं आती।
बंगाल में जिस तरह से बीजेपी ने सेंध लगाया है उसको लेकर ममता बनर्जी इतनी घबरा गई हैं कि उन्होने वाम दलों और कांग्रेस से संवाद करने में कोई गुरेज नहीं किया।
जो लोग ममता बनर्जी को जानते हैं वो ये भी जानते हैं कि इतनी जिद्दी होने के बावजूद वाम दलों और कांग्रेस का आवाहन करने का मतलब है कि ममता को अपना आधार खिसकता महसूस हो रहा है। इसका कारण सिर्फ दिल्ली में बनाई गई बीजेपी की रणनीति नहीं है बल्कि बंगाल की सड़कों पर बीजेपी कार्यकर्ताओं की आहूति है।
बंगाल में लगातार बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के बने रहने से उनके कार्यकर्ताओं का मनोबल इतना बढ़ा हुआ है कि लगातार होती मौतों के बावजूद वो आंदोलन से पीछे नहीं हट रहे।
आन्ध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन इसका अपवाद भी हैं और उदाहरण भी, कि अगर माद्दा हो तो सत्ता झक मार के मिलती है फिर चाहें सामने नरेन्द्र मोदी हो या चन्द्रबाबू नायडू ।
जगनमोहन की ही तरह अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव भी युवा हैं और अपनी पार्टी के मुखिया के भी है। लोकसभा चुनाव के बाद ये दोनों सड़क पर दिखाई नहीं दे रहे।
बिहार में चमकी के त्रासदीकाल में तेजस्वी यादव कहां हैं , किसी को नहीं पता । क्या इस समय उन्हे पीड़ितों के बीच रहकर उनके आंसू नहीं पोंछना चाहिए था । तेजस्वी को ये समझना होगा कि 1975 के आंदोलन में शिरकत करने के बाद लालू प्रसाद ने खुद को बिहार की सियासत में समाहित कर दिया था, तब जाकर उन्हे 1990 में सत्ता मिली।
इसी तरह यूपी में भी मुलायम को लंबे संघर्ष के बाद सत्ता मिली तो मायावती को भी कांशीराम के दशकों के संघर्ष का फल मिला।
ये बात अखिलेश को समझनी होगी कि सरकार चलाने से ज्यादा मेहनत सत्ता पाने के लिए करनी पड़ती है। अखिलेश रणनीतिक चूक तो कर ही रहे हैं सड़कों पर अपनी हाजिरी भी नहीं लगा पा रहे हैं।
मायावती के व्यवहार से उनके कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा हुआ है, वो हतोत्साहित हैं, लेकिन उन्हे अपने नेता की सांत्वना नहीं मिल रही।
यूपी में ‘मोरल पुलिसिंग’ तो सख्ती से हो रही है लेकिन सरकार द्वारा दी जाने वाली सेवाएं मसलन कानून व्यवस्था, बिजली आपूर्ति, स्वास्थ्य सेवा बदहाल है। क्या विपक्ष को इसे मुद्दा नहीं बनाना चाहिए?
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने सीता स्यंवर के प्रसंग में लिखा है कि जब धनूष कोई नहीं तोड़ पाया तो राजा दशरथ कहते हैं कि ‘अब अनि कोउ माखै भट मानी, वीर विहीन मही मैं जानी’ इसका भवार्थ ये है कि क्या धरती वीरों से खाली हो गई है ?
बीते बुद्धवार को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर राज्यसभा में चर्चा का जवाब देते हुए पीएम मोदी ने भी तो विपक्ष को यही संदेश दिया कि ये आखिरी चुनाव नहीं है, निराश मत हो, उठो मेहनत करो, लड़ो और जीतो।
सफलता का फलसफा भी तो यही है।
(लेखक पत्रकार हैं )