सुरेंद्र दुबे
कल लालकिले के प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां अनेक घोषणाएं की उनमें उनके एक अगले कार्यक्रम जनसंख्या नियंत्रण का संदेश भी राष्ट्र को मिल गया। हालांकि, अभी उन्होंने इसकी कोई विस्तृत योजना नहीं बताई और न ही ये बताया कि सरकार कब से जनसंख्या नियंत्रण के कार्यक्रम की शुरूआत करेगी। पर जब मोदी को कुद करना होता है तो उसकी घोषणा इसी तरह से करते हैं। इसलिए यह मान लेने में कोई बुराई नहीं है कि जनसंख्या नियंत्रण भी अब मोदी सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल हो गया है।
अगर वह इसके लिए कोई वृहत कार्य योजना तैयार करते हैं तो देश के भविष्य के लिए इसके दूरगामी सकारात्मक परिणाम हो सकते हैं। परंतु इसके गंभीर खतरे भी हैं। चूंकि इसमें गंभीर खतरें भी हैं और नरेंद्र मोदी को खतरों से खेलने की आदत भी है इसलिए मेरा मानना है कि जब लालकिले की प्राचीर से उन्होंने इसका जिक्र किया है तो इसके लिए उनके मन में कोई योजना भी होगी।
अब ये बात बिल्कुल साफ है कि जिस गति से हमारी जनसंख्या बढ़ रही है उस गति से हमारे संसाधन नहीं बढ़ रहे हैं। इसलिए हमारी योजनाएं लगातार छोटी पड़ती जा रहीं हैं। कई बार तो ये ऊंट के मुंह में जीरे के समान ही रह जाती हैं। हर सरकार को पता रहता है कि लगातार जनसंख्या बढ़ने से इंफ्रास्ट्रक्चर, रोजगार, सड़क, रेलवे तथा जल संसाधन बौने पड़ते जा रहे हैं। पर सरकारें इस मसले पर प्रचार माध्यमों के जरिए जनता को शिक्षित करने से आगे बढ़ने से कतराती रहती हैं।
पिछले एक दशक में पढ़े-लिखे लोगों में परिवार को सीमित रखने की चेतना बढ़ी है। पर इसमें ज्यादा योगदान आज की आर्थिक स्थिति का है। जहां मां-बाप दोनों नौकरी करते हैं वे भी दो से अधिक बच्चे पैदा करने का संकट मोल नहीं लेना चाहते हैं। पर आज भी हमारे समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग है जो बच्चों को भगवान की देन समझता है और हमारे संसाधनों के ताने-बाने को छिन-भिन करता रहता है।
कोई भी राजनैतिक दल इस मसले को संजीदगी से नहीं उठाना चाहता है। इमरजेंसी के समय संजय गांधी ने जनसंख्या नियंत्रण का एक देशव्यापी अभियान चलाया था। बड़े-बड़े नेता हर सभा में जनसंख्या पर नियंत्रण करने को उपदेश देता था और सरकारी मशीनरी संजय गांधी के दबाव में जबरन नसबंदी के अभियान में जुटी हुई थी। कार्यक्रम का उद्देशय बहुत अच्छा था। परंतु कार्यान्वयन तानाशाही अंदाज में किया गया। परिणाम सबको मालूम है। नसबंदी कांग्रेस को ले डूबी।
मुझे आज से कम-से-कम 50 वर्ष पूर्व के दृश्य याद आते हैं वो टेलिविजन नहीं रेडियो का जमाना था पूरा परिवार रेडियो के कार्यक्रम एक साथ बैठकर सुनता था और जब बीच में एक विज्ञापन आ जाता था,‘ बच्चों में अंतर रखने के लिए लाल तिकोन.’ इस विज्ञापन को सुनकर युवतियां शर्मा जाती थी और मां-बाप बगले झांकने लगते थे। इस तरह हमारे देश में परिवार नियोजन के कार्यक्रम पदार्पण हुआ।
वर्षों यहीं स्थिति रही। पर आज स्थिति काफी बदल गई है। आज न युवा शर्माते हैं और न ही मां बाप नजरें चुराते हैं। इसलिए आज परिवार नियोजन काफी आसान है। जरूरत सिर्फ सरकार की राजनैतिक इच्छाशक्ति की है। कुछ कड़े कानून बनाने होंगे और कुछ इंसेंटिव देने होंगे और उन नेताओं पर लगाम लगानी होगी जो अधिक बच्चे पैदा करने का आहवाहन करके एक वर्ग को डराते हैं और अपनी जाहिलियत का परिचय देते हैं।
आइये देखते हैं कि जनसंख्या पर लगातार बढ़ते दबाव से भारत के सामने कौन सी समस्याएं भविष्य में और विकराल रूप धारण कर सकती हैं।
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक अभी दुनिया की जनसंख्या 760 करोड़ है, जो 2030 में बढ़कर 860 करोड़, 2050 में 980 करोड़ और वर्ष 2100 में 1 हज़ार 120 करोड़ हो जाएगी। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया की जनसंख्या में हर वर्ष 8 करोड़ 30 लाख नये लोग जुड़ जाते हैं।
चीन और भारत अभी दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले देश हैं। चीन की जनसंख्या 141 करोड़ और भारत की जनसंख्या 135 करोड़ से ज्यादा है। दुनिया की जनसंख्या में चीन की भागीदारी 19% की और भारत की करीब 18% की है।
United Nations के मुताबिक अगले 6 वर्षों में भारत की जनसंख्या चीन से आगे निकल जाएगी और अगले 10 वर्षों में चीन की जनसंख्या कम होनी शुरू होगी, जबकि भारत की जनसंख्या वर्ष 2061 तक लगातार बढ़ेगी और तब तक भारत की जनसंख्या 168 करोड़ हो जाएगी।
1950 में भारत की जनसंख्या 37 करोड़ थी, और अगले 50 वर्षों यानी सन 2000 में जनसंख्या 100 करोड़ के पार हो गई और इसके बाद सिर्फ 19 वर्षों में भारत की जनसंख्या में 35 करोड़ से ज्यादा की वृद्धि हुई है। दुनिया के शहरों पर वर्ष 2050 तक 250 करोड़ लोगों का बोझ बढ़ जाएगा, जिसमें से 90% एशिया और अफ्रीका के शहर होंगे।
ये भयावह आंकड़े हमें संदेश भी दे रहे हैं कि अगर देश को तेजी से चतुर्मुखी विकास की ओर ले जाना है तो जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम देश के एजेंडे पर सबसे ऊपर होना चाहिए। भावनात्मक मुद्दे अपनी जगह है पर वास्तविक मुद्दों को पहले हल किया जाना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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