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पंडित नेहरू और सरदार पटेल : आधुनिक अखण्ड भारत के दो अनमोल रत्न

शशांक पटेल

भारत देश उस बहुमंजिला इमारत के समान है जिसके स्तंभ और आधार पटेल, नेहरु, गाँधी समेत कई अन्य लोग हैं इसीलिए इनमें से किसी एक को औरों से अधिक महत्व का नहीं बताया जा सकता।

रियासती विभाग के मुखिया होने के नाते आज़ादी के समय सभी राजे रजवाड़ों और रियासतों को एक सूत्र में पिरोकर अखंड भारत का निर्माण करने में सरदार की भूमिका अहम थी।

इसके साथ ही पण्डित नेहरू ने भी कई कार्यों के माध्यम से अपने आपको अत्यंत लोकप्रिय और सबसे मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित किया।

लेकिन एक समय में स्वतंत्र भारत की शान रहे दोनों नेताओं को आज आमने-सामने खड़ा कर दिया जाता है, दोनों की तुलना की जाती है और दोनों में से किसी एक को दूसरे से बेहतर दिखाने की कोशिश की जाती है। वर्तमान की राजनीति में दोनों को आमने सामने खड़ा करने के मुख्यता दो बड़े कारण हैं-

कांग्रेस अध्यक्ष पद पर नेहरू और पटेल का चुनाव 

1946 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में 15 मे से 12 प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों ने पटेल का समर्थन किया था, तब तक यह बात तय हो चुकी थी कि नया कांग्रेस अध्यक्ष ही स्वातंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री बनेगा।

गांधी जी नेहरू को नया कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का मन बना चुके थे और आज़ादी के समय भारत का नेतृत्व बिखरा न दिखे इसीलिए सरदार पटेल ने अपना नाम वापिस ले लिया था।

गांधी जी को भरोसा था की अपनी अंग्रेजियत के कारण सत्ता हस्तांतरण को नेहरू पटेल से बेहतर संभाल सकते हैं। एक मौके पर गांधी ने कहा था कि जिस समय हुकूमत अंग्रेजों से ली जा रही हो, उस समय कोई अन्य आदमी नेहरू की जगह नहीं ले सकता।

वे विदेश से पढ़े होने के कारण अंग्रेजों को बेहतर ढंग से संभाल सकते थे। पार्टी के भीतर पटेल की पकड़ मजबूत थी तो लोगों के बीच नेहरू की लोकप्रियता अधिक थी।बाहर की दुनिया में नेहरू का नाम आज़ादी की लड़ाई में दूसरे नंबर पर था। न केवल यूरोपीय लोग बल्कि अमेरिकी लोग भी नेहरू को गांधी जी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते थे, जबकि पटेल के बारे में ऐसा बिल्कुल नहीं था। लंदन में बुद्धजीवियों के बीच नेहरू की चर्चा होती थी। तमाम वाइसराय समेत कई अधिकारियों से नेहरू की निजी बात चीत होती थी।

नेहरू और पटेल में और भी कई अंतर थे जो कि राजनैतिक तौर पर और भी मायने रखते थे जैसे नेहरू एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे जिन्हें अंग्रेजी और हिंदी दोनों बोलने और लिखने में महारत हासिल थी।

नेहरू उदार, भावुक थे और उनका खुलापन उन्हें लोकप्रिय बनाता था। इसके उलट पटेल सख़्त और थोड़े रूखे थे। वो व्यवहार कुशल थे और उतने ही मुंहफट भी, दिल के ठंडे लेकिन हिसाब किताब में माहिर।

नेहरू जोड़ तोड़ में बिल्कुल माहिर नहीं थे वहीं दूसरी ओर पटेल राजनैतिक तंत्र का हर पुर्जा पहचानते थे और जोड़ तोड़ में माहिर थे। नेहरू कमाल के वक्ता थे, वहीं पटेल को भाषण बाज़ी से चिढ़ थी वे दिल से और साफ साफ बोलते थे।

ऐसा नहीं है कि मुसलमानों को लेकर उनके मन में कोई नफरत थी लेकिन खरा खरा बोलने के कारण वे देश के मुसलमानों में कम पसंद किए जाते थे। नेहरू समाजवाद के मसीहा थे तो पार्टी के लिए चंदा इकट्ठा करने वाले पटेल पूंजीवाद के संरक्षक थे। नेहरू भावुक और जरूरत से अधिक कल्पनाशील थे लेकिन उनके अंदर एक पैनी राजनैतिक अंतर्दृष्टि थी।

कश्मीर विलय और नेहरू, पटेल

कई लोग ऐसा मानते हैं की यदि नेहरू की जगह पटेल आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बने होते तो वे उन गलतियों को नहीं करते जो कश्मीर जैसे मसलों पर नेहरू से हुईं।

इतिहासकारों की माने तो पटेल शुरुआत में कश्मीर को भारत में मिलाने के इच्छुक नहीं थे बल्कि वह हैदराबाद और जूनागढ़ जो कि हिंदू बाहुल्य राज्य था को भारत में मिलाने के इच्छुक थे।

पटेल का मानना था कि मुस्लिम बाहुल्य होने के कारण यदि कश्मीर पाकिस्तान में मिलता है तो इसमें किसी को कोई आपत्ती नहीं होनी चाहिए।

हैदराबाद और जूनागढ़ को लेकर पटेल का रुख बिल्कुल साफ था और इन रियासतों को पटेल किसी भी कीमत पर हिंदुस्तान में मिलाना चाहते थे। जूनागढ़ में 80% हिंदू थे लेकिन वहाँ के राजा भुट्टो जिन्ना के करीबी थे।

