शबाहत हुसैन विजेता
महात्मा गांधी के क़ातिल को महात्मा बताने वाली साध्वी प्रज्ञा की भोपाल से जीत पर एक विद्वान ने कहा कि गांधी जी को 1948 में सिर्फ गोली मारी गई थी। लेकिन उनकी मौत 2019 में हुई है। यह किसी एक शख्स का दर्द नहीं लाखों करोड़ों लोगों का दर्द है। जिन महात्मा गांधी ने हिन्दुस्तान को आज़ाद कराने में एक बड़ी भूमिका निभाई उन महात्मा गांधी के खिलाफ उनकी शहादत के 71 साल बाद जिस तरह का माहौल बनाया जा रहा है। जिस तरह से उनके क़ातिल को महिमामंडित करने के लिए गाँधी जी का चरित्र हनन किया जा रहा है, जिस तरह से पाकिस्तान बनवाने में उनकी भूमिका की बात की जा रही है। वह सिर्फ काबिल-ए-एतराज़ नहीं बल्कि एक खतरनाक दौर की तरफ बढ़ते क़दम का इशारा भी है।
2019 के चुनाव में बीजेपी को जिस तरह का प्रचंड बहुमत मिला है वह निश्चित रूप से नरेन्द्र मोदी के चेहरे और अमित शाह की बिछाई बिसात की जीत है। इस चुनाव में लोगों ने एमपी को नहीं पीएम को वोट दिया है। यही वजह है कि उम्मीदवार कोई भी हो लेकिन अगर उसके नाम और चेहरे के सामने कमल का निशान दिखा तो वोटर ने उसी के सामने वाले बटन को दबा दिया। यही वजह है कि इस बार जीत का फासला बढ़ा है। हर सीट पर वोट नरेन्द्र मोदी को पड़ा है।
बेगुसराय में कन्हैया की बढ़ती लोकप्रियता और उसके सामने किसी के भी न टिक पाने की गारंटी की जो बातें सुनाई पड़ रही थीं। उसके सामने सियासी दिग्गज गिरिराज सिंह भी घबरा गए थे। उन्होंने बेगुसराय से चुनाव लड़ने से ही मना कर दिया था लेकिन बीजेपी शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें आश्वस्त कर भेजा और नतीजा सामने है कि वह जीत गए और कन्हैया तीसरे नम्बर पर खिसक गए।
ऐसे ही भोपाल में पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह के सामने 9 साल बाद जेल से रिहा होकर निकली साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को मैदान में उतार दिया गया। चुनाव एकतरफा लग रहा था। हर कोई कह रहा था कि जिस पर आतंकवाद का चार्ज है उसे टिकट दे दिया लेकिन साध्वी प्रज्ञा ने नाथूराम गोडसे की तारीफों के पुल बांधे।
देश पर शहीद हुए हेमंत करकरे के खिलाफ आपत्तिजनक बातें कहीं। किसी को उम्मीद नहीं थी कि साध्वी भी जीत सकती हैं मगर उन्होंने सबको गलत ठहराते हुए जीत हासिल कर ली, क्योंकि वह भोपाल हो या बेगुसराय वोट सब जगह नरेन्द्र मोदी को ही पड़ा था।
ईवीएम पर जब वोटों की गिनती चल रही थी तब देखने वाले ताज्जुब में डूबते जा रहे थे। कुछ सीटें उम्मीद के खिलाफ हार की तरफ बढ़ रही थीं। अमेठी में राहुल गांधी, भोपाल में दिग्विजय सिंह और बेगुसराय में कन्हैया की हार को आसानी से हज़म नहीं किया जा सकता। इनमें सिर्फ अमेठी सीट ही ऐसी थी जिसे हासिल करने के लिए स्मृति ईरानी ने पांच साल लगातार मेहनत की थी।
2014 का चुनाव हारने के बाद स्मृति ईरानी ने तय कर लिया था कि राहुल को उनकी परम्परागत सीट से हराकर मानेंगी लेकिन भोपाल के लोगों को तो जेल से छूटी वह साध्वी मिली थी जो शहीदों का खुलेआम मखौल उड़ा रही थी। पूरे देश में इस मखौल की निंदा हो रही थी लेकिन वह जीत की तरफ तेज़ी से बढ़ती गईं।
