जुबिली न्यूज़ ब्यूरो
लखनऊ. कोरोना महामारी ने रिश्तों के बीच डर की ऐसी दरार डाल दी जिसे पाटने का फिलहाल कोई उपाय भी नज़र नहीं आता. कोरोना के साथ जूझता हुआ इंसान घर वापस लौट आया तो कोई बात नहीं लेकिन अगर वो न लौट पाया बहुत से रिश्तेदार उसके आख़री सफ़र पर भी उसके साथ नहीं रहे. माँ-बाप की अर्थी को कंधा देने के लिए बेटे नहीं निकले. पति की आख़री बार शक्ल देखने को पत्नी नहीं आई.
इतने तक होता तो शायद सब्र हो जाता लेकिन हद तो यह है कि कोरोना से मौत के बाद आग में जलकर खत्म हो गए शरीर की हड्डियों को प्रवाहित करने के लिए श्मशान से उसे लेने भी रिश्तेदार नहीं पहुँच रहे हैं. चिता ठंडी होने के बाद श्मशान पर काम करने वालों ने मरने वाले की अस्थियाँ समेटकर पालीथिन में बांधकर रख दी हैं मगर देश के तमाम श्मशानों में नेमस्लिप लगी अस्थियाँ अपने परिजनों का इंतज़ार कर रही हैं. अस्थियाँ जमा कर सम्मान से रख देने वालों को भी भरोसा है कि किसी दिन कोई आएगा और उन अस्थियों को ससम्मान नदियों में समाहित कर देगा.
परिजनों का इंतज़ार करती अस्थियाँ किसी एक श्मशान में नहीं बल्कि देश के अधिकाँश श्मशानों में यही हाल है. कई श्मशानों में लम्बे समय से रखी अस्थियों को कुछ समाजसेवियों ने नदियों में प्रवाहित कर दिया लेकिन बहुत सी जगहों पर अभी भी बड़ी संख्या में अस्थियाँ अपने परिजनों की प्रतीक्षा कर रही हैं.
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ज़िन्दगी में जो आदमी अपने परिवार के लिए रात-दिन एक किये रहा. जिसके लिए रिश्तों की बड़ी अहमियत थी. जो अपने माँ-बाप, पत्नी और बच्चो के लिए सहारे की तरह से था उसकी अस्थियाँ शमशान पर इस तरह से लावारिस पड़ी हैं जैसे कि उसका कोई कभी था ही नहीं. जिस शरीर को आग ने पूरी तरह से जला दिया उसकी अस्थियों को लेकर भी घर वालों में यह संदेह बना हुआ है कि कहीं उन्हें प्रवाहित करने से कोरोना न हो जाए.