प्रीति सिंह
पिछले काफी समय से देश में गाहे-बगाहे एक खास वर्ग से आवाज उठती रही है कि देश में नफरत की राजनीति हो रही है। लोगों को धमकाया जा रहा है। जो भी सत्ता से सवाल करता है, या तो उसे प्रताडि़त किया जाता है या झूठे और मनगढ़त आरोपों में गिरफ्तार कर लिया जाता है। ऐसे कई मुद्दों पर चिंता जतायी जाती रही है। चूंकि देश में चुनावी माहौल है और 11 अप्रैल को पहले चरण का मतदान होना है तो एक बार फिर ऐसी आवाजे उठने लगी हैं।
देश के जाने माने लेखक और फिल्म निर्देशक अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं और तो और अपील भी कर रहे हैं कि नफरत की राजनीति करने वालों के खिलाफ वोट करें। फिलहाल यहां सवाल उठता है कि ऐसे लोगों की अपील कितना कारगर होगी और उनकी आवाज कितनी दूरतलक जायेगी।
मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद देश में हुए कुछ घटनाओं के बाद लेखक, स्वतंत्र फिल्म निर्देशक लामबंद हो गए थे। इन लोगों ने मोदी सरकार की आलोचना की थी और भाजपा सरकार पर नफरत की राजनीति करने का आरोप लगाया था। एक बार फिल्म लेखक और फिल्म निर्देशक मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिए हैं।
नफरत के खिलाफ वोट करना पहला महत्वपूर्ण कदम
सोमवार को देश की विभिन्न भाषाओं के जाने-माने दो सौ से अधिक लेखकों ने सोमवार को वोटरों से आगामी लोकसभा चुनाव में नफरत की राजनीति के खिलाफ वोट करने की अपील की। भारतीय लेखकों के संगठन इंडियन राइटर्स फोरम की ओर से जारी इस अपील में लेखकों ने लोगों से एक समान और विविध भारत के लिए वोट करने की अपील की है।
लेखकों का कहना है, ‘हमें सभी के लिए रोजगार, शिक्षा, शोध, स्वास्थ्य और समान अवसरों की जरूरत है। हम अपनी विविधता को बचाना चाहते हैं और लोकतंत्र को फलने-फूलने देना चाहते हैं।’ इन लेखकों का कहना है कि नफरत के खिलाफ वोट करना पहला महत्वूर्ण कदम है।
इन लेखकों में अरुंधती रॉय, अमिताव घोष, गिरिश कर्नाड, बाम, टीएम कृष्णा, नयनतारा सहगल, टीएम कृष्णा,जीत थायिल, विवेक शानभाग, के सच्चिदानंदन और रोमिला थापर शामिल हैं। लेखकों ने अंंग्रेजी, हिंदी, मराठी, गुजराती, उर्दू, बंगला, मलयालम, तमिल, कन्न्ड़ और तेलुगू भाषाओं में यह अपील की। अपील पर हस्ताक्षर करने वाले 210 लेखकों ने कहा, ‘आगामी लोकसभा चुनाव में देश चौराहे पर खड़ा है। हमारा संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार, अपने हिसाब से भोजन करने की स्वतंत्रता, प्रार्थना करने की स्वतंत्रता, जीवन जीने की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति जताने की आजादी देता है लेकिन बीते कुछ वर्षों में हमने देखा है कि नागरिकों को अपने समुदाय, जाति, लिंग या जिस क्षेत्र से वे आते हैं, उस वजह से उनके साथ मारपीट या भेदभाव किया जाता है या उनकी हत्या कर दी जाती है।’
2015 में पुरस्कार लौटाकर लेखकों ने जताया था विरोध
30 अगस्त, 2015 को कर्नाटक के कन्नड़ लेखक एम.एम. कलबुर्गी की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। इसी समय संयोग से हिंसा की एक-दो और घटनाएं घटीं। इसके विरोध में एक के बाद एक लगभग 40 लेखकों ने अपने साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटा दिए तथा सात-आठ ने अकादेमी की समितियों की सदस्यता से इस्तीफे दे दिए। यह प्रकरण लगभग तीन-चार महीने चलता रहा।
देश-भर के अखबार, रेडियो और टी.वी. चैनल इसे प्रमुखता से छापते और प्रसारित करते रहे। फेसबुक और सोशल मीडिया पर निरंतर मत-मतांतर लिखे और पढ़े जाते रहे। इतना ही नहीं, संभवत: पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों के संपर्क से ‘न्यूयार्क टाइम्स’ (अमेरिका), ‘टेलीग्राफ (लंदन) और ‘डान’ (कराची) ने तथा लेखकों की अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘पेन’ ने भी इस मुद्दे को उठाया था।
हांलाकि बाद में इन लेखकों पर राजनीति करने का आरोप लगा था। लेखक दो फाड़ में बंट गए थे। साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी ने ने कहा था कि पुरस्कार वापसी अभियान राजनीति से प्रेरित था ताकि मोदी सरकार बदनाम हो। लेखकों ने कुछ महीने तक विरोध किया लेकिन बाद में शांत हो गए। हालांकि वह सार्वजनिक मंच से मोदी सरकार पर ऊंगली उठाते रहे हैं।
सौ से अधिक फिल्म निर्देशक भी मोदी सरकार के खिलाफ वोट देने की कर चुके हैं अपील
देश के सौ से अधिक फिल्म निर्देशकों ने 29 मार्च को एक बयान जारी कर अपील कर मोदी सरकार कि खिलाफ वोट देने की अपील की थी। इन सभी लोगों ने बीजेपी सरकार पर नफरत की राजनीति करने का आरोप लगाया था। फिल्मकारों का कहना था कि मॉब लिंचिंग और गोरक्षा के नाम पर देश को सांप्रदायिकता के आधार पर बांटा जा रहा है। कोई भी व्यक्ति या संस्था सरकार के प्रति थोड़ी-सी भी असहमति जताते हैं तो उन्हें राष्ट्र विरोधी या देशद्रोही करार दिया जाता है। इसलिए बीजेपी के खिलाफ वोट दें।