डॉ. मनीष पाण्डेय
गांधी का 153 वीं जयंती वर्ष भी अब अतीत हुआ और जनमानस में शायद उतनी भी चर्चा नहीं हो पाई, जितनी ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ फ़िल्म में गाँधीगिरी शब्द प्रयोग करने पर उस वर्ष हुई थी।
ऐसा होने की तह तक जाने के बजाय फ़िलहाल इस पर बात करना ही ज्यादा प्रासंगिक है कि, कोविड-19 महामारी, आर्थिक मंदी, मानव जनित पर्यावरणीय संकट, घृणा व हिंसा की निरंकुशता और पूरी दुनियां में लोकतांत्रिक विचारों के हो रहे क्षरण से निपटने में गाँधी का विचार और उनका जीवन व्यवहार कैसे सहायक हो सकता हैं?
महात्मा गाँधी ने कभी कहा था कि “Superstition and Truth cannot go together” और एक वहम के शिकार व्यक्ति ने ही सत्य को मार दिया, किन्तु उनके वैचारिक सरलता और सौम्यता की स्वीकार्यता को आज तक, कुछ एक आलोचनाएं छोड़ दी जाएं, कोई चुनौती नहीं दे सका है।
गाँधी के विराट व्यक्तित्व और उनके सिद्धांतों की वैश्विक व्याप्ति है। अभी पिछले साल ही माननीय उच्चतम न्यायालय में महात्मा गाँधी को भारतरत्न देने की याचिका को ख़ारिज करते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बोबडे की अगुवाई वाली बेंच की टिप्पणी है कि, “Mahatma resides ‘in the hearts and minds of every Indian’ and was far above such formal recognitions.“
आप कुछ आधारों पर गाँधी से प्रेम कर सकते हैं, कुछ घटनाओं के कारण उनसे घृणा कर सकते हैं, लेकिन नजरअंदाज नहीं कर सकते!
अंग्रेज़ी शासन में गाँधी पहले भारतीय राजनेता थे, जिन्हें अखिल भारतीय स्वीकार्यता मिली। भारतीय जनमानस पर वह तब भी कुछ ठोस कारणों से राज करते थे; इसकी वजह तो होगी, जो उनकी आलोचना करने वाली जमात भी यदा- कदा समझती ही है।
महात्मा गाँधी जिस माइल्ड हिंदुइज्म या फिर माइल्ड सोसाइटी की बात करते थे, घूमफिर कर सबको आना वहीं है। अतिवाद की एक सीमा है, जो अंततः या तो नरम पड़ेगा या फिर नर्क मचा देगा! कट्टरता से ही लड़ना है; चाहे इस पक्ष की हो या उस पक्ष की!
अपने व्यापक प्रभाव के बीच गाँधी जी कभी भी आलोचना से परे नहीं रहे, फ़िलहाल तो सोशल_मीडिया पर उन्हें अपमानित करने वालों की भीड़ सी दिखाई देती है, तो कुछ गाँधी की दुहाई को फैशन की तरह कहकर उपेक्षित करने की कोशिस करते हैं।
ख़ैर गाँधी ऐसे फैशन है, जो आउटडेट ही नहीं हो रहे! स्वाभाविक प्रश्न है; सीरिया के नर पिशाचों या हिंसक समाज के बीच यह गाँधी का दर्शन एक व्यक्ति, एक संस्कृति का जीवन कैसे बचाएगा?
मैं बुद्ध की करुणा से द्रवित हो जाने वाले अंगुलिमाल की अपवाद घटना का उल्लेख सामान्य धारणा बनाने के लिए नहीं करूंगा लेकिन, युद्ध की अपरिहार्यता के चयनित सवालों में श्रीमद्भगवद्गीता से प्रेरित गाँधी को घेरने वाले इस बात को कैसे समझ सकते हैं, कि महात्मा_गाँधी आपके पशुवत समाज और जाहिल विचारों में प्रासंगिक हैं ही नहीं!
महात्मा गाँधी तो हिंसा की अपरिहार्यता वाले समय में भी संयम की बात कर रहे थे। वास्तव में वे समय से बहुत आगे थे, ऐसा आँकलन ए. एल. बाशम का था। अल्बर्ट आइंस्टीन की वह उक्ति भी इसी संदर्भ में है, कि आने वाली पीढ़ियाँ हांड-मांस के बने इस व्यक्ति के अस्तित्व की वास्तविकता पर कैसे भरोसा कर सकेंगी। समय पश्चात लोग ऐसे व्यक्ति को तो काल्पनिक मानेंगे।
यहाँ एक प्रसंग का ज़िक्र ज़रूरी लगता है कि, अल्बर्ट आइंस्टीन ने अपने सामने दुनिया में हुई हिंसक त्रासदियाँ देखने के बाद महान वैज्ञानिक आइज़क न्यूटन और जेम्स मैक्सवेल की पोट्रेट हटाकर समाज पर नैतिक प्रभाव डालने को आधार मान महान मानवतावादी अल्बर्ट श्वाइटजर और महात्मा गांधी की तस्वीर अपने कमरे में लगा दी, जिसका कारण स्पष्ट करते हुए उस समय कहा था, ‘समय आ गया है कि हम सफलता की तस्वीर की जगह सेवा की तस्वीर लगा दें’।
अल्बर्ट श्वाइटजर ने भारत पर केंद्रित अपनी पुस्तक ‘इंडियन थॉट एंड इट्स डेवलपमेंट’ में लिखा, “गांधी का जीवन-दर्शन अपने आप में एक संसार है’……‘गांधी ने बुद्ध की शुरू की हुई यात्रा को ही जारी रखा है। बुद्ध के संदेश में प्रेम की भावना दुनिया में अलग तरह की आध्यात्मिक परिस्थितियां पैदा करने का लक्ष्य अपने सामने रखती है। लेकिन गांधी तक आते-आते यह प्रेम केवल आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि समस्त सांसारिक परिस्थितियों को बदल डालने का कार्य अपने हाथ में ले लेता है।”