15 अगस्त 1947 को भुट्टो ने ऐलान कर दिया कि वह पाकिस्तान में मिलना चाहते हैं, पटेल को पहले लगा की जिन्ना इसके लिए तैयार नहीं होंगे लेकिन जल्द ही जिन्ना ने प्रस्ताव को मंजूरी दे दी जिसके बाद सेना की मौजूदगी में जनमत संग्रह कराने के बाद इसे भारत में मिलाया गया।

तमाम मशक्कतों के बाद हैदराबाद और जूनागढ़ को भारत में तो मिला लिया गया लेकिन जिन्ना के इस चतुराई भरी चाल ने कश्मीर को लेकर पटेल का मन बदल दिया।

कश्मीर के मुस्लिम बाहुल्य रियासत होने के बावजूद भी अब पटेल काश्मीर को लेकर सख़्त हो गए। काश्मीर के राजा हरी सिंह काश्मीर को एक स्वतंत्र राज्य बनाए रखना चाहते थे। जिन्ना काश्मीर को पाकिस्तान में मिलाना चाहते थे और अब भारत भी इसे अपने में मिलाना चाहता था। 22 अक्टूबर 1947 को 200 से 300 ट्रक कबिलाइयों ने कश्मीर पर हमला कर दिया, उनका कहना था कि 26 अक्टूबर 1947 को वह श्रीनगर फतेह करेंगे। इसके बाद लार्ड माउंटबेटन की अध्यक्षता में डिफेंस कमेटी की एक बैठक बुलाई गई जिसमें माउंटबेटन ने सलाह दी की जब तक राजा हरी सिंह भारत में विलय पर राज़ी नहीं हो जाते तब तक भारत को सेना नहीं भेजनी चहिए।

राजा भारत में कश्मीर के विलय के लिए तैयार हो गए और इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर कर दिया। अभी इंस्ट्रूमेंट ऑफ मर्जर पर हस्ताक्षर होना शेष था लेकिन नेहरू का मानना था कि अब जब कश्मीर का भारत में विलय निश्चित हो ही गया है तो भारत को सेना भेजने में देरी नहीं करनी चाहिए और भारतीय सेना कश्मीर में भेज दी गई।

भारी हिंसा के बीच 2 नवंबर को नेहरू संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में जनमत संग्रह कराने को राज़ी हो गए और दोनों देशों के बीच संघर्ष विराम लगा दिया गया। कहा जाता है कि नेहरू के इस फैसले से पटेल बिल्कुल भी राज़ी नहीं थे लेकिन सच्चाई यह है कि इस बात को लेकर पटेल ने अपना रुख कभी साफ नहीं किया।

3 जनवरी 1948 को कलकत्ता में एक भाषण के दौरान पटेल ने नेहरू द्वारा उठाये गए कदम का समर्थन करते हुए कहा था कि ‘कश्मीर को तलवार की नोक पर नहीं बचाया जा सकता था’।

स्वतंत्र भारत की पहली सरकार में गृह मंत्री रहे सरदार पटेल रियासती विभाग के मुखिया भी थे इस कारण विलय के मुद्दे पर नेहरू से अधिक प्रभाव पटेल का था। लोग चाहे जैसा अनुमान लगा लें लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि कश्मीर को लेकर नेहरू ने जो भी किया वो पटेल ने उन्हें करने दिया।

हालात पल-पल बिगड़ रहे थे, ऐसे में कौन सा फैसला भविष्य में क्या परिणाम देगा यह जान पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था। इसीलिए विलय की सफल कोशिशों के लिए जब पटेल की तारीफ होती है तो कश्मीर की समस्या का ठीकरा अकेले नेहरू के सिर मढ़ना गलत होगा।

दिसंबर 1950 में पटेल पंचतत्व में विलीन हो गए, कहते हैं पण्डित नेहरू और डॉ० राजेंद्र प्रसाद धू धू कर जल रही चिता के सामने बिलख बिलख कर रोने लगे, डॉ० राजेंद्र प्रसाद ने रोते रोते कहा की “सरदार का शरीर अग्नि में विलीन हो रहा है लेकिन कोई भी अग्नि उनके यश और गौरव को राख में तब्दील नहीं कर पायेगी, हम खुद के लिए रो रहे हैं सरदार के लिए नहीं”।

नेहरू और पटेल के बीच कई बातों पर असहमति जरूर थी लेकिन वैसी ही जैसा साथ काम करने वालों के बीच अक्सर हो जाया करती हैं, मत-भेद कभी मन-भेद का रूप नहीं ले पाये, असहमतियाँ कामकाज़ में कभी आड़े नहीं आईं।

आज न गांधी हैं न नेहरू और न ही पटेल। कांग्रेस के महान नेता पटेल के हिंदुत्व पर आज उस आर० एस० एस० ने कब्जा कर लिया है जिसे कभी पटेल ने प्रतिबंधित किया था।

समय का पहिया निरंतर चल रहा है, समय के साथ लोगों का नज़रिया भी बदल जाता है इसलिए जरूरी है कि जब भी हम इतिहास की किसी घटना का जिक्र करें तो उस समय की सम्पूर्ण गतिविधियों को ध्यान में रखकर करें। समय के अनुसार जिसने जो भी भूमिका निभाई वह अहम थी।

(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के लॉ के छात्र हैं और यह उनके निजी विचार है)

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