कुमार अंशुमन
पेशे से पत्रकार कुमार अंशुमन का सहज संवेदनशील मन कोरोना संकट के दौर में अपने अंदर झांक रहा है । एक आम मध्यवर्गीय व्यक्ति की मनःस्थिति इस कविता में बखूबी व्यक्त की गई है । जुबिली पोस्ट के पाठकों के लिए प्रस्तुत है :-
एक सिगरेट सुलगा कर,
रात में अपनी बालकनी में खड़ा होता था।
हर कश में
रिवाइंड करता था अपनी ज़िंदगी को।
गर्व महसूस करता था अपनी उपलब्धियों पर
बहुत कुछ नही कुछ तो बन गया हूँ।
एक घरौंदा बनाया है अपने गांव से दूर।
सड़क पर दौड़ती गाड़ियां और खत्म होती सिगरेट।
आज फिर बालकनी में खड़ा हूँ।
ये घरौंदा एक पिंजड़ा लग रहा है।
रिवाइंड करने का मन नही करता
फ़ास्ट फारवर्ड करना चाहता हूँ।
देखना चाहता हूँ
आगे क्या होगा।
लंबा ठहराव है सड़क पर।
कभी कभी
खामोशी को तोड़ती
वो सायरन की आवाज़।
अजीब सिहरन होती है बदन में।
सुबह का अखबार और उसमें अपना नाम।
आंखों की उस चमक को ढूंढ रहा हूँ,
क्योंकि अब अखबार नही आता।
नाम में बहुत कुछ रखा है।
कितने नादान हैं वो जो निकल पड़े है
पैदल
अपने गांव की ओर।
दिल्ली बहुत दूर है गांव से
पर चल देंगे तो……शायद
गांव आज़ाद है, शहर में गश्त है।
वो जो हमने अपने नियम बनाये थे।
चाहा था समय को बांधना।
समय बंध गया है, आगे नही बढ़ता।
पर एक उदासी है।
ऐसा क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ, कौन बताएगा।
क्या बचेगा क्या खो जाएगा।
भगवान ! क्या इतना बुरा है इंसान।