युवा कवियत्री डॉ. उपासना श्रीवास्तव यूं तो फैशन उद्योग से जुड़ी हैं ,लेकिन उनकी कविताओं में आम ज़िंदगी के रंग भरे हुए हैं , हिन्दी साहित्य में बी.ए. करने के बाद उन्होंने एम बी ए किया और फिर इंटरनेशनल मार्केटिंग में PHd की डिग्री हासिल की. फिलहाल नोएडा में वे अपना उद्योग चलाते हुए साहित्य सृजन भी कर रही हैं।
पढिए डॉ. उपासना श्रीवास्तव की दो कविताएं
1.
मुझे अच्छी लगती हैं बिंदास लड़कियां
वो ऊंचे हील में इतराती लड़कियां
वो तेज रफ्तार से मोटरसाइकिल उड़ाती लडकियां
निगाहें अपनी तरफ देख मुस्कुराती लड़कियां
वो बैंकपैक के कर ऑफिस जाती लड़कियां
वो अपने सारे खर्च खुद ही उठती लड़कियां
खुद कमा कर दुनियां देखती ये लड़कियां
हां मुझे तो बस अच्छी लगती ऐसी लड़कियां
अपने ही धुन में गुनगुनाती लड़कियां
ज़िन्दगी के ताल से ताल मिलाती लड़कियां
अपने मज़बूत पंख खोल उड़ती लड़कियां
खुद की शर्तों पर ज़िन्दगी जीती लड़कियां
बेबाक , आज़ाद ख्याल की महक बिखेरती लड़कियां
कठिन राह को आसान बनाती लड़कियां
आंखों में विश्वास का काजल लगती ये लड़कियां
खुद से खुद की प्रतिस्पर्धा करती लड़कियां
वो काले बिखरे बाल संवारती लड़कियां
अपना जीवनसाथी खुद चुनती आज़ाद ख्याल लड़कियां
वो मां की साड़ी में खुद को समेटती लड़कियां
हां जीन्स टॉप में कॉन्फिडेंट लगती लड़कियां
मंज़िल को पाने को आतुर ये होशियार लड़कियां
ज़िन्दगी से कभी ना हार मानने वाला ऐटिट्यूड रखती ये लड़कियां
मुझे अच्छी लगती हैं बिंदास लड़कियां
वो ऊंचे हील में इतराती लड़कियां
2.
जो फिर कभी ना लौटा वो मेरा बचपन था
जो यादें कभी धूमिल ना हुई वो मेरा बचपन था
आंखें मूंद जो अधर पर मुस्कान भर दे वो मेरा बचपन था
जो मुझे से कभी ना बिछड़ा वो मेरा बचपन था
बंद मुठ्ठी से मेरे जो फिसलता रहा वो मेरा बचपन था
खाली हाथ देखा तो पाया ,जो बीत गया वो मेरा बचपन था
जो चिंतामुक्त जीवन था वो मेरा बचपन था
अलबेला,नटखट और शरारती था वो मेरा बचपन था
जब होता था विश्वास जादुई गुड़िया में वो मेरा बचपन था
जब चंदा अपना मामा लगता था वो बचपन मेरा था
जो निडर , निर्भीक, निर्विरोध था वो मेरा बचपन था
निश्छल प्रेम से जो सराबोर था वो मेरा बचपन था
कठिन जीवन के नींव जो आत्मविश्वास से सीचता रहा वो मेरा बचपन था
गिरकर उठना, उठकर चलना जो सीखता रहा वो बचपन था
चोट लगने पर मां का मुख देख जो मुस्कुरा ता था वह बचपन था
रोते को हंसाना जो सीखाता था वो बचपन था
नानी दादी की कहानियों में जो खुद को देखा करता था वो बचपन मेरा था
वो उंगलियों पर बार बार तारे गिनना वो मेरा बचपन था
खेतों के मेढ़ पर जो सरपट भागा करता था वो बचपन मेरा था
तितलियां जिसको लुभाया करती थीं वह बचपन मेरा था
बंद हथेली में जो जुगनू देखा करता था वो मेरा बचपन था
नंगे पांव जो भागा पतंग के पीछे वो मेरा बचपन था
चांद को मुठ्ठी में बंद करना जो सीखाता था वो बचपन था
जीत लूंगा मैं दुनिया को ये हिम्मत देता मेरा बचपन था
जो फिर कभी ना लौटा वो मेरा बचपन था
जो यादें आज भी जीवंत है वो मेरा बचपन था
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