सुरेंद्र दुबे
एक देश एक चुनाव एक आदर्श व्यवस्था हो सकती है। कभी ये रही भी है। वर्तमान में व्यवस्था संभव है या नहीं इस पर बहस छिड़ी हुई है। इस बहस को स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छेड़ा है और उनकी इच्छा है कि देश की सभी राजनीतिक पार्टियां उनके इस ‘एक देश एक चुनाव’ राग को स्वीकार करें।
17वीं लोकसभा का कार्यकाल अब शुरू हुआ है और प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक बुलाकर इसके लिए प्रयास करने शुरू कर दिए हैं। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दल इससे दूर भाग रहें हैं। आप लोगों को याद होगा कि पिछले कार्यकाल में राष्ट्रपति प्रणाली से चुनाव कराए जाने के भी कुछ सुर उठे थे।
परंतु इन सुरों को विपक्षियों ने आगे बढ़ने नहीं दिया। इस लिए राष्ट्रपति प्रणाली से चुनाव कराए जाने का राग अच्छे संगीत में परिवर्तित नहीं हो सका। राष्ट्रपति प्रणाली से चुनाव का सीधा अर्थ है कि देश में राष्ट्रपति का चुनाव होगा और जो भी व्यक्ति राष्ट्रपति होगा वही इस देश का भाग्य निर्धारण करेगा।
फिलहाल हमारे देश में प्रधानमंत्री प्रणाली का चुनाव है, जिसमें सांसद चुने जाते हैं, जो प्रधानमंत्री चुनते हैं। विपक्ष को अभी भी इस बात का अंदेशा है कि कहीं ‘एक देश एक चुनाव’ के पीछे राष्ट्रपति प्रणाली का चुनाव की व्यूह रचना तो नहीं की जा रही है। इसलिए वह एक देश एक चुनाव के पक्ष में नहीं हैं। उन्हें लगता है कि एक देश एक चुनाव राष्ट्रपति प्रणाली के चुनाव का ही दूसर वर्जन है।
हमारे संविधान में सिर्फ ये लिखा है कि लोकसभा चुनाव हर पांच साल बाद होगा और विधानसभाओं का भी कार्यकाल पांच वर्ष का होगा। यह कहीं नहीं लिखा है कि चुनाव एक साथ कराएं जाएंगे या अलग-अलग कराएं जाएंगे। हां, जब हम आजाद हुए तो उसके बाद वर्ष 1967 तक लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाते रहें हैं। फिर जब कांग्रेस की ताकत कम हुई और कई राज्यों में विधानसभाएं समय से पूर्व भंग की गईं तो अलग-अलग चुनाव होने शुरू हो गए।
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आज स्थिति ये है कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) लोकसभा में प्रचंड बहुमत में है और तीन चौथाई विधानसभाओं में उसका परचम लहरा रहा है। बीजेपी को यह समय एक देश एक चुनाव की व्यवस्था लागू करने के लिए सबसे मुफीद लगता है और विपक्ष के लिए यह समय भयावह।
विपक्ष जब चारों खाने चित है और वह आगे की रणनीति बनाने में भी अपने को असहाय पा रहा है तो वह लोगसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के लिए क्योंकर राजी हो।
सवाल ये भी है कि क्षेत्रीय दलों का क्या होगा? हर क्षेत्र की अलग पार्टियां हैं, उनकी अलग आकांक्षाएं हैं, उनके अलग समीकरण हैं और उनके अलग मतदाता हैं। ऐसे में विपक्ष जो मुख्यत: क्षेत्रिय दलों के रूप में है, एक साथ चुनाव के लिए कैसे तैयार हो सकता है? कांग्रेस सिर्फ कहने को राष्ट्रीय पार्टी रह गई है। उसकी स्थिति भी क्षेत्रिय पार्टियों जैसी ही हो गई है। तो जाहिर है वह एक साथ चुनाव के लिए राजी नहीं होगी।
समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, डीएमके, एआईडीएमके, आरजेडी और बिहार में बीजेपी की सहयोगी जेडीयू अपने अस्तीत्व को मिटाने के लिए क्यों तैयार होगी और सरकार भी शायद इसी मजबूरी का फायदा उठाने के लिए एक साथ एक चुनाव लागू करने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए समय को सबसे मुफीद समझ रही है।
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के पीछे सबसे बड़ा तर्क ये दिया जा रहा कि इससे देश में हर समय चुनाव की गतिविधियों से मुक्ति मिलेगी और चुनाव में होने वाले खर्च से निजात मिलेगी।
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हालांकि ये तर्क बड़ा भोंडा सा लगता है क्योंकि चुनाव लड़ना निरंतर महंगा होता जा रहा है। लोगसभा चुनाव लड़ने के लिए अधिकतम 70 लाख रूपए खर्च करने की सीमा है। पर सबको मालूम है कि लोकसभा का चुनाव 5 करोड़ से लेकर 20 करोड़ रूपए तक के खर्च पर लड़ा जाता है। रैलियों और रोड शो के आयोजन पर ही भारी भरकम खर्च होता है, जिसका खर्च 50 लाख रूपये से लेकर 5 करोड़ रूपये तक हो सकता है। तो फिर सिर्फ धन की बर्बादी रोकने के नाम पर देश में लोकसभा व विधानसभ के चुनाव एकसाथ कराने को खर्च कम करने के नाम पर करना कोई तर्क संगत बात नहीं लगती।
