डॉ. शिशिर चंद्र
जिंदगी रुक जाती है जहां पानी पर, जहां आज तक भारतीय रेल नहीं पहुंची, जहां न सड़क है न ही अन्य मूलभूत सुविधाएँ और जहां किसानों के आत्महत्त्या की ख़बर आये दिन हम सुनते रहे हैं।
जी, ये है महाराष्ट्र का मराठवाड़ा का वो पहाड़ी क्षेत्र जहां एक नहीं कई जिले और सैकड़ों ऐसे गांव/बस्तियां हैं जहां खेतों में अनाज के नाम पर बाजरा, ज्वार, कहीं कही कपास और थोड़ा चारे के लिए बरसीम ही उगता है। जहां खेतों में मिट्टी नहीं पत्थर का भूरा, मिट्टी के रूप में देखने को मिलता है।
जहां 5-6 महीने के लिए लगभग पूरा गांव (बुजुर्गों और बच्चों को छोड़कर) खाली हो जाता है और पास के दूसरे राज्य या क्षेत्र में गन्ना कटाई के लिए चला जाता है। ये जिला है ‘बीड’ जो गन्ना कटाई वर्कर वाला जिला के नाम से प्रसिद्ध है।
मैंने कई लेखों में, अख़बारों में, लोगों से, मराठवाड़ा और विदर्भ क्षेत्र के बारे में पहले से पढ़ा और सुना हुआ था पर जब यहां जाकर अपनी आँखों से देखा, लोगों को सुना और गहरे से समझने की कोशिश की तो पता चला कि ये आज़ाद भारत का वो क्षेत्र है जिसका नाम सरकारी गज़ट में तो है पर यहां विकास कोसो दूर है।
लोग आज भी मजबूर हैं 3-5 किलोमीटर दूर से प्लास्टिक या मिट्टी की गगरी या अन्य छोटे बड़े डब्बों में पैदल पानी भर कर लाने के लिए, जहां न पक्का रास्ता है न वाहन जाने की सुविधा।
ले देकर 2-3 महीने की बारिश होती है वो भी आधी अधूरी और विडम्बना ये है कि कई ऐसे गांव/बस्तियां हैं जो इन बारिश के दिनों में एकदम कट जाते हैं, आवागमन एकदम ठप्प पड़ जाता है, यदि किसी को आकस्मिक चिकित्सा की जरुरत हो तो चारपाई पर लाद कर ले जाना पड़ता है। अब वहां के लोग 2-3 महीने की बारिश होने की ख़ुशी मनाएं या रोज़मर्रा की जद्दोजहद का सामना करें ये तय करना मुश्किल है।
गांव से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र इतना दूर और मुकम्मल रास्ता भी न होने की वजह से कहिये गर्भवती महिला का प्रसव रास्ते में ही हो जाये, कहने को कोई झोला छाप डॉक्टर भी गांव में नहीं।
स्कूल इतने दूर की चौथी पांचवी के बाद बच्चे स्कूल नहीं जा पाते और गुणवत्ता परक शिक्षा पर तो हमेशा से ही एक सवाल बना रहता है। आंगनवाड़ी केंद्र में ले देकर एक सहायिका दिखी जिसका एक मात्र काम छोटे बच्चों के लिए खाने को कुछ बना देना है।
गांव में यदि बिजली चली गई तो कब आयेगी, दो दिन चार दिन दस दिन, पता नहीं। चूल्हे पर चढ़े बर्तन उज्वला पर सवाल उठा रहे कि खाने का ठिकाना नहीं सिलेंडर कहाँ से खरीदे और उस पर बनाएंगे क्या।
अभी कुछ साल पहले आप में से कई सारे पाठकों ने लातूर वाली खबर जरूर सुनी/पढ़ी होगी, जब ट्रेन से टैंकरों में पानी भरकर लातूर तक पानी भेजवाया गया था, पर आप में से कईयों को ये जान कर हैरानी होगी कि लातूर तक ही इस वजह से पानी भेजवा पाया गया था क्यूंकि उसके आगे ट्रेन नहीं जाती और ये गांव/ बस्तियां वहाँ से करीब 150-200 किलोमीटर दूर बसे हैं जिनका मै जिक्र कर रहा हूँ।
