डा. रवीन्द्र अरजरिया
पश्चिम बंगाल के कोलकता स्थित नीलरत्न सरकार मेडिकल कालेज में विगत 10 जून को मरीज की मृत्यु के बाद हुए विवाद ने अहम के युद्ध की शक्ल ले ली है। मृतक के परिजनों के द्वारा डॉक्टरों पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए गालीगलौज की थी जिस पर डॉक्टरों ने मृत्यु प्रमाण पत्र देने से मना कर दिया था।
उच्चस्तरीय मध्यस्थता के बाद डॉक्टरों ने पीडितजनों से माफी मांगने की शर्त पर प्रमाण पत्र देने की बात कही परन्तु पीड़ितजन, डॉक्टरों की मनमानियों, लापरवाही और आक्रामकता के विरुद्ध माफी मांगने के लिए तैयार नहीं हुए। परिणामस्वरूप फेडरेशन आफ रेजीडेन्ट डाक्टर्स एसोसिएशन के बैनर तले हड़ताल आयोजित की गई।
यह हड़ताल बंगाल से निकलकर अब देश की राजधानी तक पहुंच गई जहां 10 हजार से अधिक डॉक्टरों ने हड़ताल करने की घोषणा कर दी। हड़ताल को हथियार बनाकर अहम की संतुष्टि के लिए राजनीति करने वाले क्या वास्तव में राष्ट्रहित में कार्य कर रहे हैं। उनकी हडताल से क्या आम आवाम प्रताडित नहीं होता।
क्या यह आतंकवाद की तरह बल के सामने अनुशासन को झुकाने का प्रयास नहीं है। कलुषित मानसिकता का प्रतीक है कर्तव्यों को तिलांजलि देकर अधिकारों की दुहाई देना। यह मुद्दा केवल चिकित्सकों तक ही सीमित नहीं है। हर जगह इस तरह की घटनायें आये दिन देखने को मिलतीं है।
कभी संविदाकर्मियों की हडताल नियमितीकरण को लेकर तो कहीं वेतनबृद्धि के लिए। कहीं समान कार्य-समान वेतन की मांग तो कहीं मानवीय अधिकारों के हनन को मुद्दा बनाकर। समानहितों का संगठित स्वरूप सामने आते ही उसे अपने बल का भान हो जाता है, और फिर शुरू हो जाती है मनमानी कार्यशैली, दवाव की राजनीति और स्वार्थसिद्धि के प्रयास।
इस तरह के प्रयासों में लगभग सभी सफलता का परचन फहराकर अन्य लोगों के लिए प्रेरणापुंज का काम करते हैं। विचार चल ही रहा था कि फोन की घंटी ने व्यवधान उत्पन्न कर दिया। दूसरी ओर से अन्तर्राष्ट्रीयस्तर के जानेमाने चिकित्सक डा. केतन चतुर्वेदी का अपनत्व भरा स्वर सुनाई दिया। मन प्रसन्न हो गया।
कुशलक्षेम पूछने-बताने के बाद हमने उनसे डॉक्टरों की हडताल का औचित्य जानने का प्रयास किया। हड़ताल की परंपरा पर देश के सर्वोच्च न्यायालय की विवेचना का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि संवैधानिक अनुशासन की परिधि से बाहर एक मानवीयता का अनुशासन भी है जिसके तहत आचरण करने से संतुष्टि, शांति और आनन्द का अनुभव होता है।
प्रत्येक क्षेत्र में अपवाद होते हैं जो अहम के शिखर पर सुख की तलाश करते है। पश्चिम बंगाल में पहले डॉक्टरों के साथ गाली गलौज और फिर डॉक्टरों द्वारा प्रमाण पत्र न देने स्थिति सामने आई। मृतक के परिजनों द्वारा डाक्टरों पर हमला और फिर हडताल की घोषणा।
यह सब सुखद नहीं है। जीवन और मृत्यु की परिभाषाओं को बदला नहीं जा सकता है। केवल व्याख्या ही की जा सकती है। ऐसा नहीं हो सकता कि सभी डॉक्टरों ने उपेक्षा वरती हो। यदि ऐसा हुआ था तो मृतकों के परिजनों को संवैधानिक दायरे में रहकर शिकायत करना चाहिये थी, विभागीय अधिकारियों से लेकर न्यायालयीन प्रक्रिया का सहारा लिया जाना चाहिये था। वहीं, डॉक्टरों को भी संयम का परिचय देते हुए गालीगलौज से लेकर मारपीट करने वालों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कराना चाहिये थी न कि मृत्य प्रमाण पत्र न देने का तानाशाही पूर्ण निर्णय लेने चाहिए था।
देश की राजधानी सहित विभिन्न स्थानों पर हो रही हड़ताल का प्रभाव उन मरीजों पर पड़ेगा जो पीड़ा की मुक्ति के लिए चिकित्सक को भगवान मानकर मंदिर की श्रद्धा से अस्पतालों तक पहुंचते हैं। उनके व्यवहारिक चिंतन ने हमारे मन में चल रहे विचारों को बल प्रदान किया। हमने उनसे हड़ताल और आतंकवाद का तुलनात्मक अध्ययन जानना चाहा तो उनकी खिलखिलाती हंसी इयरफोन पर गूंजी। हमारी नारदीय भूमिका को रेखांकित करते हुए उन्होंने हड़तालियों की मानसिकता के विस्फोटकस्वरूप को ही आतंकवाद की विध्वंसात्मक परिणति के रूप में विश्लेषित किया। चर्चा चल ही रही थी कि तभी हमारे फोन पर कालवेटिंग में आफिस का संकेत आने लगा। हड़ताल की पीछे की मनोभूमि का चिकित्सीय विश्लेषण हमें काफी हद तक प्राप्त हो चुका था। सो इस विषय पर फिर कभी विस्तार से चर्चा करने के आश्वासन के साथ हमने उनसे विदा ली।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है यह लेख उनका निजी विचार है)