इससे भी आगे तो गाँधी भारत की सनातन परंपरा के वाहक लगते हैं। रामराज्य के विचार से जिस नैतिक आदर्श को गोस्वामी तुलसीदास भारतीय जनमानस में स्थापित करने का प्रयास करते हैं, उसे व्यापक परिणत 20वीं सदी में महात्मा_गाँधी ही दे पाते हैं, जिनकी ‘सत्य’ और ‘अहिंसा’ हिन्दू धर्म की अभिलाक्षणिक विशेषताएं हैं। गाँधी जी द्वारा उल्लिखित सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह पातंजल योग-सूत्र में ‘पञ्च महाव्रत’ के नाम से भारतीय परम्परा में पहले से ही मौजूद हैं।
अस्वाद और अभय का भी भारतीय नीतिशास्त्र में उल्लेख है। शेष व्रत शरीर-श्रम, सहिष्णुता, सर्व-धर्म समानत्व, स्वदेशी और अस्पृश्यता निवारण समय की मांग को देखते हुए गांधी जी ने सत्याग्रह अनुशासन में अलग से जोड़े हैं। व्यवहारिक विचलन की मीमांसा के भय से आदर्श को नकारा नहीं जाता। उस आदर्श स्थिति को लाने का अभी तो प्रयास ही हो सकता है। आदर्श बचा रहेगा, तो ही शायद किसी दिन व्यवहार से उसका अंतर भी मिट सकता है।
हिंदू संस्कृति में देवी-देवताओं या महानतम विभूतियों के जन्म दिन को स्मृत करने की परंपरा रही है, किन्तु कालांतर में हुए परिवर्तनों से मृत्यु की घटनाओं का स्मरण या उसकी विवेचना निषिद्ध नहीं रह गई।
विक्टोरियन नैतिकता से इतर भारतीय समाज के मूल्य और नैतिकता में राम का आदर्श सर्वकालिक रूप से अतुलनीय माना जाता है। प्रत्येक सनातन परंपरा का हिन्दू, जीवन का अंतिम शब्द राम ही हो, के लिए आजीवन तपस्यारत रहता है। रामबृक्ष_बेनीपुरी के ‘बापू की कुटिया’ लेख की एक पंक्ति है,”……उस दिन, जब गोलियों के तीन भयानक धड़ाकों के बीच, दुनिया ने अंतिम बार उनके मुख से ‘हे राम’ सुना था!
“जनम-जनम मुनि जतन कराहीं।
अंत राम कहि आवत नाहीं।”
उस दिन संसार ने पाया था, ऋषियों की परंपरा टूटी नहीं है, बल्कि उसमें नई ज्योति की एक नई कड़ी जुड़ गई है। काश, यह ज्ञान उस अज्ञानी को हो पाता, जिसने हिंदुत्व के नाम पर इतना बड़ा अनर्थ किया!”
किन्तु, गाँधी का मूल्यांकन अजीब तरह से किया जाता है, जैसे कि वो चर्चिल या लेनिन की तरह शासक रहे हों। इतिहास के घटनाओं की व्याख्या वर्तमान संदर्भ से कैसे सम्भव है? यह सच है,
जनमानस में गाँधी की अपील का महत्व था, जिसका तत्कालीन सत्ता पर भी दबाव था लेकिन हम क्यों भूल जाते हैं कि वे अपने सत्य के लिए उस ताकत को भी बार-बार दाँव पर लगा देते थे।
असहयोग आंदोलन और स्वयं गाँधी जी की लोकप्रियता चरम पर थी, लेकिन अहिंसा के आदर्श को बचाने के लिए एक झटके में आंदोलन स्थगित कर देने के बाद अंग्रेजों ने एक आपत्तिजनक लेख के आरोप में 18 मार्च, 1922 को गिरफ्तार कर 6 वर्ष की सजा में उन्हें जेल भेज दिया और दो वर्षों तक उस नाराज़गी में जनता ने उन्हें आजाद कराने के लिए कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी।
फ़िर भी वह व्यक्ति अवसर देता है, आप अपनी भड़ास निकाल लें।
गाँधी की ओट में तो हर कोई अपनी हताशा को स्खलित कर लेता है। अपनी कमज़ोरी छिपा सकता है। गाँधी आज भी यदि जिंदा होते तो उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। अपनी आत्मकथा में वह एक बार भी किसी को दोषी नही ठहराते। कोई शोक प्रलाप नहीं करते। स्पष्टता और सरलता ही उनकी वैचारिक दृढ़ता का आधार है।
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गाँधी के विरोधी इस बात को समझ लें। अंतिम विकल्प सत्य और अहिंसा में निहित है; मानसिक उद्वेग थोड़ी ही देर रहता है; फिर मन और चित्त को शान्त होना ही पड़ता है। हमें प्रयास तो ऐसे unoffending Society के निर्माण को करना है, जहाँ शांति एवं अहिंसा के महत्व को समझाने में समय का क्षय न हो!
वैसे जार्ज़ बर्नाड शा ने महात्मा गाँधी को दिये श्रद्धांजली में कहा था कि ‘अच्छा होना भी कितना ख़तरनाक है !’
(लेखक समाजशास्त्र के प्रवक्ता हैं )