आपको बता दें कि 2019 का लोकसभा का चुनाव भारत के इतिहास का सबसे महंगा चुनाव रहा। सात चरणों में 75 दिनों तक चले इन चुनावों में 60,000 करोड़ रुपये के खर्च होने का अनुमान है। 2014 के चुनावों में 30,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे जो अब पांच वर्ष बाद दो गुना हो गया है। चुनाव खर्च का यह अनुमान सेंटर फार मीडिया स्टडीज (सीएमएस) ने लगाया है।
सीएमएस की रिपोर्ट में बताया गया है कि 542 लोकसभा सीटों पर हुए चुनावों में करीबन 100 करोड़ रुपये प्रति संसदीय सीट खर्च हुए हैं। यदि वोटर के हिसाब से देखा जाए तो यह 700 रुपये प्रति वोटर आएगा। इन चुनावों में लगभग 90 करोड़ वैध वोटर थे।
सीएमएस ने अनुमान लगाया है कि इन चुनावों में 12 से 15 हजार करोड़ रुपये सीधे वोटरों में बांटे किए गए। दक्षिण के राज्यों आंध्र, तेलंगाना में वोटरों को दो दो हजार रुपये तक रिश्वत के तौर पर दिए गए। राजनैतिक दलों ने चुनाव प्रचार में 20 से 25 हजार करोड़ रुपये खर्च किए। वहीं चुनाव आयोग ने इन चुनावों में 10 से 12000 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। तथा 6000 करोड़ रुपये अन्य मदों में खर्च हुए हैं।
चुनाव आयोग का जिक्र आया है तो चलो वर्तमान चुनाव आयोग पर भी थोड़ी चर्चा कर लें। इस चुनाव आयोग पर सत्ताधारी दल की कठपुतली की तरह काम करने के आरोप जमकर लगे हैं। उन आरोपों का चुनाव आयोग कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया है और न ही वह अपने व्यवहार तथा कार्यकलापों से विपक्ष को संतुष्ट कर पाया है। यह भी एक भय है जो विपक्षी दलों को देश में एकसाथ चुनाव कराने का समर्थन करने से रोक रहा है। अगर एक साथ चुनाव नहीं होंगे तो लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बीच जो समय मिलेगा उसमें वह चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा कर सकता है और एक बेहतर व्यवस्था की संरचना में कामयाब हो सकता है।
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अभी यह सबकुछ अंंधकार में है कि अगर कोई विधानसभा किसी भी कारण बीच में ही भंग करने की नौबत आ जाए तो उसका शेष कार्यकाल क्या राष्ट्रपति शासन के रुप में ही बीतेगा ? अगर दल बदल के कारण कोई सरकार अल्पमत में आ जाए और वैकल्पिक सरकार बनने की संभावना भी न हो तो क्या अल्पमत की ही सरकार चलती रहेगी।
फ़िलहाल जो हमारा दल बदल कानून है उसमें कोई सरकार कब अल्पमत में आ जाएगी। इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। खैर इन सब चीजों के बारे में तो सरकार ने कुछ ना कुछ सोच ही रखा होगा। एक बात बिलकुल समझ से परे लगती है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एकसाथ कराने की इतनी जल्दबाजी क्या है।
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इस देश में बहुत सी समस्याएं हैं जिन पर त्वरित गति से निर्णय लिए जाने की आवश्यकता है। हमारे करोड़ों युवा बेरोजगार हैं, उन्हें रोजगार देने के लिए आवश्यक योजनाओं के निर्माण के लिए सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं बुलाई जाती। पूरे देश में पानी का संकट है लोग प्यासे हैं, खेत सूख रहे हैं, देश के एक बड़े भाग में बिजली की समस्या है।
पर्यावरण प्रदूषण को प्राथमिकता क्यों नहीं है? लोग खुली हवा में सांस लेने के लिए भी तरस रहे हैं। देश के तमाम इलाकों में भूख और कुपोषण से लोग जूझ रहे हैं। प्रदूषण व गंदे पर्यावरण के कारण इंसेफेलाइटिस से बच्चे मर रहे हैं। बिहार का मुजफ्फरपुर इसका सबसे ताजा उदहारण है जहां चमकी बुखार से सौ से अधिक बच्चे काल के गाल में समा गए। मुझे लगता है ये ऐसे मुद्दे हैं जिनपर सरकार को सर्वदलीय बैठक बुलाकर साझा रणनीति बनानी चाहिए। मैं तो कहूंगा सरकार को हर समस्या के समाधान के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाकर योजनाओं को बनाने और उन्हें कार्यान्वित करने का अभिनव प्रयोग करना चाहिए। इससे सरकार की भी वाह-वाही होगी और जनता को भी बड़े पैमाने पर राहत मिलेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)