अशोक माथुर
दुनिया का इतिहास बताता है कि शासन तंत्र मे जन भागीदारी और जनता के नियंत्रण के अभाव में आम आवाम को बड़े जुल्म सहने पड़ते है। हमारे ही देश का इतिहास बताता है कि कंपनी सरकार और मुगलों को हमारे राजा ही बुलाकर ला रहे थे और उनका खैर मकदम कर रहे थे क्योंकि तत्कालीन समाज यह मानता था कि राजा ईश्वर का पुत्र है और नागरिक समाज सवाल नहीं उठाता था और ना ही हाँ या ना के मामले में पड़ता था। गिनती के विदेशी आते थे और हमारी भारत माता को बेड़ियों में जकड़ लेते थे।
अंग्रेजों के शासन को उखाड़ने के लिए जब बगावते होने लगी तो भी उसमें हमारे ही लोग क्रांतिकारियों और आन्दोलनकारियों को मरवाने में लगे रहते थे। ऐसी विषम परिस्थिति में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बदली हुई परिस्थिति में आखिर हम आजाद हो ही गए। राजनीतिक, गुणधर्म और संस्कृति बेशक हम अंगे्रजों से लाए थे लेकिन उसमें कुछ लोकतंत्र भी था। हमें एक संविधान दिया गया और ये कहा गया कि जनता के लिए, जनता का, जनता द्वारा शासन की यह नयी पद्धति है।
बात तो ठीक थी, लेकिन अनुभव ने हमें बताया कि वोट डालना ही हमारा अधिकार है, बाकी सारा काम शासन स्वयं कर लेगा और कर भी रहा है। विकास अंग्रेज भी कर रहा था और 70 वर्षों से हमारी राजनैतिक व्यवस्था भी विकास कर रही है। अच्छी-अच्छी सड़कें, भवन और न जाने क्या-क्या बन रहे हैं, सबको अच्छा लगता है, लेकिन आज भी आम आवाम की भागीदारी और रजामन्दी का अभाव झलकता है।
यही तो वो कारण है कि जो लोग राष्ट्रीयता व स्वदेशी की बात कर रहे थे, कुर्सी पर बैठते ही वे एफडीआई लाते हैं, विदेशी विनियोग के लिए पूरी दुनिया में चक्कर लगाते हैं। ना उन्होंने गांधी का स्वदेशी और ग्राम राज अपनाया, ना ही उन्होंने बाबा रामदेव का स्वदेशी अपनाया। ना ही संघ (आरएसएस) की अवधारणाओं को हकीकत में उतरने दिया, सांस्कृतिक मूल्यों और राष्ट्रीयता जैसे मसले नारों में तो दिखे लेकिन अकेले ग्लोबलाईजेशन में राष्ट्र राज्य की अवधारणा को ही नकार दिया। ऐसा लगने लगा कि अब विश्व की सरकार अमेरिका चला रहा है। दुनिया का अर्थतंत्र आज परतंत्र बन गया।
हमारा किसान चाहे आत्महत्या करे शासन को हमेशा चिंता अपने आकाओं की रहती है। शासन चाहे किसी भी पार्टी का हो उसका राजधर्म तो एकसा ही रहता है। हमारी सीमा पर जब किसान का बेटा मरता है तो भाषणों में शहीद कहा जाता है, उसके शव पर माला डाली जाती है लेकिन वैधानिक तौर पर क्या शासन उन्हें शहीद का दर्जा देता है। बीएसफ, सीआरपीएफ और अन्य सुरक्षा पंक्तियों में पेंशन (मजदूरी), भत्ते आदि आज मुद्दे के रूप में सामने आ गए है और राष्ट्रीयता केवल सीमा पर मरने वाले जवान से क्यों आंकी जा रही है।
राष्ट्रीयता को कैसे नापें
अब तो संसद में जो फैसले होते हैं उन्हीं फैसलों और उन्हीं की कृपा से देशी-विदेशी कारपोरेट मेरे देश का खून पीते है। क्या राष्ट्रीयता का मसला हर जगह नहीं उठ सकता, जैसे मिलावट करने वाले मुनाफाखोर, लुट खसोट, जुआ-सट्टा, तस्करी और ना जाने किस-किस तरीके से जो लोग धनवान बनते है, उनकी राष्ट्रीयता को कैसे नापें? राष्ट्र राज्य की बात अब सतही लगने लगी है क्योंकि कारोबारियों को पूरी दुनिया चाहिए, अगर पाबन्दियां है तो मेहनतकशों पर। चाहे वो कम्प्यूटर पर काम करने वाला, कोट-पेन्ट पहनकर अंग्रेजी बोलने वाला हो या कुदाल फावड़ा लेकर निर्माण करने वाला हो, लोहा कूटने वाला या सोना गलाने वाला। जो भी पसीना बहाता है उन सबकी एकसी गत है।
निजीकरण, आधार, जीएसटी इत्यादि-इत्यादि अनेकों ऐसे मसले है जो नये-पुराने शासक पार्टियां एक मत से देश की गरीब जनता पर थोपते हैं। स्पेशल इकोनोमिक जोन (लैण्ड बैंक) जैसे मसलों पर भी शासक एक मत रहते है। आदिवासियों को खदेड़ना, कंपनियों को जमीन देना, पानी बेचना, प्राकृतिक संसाधनों का कारपोरेट के हित में उपयोग करना। ऐसा कौनसा काम है जिसमें चुनाव में जीतने या हारने के बाद हमारे राजनैतिक व प्रशासनिक तंत्र में कोई फेरबदल होता हो।
हम उन पर ये आरोप नहीं लगा रहे। वे अगर एक जानवर के लिए एक आदमी की हत्या कर देते हैं तो भी जायज है लेकिन वे मांस के कारोबार को फलता-फूलता देखना चाहते है। जो सड़क पर मरता है वो छोटे बाप का बेटा कोई गरीबदास ही होता है लेकिन उसकी पहचान उजागर होती है तो हम उस पर साईन बोर्ड लगाते है मुसलमान, हिन्दू इत्यादि-इत्यादि। ऐसा क्यों?