राहुल गांधी कांग्रेस को सत्ता के गलियारों में नहीं लौटा पाए क्योंकि जनता ने चौकीदार चोर है के नारे को ठुकरा दिया। युवा कवि पंकज प्रसून का मानना है कि राहुल ने पूरा चुनाव राफेल पर लड़ा और जनता इस टेक्निकल मुद्दे को समझ नहीं पाई। जनता उसे समझ भी जाती तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जनता पिस रही है महंगाई और बेरोजगारी से। राहुल जनता को नहीं बता पाए कि 50 लाख लोगों की नौकरियां छिन गई हैं। राहुल नहीं बता पाए कि बीजेपी अपने वादों को पूरा नहीं कर पाई है।
जनता ने नकारात्मक प्रचार को ठुकरा दिया और नरेन्द्र मोदी की उस भावना को वोट दिया कि दीदी थप्पड़ मारेगी तो खा लूँगा मगर अपने देश की चौकीदारी नहीं छोडूंगा। राहुल विपक्ष के प्रमुख नेता थे मगर वह चुनाव के वक्त सबको एकजुट नहीं कर पाए यह भी उनकी हार की वजह बनी।
अखिलेश यादव ने इस चुनाव में गठबंधन का फिर नया प्रयोग किया। अखिलेश ने इस बार कांग्रेस छोड़कर मायावती का साथ पकड़ा। इस साथ से बसपा एक बार फिर जिन्दा हो गई और उसे उम्मीद से ज्यादा का फायदा हो गया लेकिन अखिलेश कई सीटें हार गए। बसपा के पुनर्जीवित होने का अखिलेश को 2022 में नुकसान होने की उम्मीद है।
अब इस्तीफों की पेशकश और ज़िम्मेदारों को निकाले जाने का दौर चल रहा है। राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष से इस्तीफे की पेशकश की है। ममता बनर्जी भी अब मुख्यमंत्री नहीं रहना चाहतीं। अखिलेश ने अपने मीडिया पैनेलिस्टों को हटा दिया है। सच यही है कि यह उपाय किसी काम के नहीं हैं। यह सोचने का समय है। यह समझने का समय है। ज़िम्मेदारी छोड़कर भागने से नहीं अपनी गलतियाँ मानने से हालात बदलने की उम्मीद बंधेगी। राहुल समझें कि अगली बार वह जनता के साथ हो रही नाइंसाफी का मुद्दा लेकर खड़े हों। बेरोजगारी और महंगाई से सरकार पर वार करें।
सरकार की गलतियों पर नज़र रखें और अगले पांच साल सड़क पर खड़े होने को तैयार रहें। अखिलेश समझ लें कि सबको साथ लेकर चलना सीखें। जिसके पास भी कोई विचार हो उसे पास बिठाकर उसकी बात सुनें। नकारात्मक सवाल करने वाले पत्रकार को प्रेस कांफ्रेंस के दौरान बेइज्जत न करें। मुलायम सिंह यादव ने निजी रिश्ते बनाने की जो परम्परा बनाई थी उसे जिन्दा रखें। परिवार के झगड़ों को घर में छोड़कर आयें और मंचों और साक्षात्कारों में उनकी चर्चा नहीं करें।
उपचुनाव के बाद जब 2022 की तैयारी शुरू करें तब अपनी पार्टी और अपने कार्यकर्ताओं पर भरोसा करें। परिवार में उन बड़ों की राय पर अमल करें जिनका अनुभव उनसे ज्यादा है। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि घर का विरोधी खुद भले न जीत पाए लेकिन हराने में बहुत कारगर होता है। बेहतर हो पूरा विपक्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस गुण को सीखे कि अगर कोई गाली भी दे तो उसे अपने लिए वोट में कैसे बदला जाता है।