सुरेन्द्र दुबे
आज पूरी रात राजधानी लखनऊ में झमाझम बारिश हुई। ये बात अलग है कि सावन बीतने के बाद भादो में जमकर पानी बरसा। इस जोरदार बारिश की आवाज झइयम-झइयम करके सुनाई दे रही थी। इस आवाज को सुनकर बचपन के एक बाजा झइयम-झइयम की याद ताजा हो गई। ये बाजा भी हम लोगों के बचपन का सदाबहार बैंड था। इसमें दो-तीन कुड़मुडिय़ा होती थी, जिसे आप समझने के लिए डुग्गी समझ सकते हैं। एक दो लोग झांझ बजाने वाले होते थे और एक ड्रम होता था, जो अंतिम स्वर गुंजाता था। इस बैंड की कोई सरगम नहीं थी। न कोई सा रे गा मा…था और न ही पाश्चात्य संगीत का डो रे मे सा…।
चाहे शादी-व्याह हो और चाहे घर में बच्चे का मुंडन। चाहे माताएं-बहनें की किसी कन्या को देवी पुजाने ले जा रही हो या फिर कोई बारात आ रही हो। बस यही एक बैंड था- कुड़मुड़-मुड़मुड़, झइयम-झइयम। और हर मौके के लिए यह बाजा फिट था। कोई दिक्कत नहीं। नाचना हो तो नाच लीजिए। किसी प्रकार के स्टेपिंग का कोई संकट नहीं। कोई धुन नहीं मिलानी पड़ेगी। बस कुड़मुड़-मुड़मुड़, झइयम-झइयम की आवाज में वातावरण संगीतमय हो जाता था।
आज हमारा देश भी सारे सुर और ताल को छोड़कर कुड़मुड़-मुड़मुड़, झइयम-झइयम कर रहा है। किसी को नहीं मालूम देश कहां जा रहा है। आर्थिक मंदी है तो कोई बात नहीं, लाखों युवक बेरोजगार हो गए हैं तो क्या फर्क पड़ता है। अनुच्छेद 370 की शहनाई चारों ओर गूंज रही है और जनता प्रसन्न होकर कुड़मुड़-मुड़मुड़, झइयम-झइयम कर रही है।
ये बाजा बड़ा जादुई है। इसलिए किसी भी मौके पर आप इसे बजा सकते हैं। अभी हाल ही में तीन तलाक के विरुद्ध कानून बना, जनता रोजी-रोटी और समाज में व्याप्त गुंडागर्दी भूल गई और लोग कुड़मुड़-मुड़मुड़, झइयम-झइयम करके झूमने लगे। एक दृश्य खत्म होता है और दूसरा दृश्य उपस्थित होने के पहले ही झइयम-झइयम बाजा बजने लगता है। इसका कोई निर्धारित स्वर नहीं है। इसलिए कोई आपत्ति की गुंजाइश भी नहीं है। अगर कोई आपत्ति करता है तो लोग कुड़मुड़-मुड़मुड़, झइयम-झइयम करने लगते हैं॥
आपको याद होगा कि लोकसभा चुनाव के समय पुलवामा कांड के जवाब में बालाकोट का बैंड बजा। जनता प्रसन्न हो गई। लोकतंत्र में जनता का प्रसन्न होना ही लोकशाही है। जिन लोगों ने इसका विरोध किया खामखां देशविरोधी कहलाए। होशियार लोगों ने ये जोखिम नहीं उठाया। सबने एक स्वर से कुड़मुड़-मुड़मुड़, झइयम-झइयम करके अपनी राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया।
बेरोजगारी के आंकड़ें, सड़कों पर हो रही मॉब लिंचिंग, पानी के अभाव में सूखते खेत और भूख के लिए बिलखते लोग, सबकुछ कोहरे में गुम हो गया। झमाझम पानी बरसा और जनता कुड़मुड़-मुड़मुड़, झइयम-झइयम की धुन पर नाच उठी। ऐसा मजेदार है यह बाजा।
नया परिदृश्य सामने आया। एनएसएसओ के आंकड़ें सरकार ने स्वयं जारी कर दिए। चुनाव में नहीं माना था तो कोई बात नहीं। सच जब भी स्वीकार किया जाए सच ही रहेगा। लोगों को पता चल गया कि हम बेरोजगारी के मामले में पैतालिस साल में सबसे निचले पायदान पर हैं। सरकार और जनता दोनों निहाल हो गए। सरकार ने कहा-लो सच-सच बात बता तो दी। जनता को लगा सच सामने तो आया, अब समस्या हल नहीं हुई तो इसमें सरकार क्या कर सकती है। पर सरकार काम करने वाली तो है।
कुछ लोग इस झइयम-झइयम की आवाज के बीच सा रे गा मा…का सुर अलापने की कोशिश करते हैं। कहते हैं सरकार साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर रही है। एक वर्ग विशेष को डराया जा रहा है। या सीधे-सीधे कहें तो मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने का प्रयास किया जा रहा है।
हिंदू भले ही इस कृत्य से प्रथम दर्जें के नागरिक न बनते हों पर मन ही मन तुलनात्मक अध्ययन कर एक मनोवैज्ञानिक आनंद तो मिलता ही है कि चलो कोई दोयम दर्जे का तो है। इस सूत्र ने पूरे समाज को अपने आगोश में जकड़ लिया है जो गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। पर इसकी जरूरत क्या है। यह सोचकर लोग कुड़मुड़-मुड़मुड़, झइयम-झइयम करने लग जाते हैं।
दो शब्द इस समय वातावरण में बड़ी तेजी से तैर रहे हैं। एक है राष्ट्रवाद और दूसरा है आतंकवाद। जब तक आतंकवाद नहीं होगा तब तक राष्ट्रवाद की चर्चा क्यों होगी। अब पुलवामा कांड नहीं होता तो बालाकोट नहीं होता। बालाकोट नहीं होता तो राष्ट्रवाद की तुरही कैसे बजती। अब ये तुरही न बजती तो वोटों की बरसा कैसे होती। इसे कहते हैं कुड़मुड़-कुड़मुड, झइयम-झइयम।
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