हम क्यों आपस में लड़ रहे है
देश के हर कोने में यह कहा जाता है कि अंग्रेज फूट डालो राज करो की नीति पर चलते थे, ठीक भी था, लाखों लोगों को काबू करने के लिए थोड़े से लोग उनको लड़ाते रहते थे और उनकी मेहनत से उत्पादन होता था वो लूट कर ले जाते थे। लेकिन अब तो हम अंग्रेजों के अधीन नहीं है फिर भी वो ही नीति है तो क्यों? हम क्यों आपस में लड़ रहे है और सारे लुटेरे कैसे एक है, इतनी सी बात अगर हमारे समझ में आ जाए तो निर्जीव लोकतंत्र की आत्मा सजीव हो जाएगी।
मासफोबिया
चुनावों का शोर बहुत जोरों पर है। मीडिया में भीड़ और रैलियों को दिखाकर सब अपना-अपना वर्चस्व बनाने में लगे है। क्या कभी ये सोचा गया है कि भीड़तंत्र व लोकतंत्र में कोई अंतर होना चाहिए। अंग्रेजी का एक शब्द है मासफोबिया। मनोविज्ञान में फोबिया का मेडिकल और वैज्ञानिक महत्व बताया गया है। ये भीड़ आती कहां से है और चुनाव के बाद जाती कहां है। कोई नहीं जानता। लेकिन यही भीड़ एक लोकतांत्रिक शक्ति बन जाए तो सवाल उठने चालू हो जाएंगे।
बेरोजगारी क्यों, खेती क्यों उजड़ रही है
राष्ट्रवादियों से पूछा जाएगा कि अब देश में विदेशी लूट क्यों, बेरोजगारी क्यों, खेती क्यों उजड़ रही है, प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय लोगों का हक होगा या कंपनियों का। परन्तु ये होगा कैसे? पिछले कुछ दशकों में लोकतंत्र में चुनाव में भाग लेने वाली राजनैतिक पार्टियों ने अपने-अपने संगठनों से पल्ला झाड़ लिया। कांग्रेस का राज होता है और इंटक आन्दोलन करती है। भाजपा का राज होता है और बीएमएस आन्दोलन करता है। ऐसा क्यों। कम से कम संगठनों में रहने वाले लोगों को इस पर विचार करना चाहिए। हमारे जन संगठन मर गए है। जो राजनैतिक संगठनों की आत्मा थी। जैसे एनएसयूआई, एआईएसएफ, एसएफआई, समाजवादी युवजन सभा, मजदूर संगठन, किसान संगठन आदि।
अब तो जो करोड़पति या नौकरशाह संसाधनों की ताकत से छाताधारी बन कर आता है वही नेता होता है। किसी भी लोकतांत्रिक संस्था में वास्तविक मजदूर किसान, नौजवान, महिलाऐं या वंचित वर्ग के लोग क्या दिखाई देते है उनका प्रतिशत ही क्या है। वे तो इन संस्थाओं के नजदीक भी नहीं जा सकते तो फिर लोकतंत्र की ताकत कैसे मजबूत हो? आप खूब वोट डालिए लेकिन ध्यान रखिए अगर सड़के खामोश हो गयी, मुट्ठियां तानकर हमारे गले से आवाज नहीं निकली तो शासन निरकुंश, लम्पट व आवारा होगा ही, फैसला आपको करना है।
(लेखक लोकमत के प्रधान संपादक हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)