डॉ. मनीष पाण्डेय
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की जीत अप्रत्याशित बिल्कुल भी नहीं है। 2004 और पुनः 2009 में यूपीए की बढ़ी हुई सीटों के साथ सरकार बनाने लायक जीत जैसा परिदृश्य ही 2014 और पुनः बढ़ी हुई सीटों के साथ 2019 में एनडीए के पक्ष में उभरा है, अंतर केवल नरेंद्र मोदी के आभामंडल, विश्वनीयता और पहली जीत से ही अनवरत सक्रिय असाधारण चुनावी प्रबंधन के कारण सीटों की संख्या का है।
विपक्ष के बिखराव, सर्वमान्य चेहरे के अभाव और हताशा ने अप्रतिबद्ध मतदाताओं को भाजपा की ओर ही मोड़े तो रखा लेकिन इस बड़ी जीत में भी सामान्य समर्थक मतदाता के बहुत उत्साहित होने जैसी कोई स्थिति नहीं।
खैर, देश के स्तर पर और भी बहुत से फैक्टर रहे हैं, जिसने अधिकांश राज्यों में भाजपा को प्रचंड बहुमत दिया तो कई राज्यों और जगहों में दूसरे विकल्प ज्यादा प्रभावी रहे। हम यहाँ बात करते हैं उत्तर-प्रदेश की, जहाँ यह माना गया कि इस चुनाव में जातीय वोट बैंक टूट गए और भाजपा ने 2014 के 37.4% की अपेक्षा 2019 में लगभग 49.56% मत प्राप्त किया, लेकिन यथार्थ में जातीय प्रश्न अपना अस्तित्व बनाये हुए थे।
सपा और बसपा का इन्हीं जातीय समीकरणों के तहत गठबंधन बना यद्यपि उनके गठबंधन का चुनाव को गणित मानना हास्यास्पद साबित हुआ। गठबंधन का गणित केमिस्ट्री में उद्विकसित ही नहीं हो पाया। चुनावी समाजशास्त्र समझने में हुई नाकामी गठबंधन को भारी पड़ गई। परिणामतः सीटों के मामले में सपा-बसपा भाजपा को तनाव देकर भी बहुत पीछे छूट गया।
जातियों के बहुत पुष्ट आंकड़ो न होने के बावजूद एक सामान्य परसेप्शन के तहत यह स्वीकार किया जा सकता है कि गठबन्धन ने यादव, मुस्लिम और दलित (अनुसूचित वर्ग में शामिल कई छोटी उपजातियों को छोड़कर) को साथ मिलाकर लगभग 40% वोट को आधार बनाकर अपनी चुनावी बिसात बिछाई। लेकिन, भाजपा ने अपनी पुरानी रणनीति को ही और बल प्रदान कर दिया, जिसमें गैर-यादव, गैर-मुस्लिम और गैर-दलित के अतिरिक्त लगभग 60% मतदाताओं को फोकस कर दिया वह भी चुनावी समाजशास्त्र के साथ!
स्मरण होगा कि यूपी विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में गोरक्षनाथ पीठ के महंत योगी आदित्यनाथ जी का नाम आगे आना भी उसी रणनीति का हिस्सा था, जिसमें जाति के बजाय हिंदू चेहरा होने का संदेश दिया गया। अब इस 40 और 60 की लडाई में भाजपा के प्रबंधन, मोदी के चेहरे की विश्वसनीयता और उज्ज्वला, नोटबन्दी से अमीरों को नुकसान और गरीबो को फ़ायदा वाले परसेप्शन, किसान सम्मान, आयुष्मान, शौचालय, आवास, तीन तलाक आदि प्रत्यक्ष लाभ देने वाली योजनाओं ने महिला और नए वोटरों को जबरजस्त आकर्षित किया, जिसने अपने घर के मुखिया से इतर जाकर कमल के फूल का बटन धीरे से दबा दिया। इसमें राष्ट्रवाद और पाक के प्रति आक्रामकता ने भी अपनी भूमिका निभाई।
भारतीय राजनीति में मतदाताओं की प्रवृत्ति पर यदि ध्यान दिया जाए तो सामान्यतया यह प्रतिक्रियावादी रही है, जो जिताने से ज्यादा हराने में यक़ीन रखती है। गठबंधन को लेकर सामाजिक स्तर पर यह प्रतिक्रियात्मकता देखने को मिली।
सोशल मीडिया में 85 बनाम 15 का चिढ़ाने वाला जश्न मनाया जाने लगा, …..हवा में उड़ गए जय श्रीराम जैसे नारे अनावश्यक दोहराए जाने लगे, मूल निवासी का मुद्दा शिक्षा और स्वास्थ्य से ज्यादा जरुरी बताया जाना लगा, नतीज़न एससी/एसटी एक्ट से थोड़ा नाराज होने के बाद भी अगड़ी जातियाँ भाजपा में रहने को मजबूर हुई, जिसे 10 % गरीब सवर्णों को आरक्षण देकर और पुष्ट कर लिया गया। ग्रामीण क्षेत्र में यादव और दलित का गठबंधन देख बाक़ी जातियाँ सशंकित हो गईं, और भाजपा की रणनीतिक कुशलता से चुपचाप गठबंधन के विरुद्ध हो गईं, जिसे समझने का प्रयास ही गठबंधन ने नहीं किया।
हालाँकि कुछ विशेष सीटों पर ही यह गठबंधन कामयाब हुआ जहाँ प्रत्याशी ने अपने स्तर पर इनकी गणित में अपने सजातीय या समुदाय को पक्ष में कर लिया। प्रदेश में बहुत से सीटें ऐसी भी रहीं जहां, सजातीय प्रत्याशी होने पर गठबंधन के वोटर भी छिटक गए, उदाहरण के लिए पूर्वांचल के संत कबीर नगर सीट पर ध्यान दिया जा सकता है।
पूरे प्रदेश में मुस्लिम मतदाताओं ने एक सुर से गठबंधन का साथ दिया, और यह भी सच है चुनावी बिसात में मुस्लिम विरोध का एक भाव भी लोगों के मन जगा हुआ है, जो कई सीटों पर ध्रुवीकरण के रूप में सामने आया इसका एक उदाहरण पूर्वांचल की डुमरियागंज सीट है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी यह ध्रुवीकरण रहा है, जहाँ हरियाणा में गैर जाट रणनीति के बाद भी जाटों ने भाजपा को ही विकल्प चुना।
जातीय फैक्टर के काम करने का एक उदाहरण सुभासपा भी है, जिसने घोसी, गाजीपुर, बलिया, मछलीशहर, आजमगढ़, लालगंज, सलेमपुर में 11223 से 39860 तक वोट प्राप्त करते हुए, तीसरा स्थान प्राप्त किया। अगड़ी जातियों ने प्रदेश की कुछेक सीटों को छोड़कर गठबंधन को अपने ख़िलाफ़ मानते हुए भाजपा के प्रत्याशियों का ही साथ दिया।
अंततः गैर यादव, गैर मुस्लिम और गैर जाटव मतों में हुई फूट को भाजपा ने अपनी ओर जोड़ते हुए, बाकी सबको ध्रुवीकृत कर लिया। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि समय और रणनीति भाजपा के पक्ष में है, सपा और बसपा अब अपना स्वतंत्र वजूद खो चुकी हैं गठबन्धन को बनाए रखना ही उनके बचे रहने का विकल्प है, अन्यथा कांग्रेस के लिए यूपी में विपक्ष का मैदान खाली है!
( लेखक विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रवक्ता हैं )