जयनारायण प्रसाद
मेरी पत्रकारिता के युवा दिनों के साथी परबंत सिंह मैहरी अब इस दुनिया में नहीं है। उनके निधन की खबर मुझे देर से मिली। मैं उन्हें तब से जानता था, जब वे पगड़ी बांधते थे। हिंदी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में हमने एकसाथ लेखन किया। तब मैं कुमार भारत हुआ करता था और इसी नाम से जमकर लेखन करता था।
पत्रकारिता में मैहरी से मैंने कितना-कुछ सीखा, बता नहीं सकता! गजब की उसकी हिंदी थीं। अंग्रेजी भी उसी तरह। हिंदुस्तानी जुबान भी पानी की तरह। अनुवाद करना कोई सीखें, तो परबंत सिंह मैहरी से। बांग्ला से भी और अंग्रेजी से भी। आदर्श और प्रांजल हिंदी क्या होती है, यह परबंत सिंह मैहरी से आसानी से सीखा जा सकता था। निर्मल और पानी की तरह। कह सकते हैं शब्दों का जादूगर था परबंत सिंह मैहरी।
उसकी लिखीं तीन-चार किताबें भी आ चुकी हैं। उसके एक उपन्यास पर किसी ने फिल्म बनाना भी शुरू किया है। यह परबंत सिंह मैहरी ही हैं, जिन्होंने कोलकाता के सिख समाज के इतिहास के बारे में विस्तार से पहली बार लिखा और यह जनसत्ता, कोलकाता में छपा भी। यह तथ्य कोलकाता के बुजुर्ग और वरिष्ठ पत्रकार बच्चन सिंह सरल के पास है। वे कहते हैं कि मैहरी ने इसी कोलकाता में खूब संघर्ष किया और पूरी जिंदगी अपने दम पर काटी।
बातचीत के दौरान परबंत सिंह मैहरी बीच-बीच में अपने रचनात्मक लेखन के बारे में थोड़ा-बहुत बताता रहता भी था। भारतीय सिनेमा पर भी उसकी गहरी पकड़ थीं। अभी हाल में एमएस सथ्यू की मशहूर फिल्म ‘गर्म हवा’ पर मैंने कहीं लिखा, तो इस फिल्म का जिक्र होते ही वह विस्तार से बताने लगते! उम्र में परबंत सिंह मैहरी मुझसे बड़े थे, पर ‘आप’ से ‘तुम’ में आने और एक-दूसरे को जानने और खुलने में देर नहीं लगी ऐसे थे परबंत सिंह मैहरी।
खड़गपुर से कोलकाता अपनी किस्मत आजमाने आए इस सिख युवक ने संघर्ष भी कम नहीं किया, लेकिन परबंत सिंह मैहरी की जीवटता अद्भुत और अनूठी थीं। हार मानना जैसे उसने सीखा ही नहीं था। जब कोलकाता के जान बाजार इलाके में हिंदुस्तान के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की परपौत्रवधु सुल्ताना बेगम के शौहर का इंतकाल हुआ, तब हम दोनों साथ-साथ रिपोर्टिंग करने गए थे। यह टिप्पणी लिखते वक्त वह दौर और वहां का मंजर आंखों के सामने घूमने लगता है।
जहां तक याद आता है कोलकाता के ग्रांट लेन में हिंदी दैनिक रूपलेखा के दफ्तर में पत्रकार कृष्ण कुमार शाह ने परबंत सिंह मैहरी से पहली दफा परिचय करवाया था। वह शायद 1977-78 का दौर था। अब तो यह हिंदी अखबार भी बंद हो चुका है।
फिर, वरिष्ठ पत्रकार संतन कुमार पांडे, कृष्ण कुमार शाह, एएल प्रजापति, नूर मोहम्मद नूर, रावेल पुष्प और न जाने कितनों से परबंत सिंह मैहरी की घनिष्ठता होती चली गई। हम मिलने-जुलने वाले चंद अखबारनवीसों और लेखकों-कवियों का एक कारवां बन गया था। वो दौर आज की तरह संकीर्ण और संकरा नहीं था। बिल्कुल भी नहीं। लोग एक-दूसरे की मदद को खुलकर उतावले रहते थे। हकीकत यह है कि हम सब अपनी-अपनी मंजिल की तलाश में जुटे थे।
महान संगीतज्ञ बाबा अल्लाउद्दीन खां की नगरी मैहर (मध्यप्रदेश) में कभी मैं भी रहा था। इस कारण मैहरी से मेरी गहरी निकटता हो गई थी। मैहरी का बचपन मैहर में ही बीता था। फिर, वे खड़गपुर आ गए और उसके बाद कोलकाता। परबंत सिंह मैहरी के अचानक चले जाने का दुःख साल रहा है। हफ्ते भर पहले भी फोन पर बातचीत हुई थीं। जब भी बात होती, बेहद प्यार से अपने हावड़ा के घर पर आने को कहता।
परबंत सिंह मैहरी से मिले अरसा बीत गया था। पर, मोबाइल पर अक्सर बातचीत होती रहती थी। जनसत्ता, कोलकाता से रिटायर होने के बाद मेरे पास वक्त ही वक्त था। उससे अक्सर कहता- तुम्हारे घर हावड़ा अगले रविवार को आऊंगा। पर, जाना नहीं हुआ। अफसोस शायद मिलना नसीब में लिखा नहीं था, जिसके साथ एक जमाने में हर दिन मिलना होता था, अंतिम समय में वह अकेला चला गया-बिना मिलें। जिंदगी शायद इसी का नाम है।
(लेखक जनसत्ता से अवकाश प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार हैं)