कृष्ण मोहन झा
केंद्र सरकार द्वारा गत वर्ष बनाए गए कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग पर अड़े किसानों के आंदोलन को समाप्त कराने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों को अपर्याप्त मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को जो फटकार लगाई है उसके लिए वह आंदोलनकारी किसानों पर कोई दोषारोपण करने की स्थिति में नहीं है।
इसमें दो राय नहीं हो सकती कि किसान संगठनों के नेताओं के साथ आठ दौर की बातचीत के बाद भी मामला सुलझने के अभी तक तक कोई संकेत नहीं मिले हैं और अब यह आम धारणा बनती जा रही है कि सरकार आंदोलनकारी किसानों के साथ बातचीत को इतना लंबा खींचना चाहती है कि वे थक-हार कर खुद ही दिल्ली से वापस चले जाएं जिससे कि नए कृषि कानूनों पर अमल का मार्ग प्रशस्त हो सके।
इसीलिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से यह अनुरोध किया था कि किसानों के साथ बातचीत जारी रहने तक इस मामले की सुनवाई न करे। परंतु सरकार की उस मंशा को शायद सुप्रीम कोर्ट ने भी भांप लिया। इसीलिए सुनवाई के दौरान उसने बेनतीजा वार्ताओं को लेकर सरकार की मंशा पर भी सवाल उठाए।
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सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के दौरान सरकार के विरुद्ध जो तीखी टिप्पणियां की हैं उससे यह उत्सुकता बढ़ गई है कि सरकार अब डेढ़ माह से जारी किसान आंदोलन को समाप्त कराने के लिए ऐसे कौन से ठोस कदम उठाने की पहल करेगी जिससे कि आंदोलनकारी किसान संतुष्ट होकर दिल्ली से वापस जाने के लिए तैयार हो जाएं। सरकार के लिए यह काम आसान नहीं है।
दरअसल सरकार ने नए कृषि कानून बनाने के लिए जो इच्छा शक्ति दिखाई थी वैसी ही इच्छा शक्ति उसे अब आंदोलन कारी किसानों के गिले शिकवे दूर करने के लिए भी दिखानी होगी। आठ दौर की बातचीत के बाद भी समस्या का कोई संतोषजनक हल निकालने मेेंं सरकार की असफलता पर सुप्रीम कोर्ट ने उसे जिस तरह आडे हाथों लिया है उसने आंदोलनकारी किसानों के हौसलों को न केवल और बुलंद कर दिया है बल्कि उनके अंदर यह उम्मीद भी जगा दी है कि उनकी यह लड़ाई बेकार नहीं जाएगी।
सरकार के सामने समस्या का कोई ऐसा हल निकालने की चुनौती है जिससे कि आंदोलनकारी किसान भी संतुष्ट हो सकें और उसकी प्रतिष्ठा भी बनी रहे। नए कृषि कानून लागू करने के लिए कोई बीच का रास्ता तो उसे निकालना ही होगा। उसे शायद अब यह भी भान हो गया होगा कि नए कृषि कानूनों को अंतिम रूप देने से पहले अगर उसनेे सभी किसान संगठनों को विश्वास में ले लिया होता तो सुप्रीम कोर्ट में आज उसे इस असमंजस की स्थिति का सामना। करने के लिए विवश नहीं होना पड़ता।
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सरकार अब विपक्षी दलों पर यह आरोप लगाने की स्थिति में भी नहीं रह गई है कि अपने राजनीतिक हित साधने की मंशा से ही वे किसानों को आंदोलन के लिए भड़का रहे हैं। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले भी इस मामले में सुनवाई करते हुए सरकार से पूछा था कि क्या नए कृषि कानूनों पर अमल कुछ समय के लिए टाला नहीं जा सकता।
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अगर सरकार ने कोर्ट की सलाह उसी समय स्वीकार कर ली होती तो वह कोर्ट की इस तल्ख टिप्पणी से बच सकती थी कि सरकार कृषि कानूनों पर रोक लगाए नहीं तो हम लगा देंगे परन्तु सरकार अपनी जिद पर अड़ी रही। सरकार किसान संगठनों के प्रतिनिधियों से बातचीत के कई दौर चलाकर केवल यह साबित करने में लगी रही कि उसे आंदोलन कारी किसानों से पूरी हमदर्दी है और वह उनकी मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार कर रही है लेकिन जिस तरह सरकार किसानों के साथ बातचीत के लिए तारीख पर तारीख देने की नीति पर चलती नजर आ रही थी उससे आंदोलन कारी किसानों का धैर्य टूटने का खतरा भी पैदा होने लगा था।
ऐसी स्थिति में आगे चलकर कोई अप्रिय घटना घटित होने की आशंका व्यक्त की जाने लगी थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी कल सुनवाई के दौरान यह आशंका व्यक्त करते हुए सरकार को सचेत किया है कि ‘शांति भंग होने से कुछ भी ग़लत हुआ तो हम सब इसके लिए जिम्मेदार होंगे। हम नहीं चाहते कि खून खराबे का कलंक हम पर लगे।’
सवाल यह उठता है कि जिस खतरे को सुप्रीम कोर्ट ने भांप लिया उसकी अनदेखी सरकार इतने दिनों तक क्यों करती रही। ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बिना इस समस्या का समाधान होने की संभावनाओं पर विराम लग चुका था सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से सरकार और आंदोलन रत किसानों के बीच सहमति बनने और इस विवाद की सुखद परिणिति होने की संभावनाएं बलवती हो उठी हैं। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि नए कृषि कानूनों को लेकर किसानों के मन में कोई शंका है तो उसे दूर करना सरकार की जिम्मेदारी है।
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सरकार केवल विपक्ष पर यह आरोप लगाकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती कि वह नए कृषि कानूनों के बारे में किसानों को भ्रमित कर रहा है। आखिर क्या वजह है कि केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह, रेल मंत्री पीयूष गोयल जैसे वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री भी किसानों को आठ बार की बातचीत के बाद आंदोलन कारी किसानों को यह समझाने में सफल नहीं हो सके कि नए कृषि कानून केवल उनकी भलाई के लिए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई के दौरान सख्त लहजे में यह कहा है कि सरकार नए कानूनों के फायदे न गिनाए। उन पर तत्काल अमल की जिद छोड़ कर किसान संगठनों से बातचीत के जरिए समस्या के समाधान की राह निकाले। सरकार अगर वास्तव में समस्या का ऐसा कोई हल निकालने की इच्छुक है तो उसे बिना किसी पूर्वाग्रह के नई पहल की शुरुआत करनी चाहिए ताकि किसान भी नए कानूनों के बारे में कोई संदेह की गुंजाइश न रहे।
यह सही है कि तीनों क़ृषि कानूनों को वापस लेना संभव नहीं है परंतु उससे यह अपेक्षा तो की जा सकती है कि वह किसान संगठनों के सुझावों पर गंभीरता से विचार कर इन कानूनों में आवश्यक संशोधन करने की विशाल ह्रदयता प्रदर्शित करेगी।
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