उस सूखे के दौरान (2016-17-18) कई किसानो ने आत्महत्या तक करी और कई परिवारों ने पलायन। यहां बसे लोगों के जिंदगी केवल पानी के ही ईर्द गीर्द चलती है, हालांकि पानी के ईर्द गीर्द तो सभी की जिंदगी चलती है पर दिन का 7-8 घंटा यदि केवल पानी भरने और संभालने में जाता हो तो बात गंभीर है।
पानी, जो जीवन का मूल आधार है, जिसके बिना जीवन संभव नहीं और शुद्ध व स्वच्छ पेयजल जो सबका मौलिक अधिकार है, उसे पाने/लेने के लिए इतनी जद्दोजहद करनी पड़े कि एक परिवार के लगभग सभी सदस्यों का दिन का आधा समय चला जाये और उसके बाद भी शुद्ध व स्वच्छ पेयजल न मिले तो सोचिये उनका क्या हाल होता होगा।
गर्मी के मौसम में चिलचिलाती धुप में गांव/बस्ती से दूर, ऊपर नीचे पहाड़ की कच्ची पगडण्डियों से होते हुए कहीं एक तालाब जिसमें कुछ समय तक ही पानी रहता है, कहीं कोई बावड़ी/कुआँ जहां ‘सब-सरफेस’ का पानी इकट्ठा होता है, लोग-बाग वहां जाते हैं पानी भरते हैं और दिनभर की जरुरत को पूरा करते हैं।
जरुरत भर इस्तेमाल भी कैसा ये शहर में रहने वाले लोग या मैदानी इलाके में रहने वाले लोग नहीं समझ पाएंगे जिनको एक बटन दबाने भर से इफ़रात पानी मिल जाता है।
भौगोलिक कारणों से ‘डीप बोरिंग’ कई जगहों पर संभव नहीं लिहाज़ा ये बावड़ी/कुआँ ही अधिकांशतः पानी का मुख्य स्रोत है जिसका इस्तेमाल पीने व अन्य रोज़मर्रा की जरुरतों को पूरा करने में किया जाता है जो बहुत आसानी से आपको जगह जगह देखने को मिलेगा। ‘जल जीवन मिशन’ भी इन क्षेत्रों में ‘प्रस्तावित’ है, पर देखने वाला होगा कि आने वाले समय में इसका वास्तविक लाभ कहां तक और किन-किन लोगों को मिलता है।
मै गांव से निकल कर बाहर मार्केट वाली जगह पर आया ही था कि कि एक साथी ने कहा, सर देखा आपने दूसरा भारत ……यहां पर 360 डिग्री एप्रोच से काम करने की जरुरत है……। मै सोचने लगा की आज़ादी के 75 साल हो गए, देश आज आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, जी-20 का भारत नेतृत्व कर रहा है जिसका मूल उद्देश्य ही आर्थिक विषमता को दूर करना और सतत विकास हासिल करना है, ऐसे में इन गांवों/बस्तियों को और ऐसे और न जाने कितने गांवों/बस्तियों का सुध लेना वाला कौन है।
न जाने कितनी राज्य सरकारें और केंद्र सरकारें आईं और गईं होंगी, क्या किसी को यहाँ के लोगों से कुछ भी लेना देना नहीं था? क्या किसी को यहाँ की दिक्कतें, परेशानियाँ, रोज़मार्रा की जिंदगी की कठिनाइयाँ पलायन और मौते नहीं दिखी? क्या पानी भरने के लिए छोटे छोटे बच्चों के हाथ में किताबों और खेल की जगह पानी भरने के बरतन नहीं दिखे?
या, स्थानीय नेतृत्व से लेकर शीर्ष नेतृत्व तक सब बस अपने स्वार्थ सिद्धि और लूट में लगे हुए हैं चाहे वो जिस भी राजनैतिक पार्टी से हों।
थोड़ा बहुत कुछ बदलाव हुआ भी तो उसका एहसान ऐसा जताना कि क्या ही बोला जाये। भौगोलिक कारणों से जो समस्या है वो अपनी जगह पर है, लेकिन मै ये समझने में असमर्थ हूँ की सरकारों के पास संसाधन न होने की वजह से ये स्थिति बनी हुई है। दूसरे भारत की ये तस्वीर विचलित करने के लिए काफी है।
(लेखक पानी के मुद्दे पर लम्बे समय से कार्यरत है)