जुबिली न्यूज डेस्क
पिछले कुछ सालों में देश में राजद्रोह के मामले खूब दर्ज हुए है। दरअसन राजद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है। इस कानून के तहत सजा तीन साल से लेकर आजीवन कारावास और जुर्माना तक हो सकती है।
बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह राजद्रोह कानून (124ए) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर पांच मई को अंतिम सुनवाई करेगा।
सीजेआई एनवी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने याचिकाओं पर सुनवाई के लिए 5 मई की तारीख तय की है। मुख्य न्यायाधीश रमना ने कहा, इस मामले की सुनवाई में अब कोई स्थगन नहीं होगा। इस पर पिछले साल जुलाई में अंतिम सुनवाई हुई थी।
कानून की वैधता को चुनौती
मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच ने केंद्र सरकार द्वारा जवाब न दायर करने पर सुनवाई टालने के आग्रह पर यह निर्देश दिया।
अदालत ने कहा है कि अब किसी भी वजह से सुनवाई टाली नहीं जाएगी। अदालत ने कहा कि अगली सुनवाई (5 मई) को दिनभर होगी।
दरअसल शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार को इस हफ्ते के अंत तक राजद्रोह कानून को खत्म करने की याचिकाकर्ताओं की मांग के संबंध में अपना पक्ष रखने के लिए कहा है।
केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पीठ से कहा कि याचिकाओं पर केंद्र सरकार का जवाब लगभग तैयार है। मेहता ने इस पर जवाब दाखिल करने के लिए दो दिन का समय मांगा।
राजद्रोह कानून की वैधता को चुनौती देने वाली रिटायर्ड मेजर जनरल एसजी वोम्बतकेरे और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा दायर दो रिट याचिकाओं पर सुनवाई हो रही है।
वहीं इसी मामले पर पत्रकार पेट्रीसिया मुखिम और अनुराधा भसीन द्वारा दाखिल याचिका भी लंबित है।
याचिकाकर्ताओं ने अदालत से कहा है कि इस कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है।
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क्या है राजद्रोह कानून?
भारत की दंड दंहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के तहत राजद्रोह एक अपराध है। अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान 1870 में इस कानून को लाया गया था।
लेकिन जहां 1898 और 1937 में इसमें संशोधन भी किया गया तो वहीं आजादी के बाद साल 1948, 1950 और 1951 में इसमें और संशोधन किए गए।
दशकों पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय और पंजाब उच्च न्यायालय ने अलग-अलग फैसलों में इसे असंवैधानिक बताया था, लेकिन साल 1962 में शीर्ष अदालत ने ही अपने ”केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य’ नाम के फैसले में इसे वापस ला दिया7
हालांकि, इसी फैसले में कोर्ट ने कहा कि इस कानून का उपयोग तभी किया जा सकता है जब “हिंसा के लिए भड़काना ” साबित हो।
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1962 में दिए फैसले में शीर्ष अदालत ने कहा था कि हर नागरिक को सरकार के कामकाज पर टिप्पणी करने और आलोचना करने का अधिकार है।
लेकिन आलोचना का दायरा तय है और उस दायरे में आलोचना करना राजद्रोह नहीं है। साथ ही उच्चतम न्यायालय ने साफ किया था कि आलोचना ऐसी हो जिसमें सार्वजनिक व्यवस्था खराब करने या हिंसा फैलाने की कोशिश न हो।
साल 2021 से ही शीर्ष अदालत में इस कानून की वैधता को चुनौती देने वाली चार याचिका लंबित है।