संकट काल में संवेदनाएं झकझोरती है और कलमकार उसे अल्फ़ाज़ की शक्ल में परोस देता है । ये वक्त साहित्य रचता है और ऐसे वक्त के साहित्य को बचा कर रखना भी जरूरी है। जुबिली पोस्ट ऐसे रचनाकारों की रचनाएं आपको नियमित रूप से प्रस्तुत करता रहेगा ।
पेशे से पत्रकार प्रेम शंकर मिश्र जब कवि की भूमिका में होते हैं तो वो प्रेम “विद्रोही” हो जाते हैं । हालिया दिनों की त्रासदी पर प्रेम विद्रोही का कवि मन संवेदना को शब्दों में ढाल रहा है । उनकी ये तीन कविताएं इस बात का प्रतीक हैं।
पढिए प्रेम विद्रोही की कविताएं
1
जो हवाई जहाज से आये
हवा महल में रहे
जो आये बैठ रेल में
वे डिरेल रहे
जो चले पैदल पटरियों पर
वे खेत रहे।
आकाश से बरसाए गए
पानी और फूल।
जिससे, आंखों तक न पहुंच जाए
चिता की राख
और ,
जी उठे आँखों मे मरा हुआ पानी।
2
पाँव में छाले
सर पे बोझ
विरासत में मिले।
जो आवाज़ थे
कल हक की
जा, रियासत से मिले।
लहू बन बहे
आखों से वो ख्वाब
जो सियासत से मिले।
घिस के खुद को
चमकाए जो पत्थर
सफर में बस वही
हिफाज़त से मिले।
3
नियति की क्रूरता पर
मैं मुस्करा रही हूं।
निराशा की छाती पर
आस गीत गा रही हूँ।
उलाहना का समय नहीं
चुनौतियों का भय नहीं
गिनती हूँ दांत शेर के
आपदा भी अक्षय नहीं
रुआंसी है दुनिया सारी
मैं हंस-हंसा रही हूँ।
जिस पे अपना बस नहीं
उससे मैं विवश नहीं
देखो आंखों में मेरी
जो ढूंढ़ रहे वह यश यहीं।
पहाड़ सी दुश्वारियों को
मासूमियत से भगा रही हूं।
निराशा की छाती पर
आस गीत गा रही हूं।
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