शबाहत हुसैन विजेता
कोरोना की दहशत से पूरी दुनिया दहली हुई है। इस खतरनाक वायरस से खुद को बचाये रखने की कोशिश में हर कोई लगा है। एडवायजरी जारी हो चुकी है कि कहीं भी भीड़ को न जमा होने दिया जाये। भीड़ को रोकने के लिये मन्दिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारों को बंद कर दिया गया है। जो धर्मस्थल खुले हैं वहां जाने वालों के लिये दरवाज़े पर ही सैनेटाइज़ेशन का इंतजाम किया गया है।
सरकार ने ट्रेनें रोक दी हैं। उड़ानों को ब्रेक लग गये हैं, माल, क्लब, पब और सैलून सब बंद हैं। बाज़ारों में सन्नाटा पसर गया है लेकिन नागरिक संशोधन क़ानून के खिलाफ सड़कों पर आन्दोलन के लिये जो बिसात बिछाई गई थी उस पर कोई असर नज़र नहीं आ रहा है। आन्दोलनकारी आन्दोलन वापस लेने को तैयार नहीं हैं। सड़कों पर जमा यह भीड़ घरों को लौटने को तैयार नहीं है।
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भीड़ जानलेवा हो सकती है। यह आन्दोलन इंसानी मौतों के आंकड़ों को बढ़ाने की वजह बन सकता है। इस भीड़ में कोरोना के वायरस ने अगर अटैक कर दिया तो फिर संभालना किसी के भी बूते की बात नहीं होगी।
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कोरोना से निबटने के लिये जो सरकारी इंतजाम किये गए हैं वह मरीजों की संख्या अचानक बढ़ जाने के बाद नाकाफी हो जाएंगे और तब इसे रोक पाना किसी के भी बूते की बात नहीं होगी।
ज़ाहिर है कि हालात की रौशनी में मौजूदा दौर में इस आन्दोलन पर ब्रेक लगना बहुत ज़रूरी है। ब्रेक कैसे लगे यही सवाल सबसे बड़ा सवाल बन गया है। सरकार और प्रशासन सख्ती से आन्दोलन खत्म कराने के सारे जतन कर रहा है।
लखनऊ के घंटाघर पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया। औरतों को बुरी तरह से पीटा गया, तमाम ज़ख़्मी और बेहोश औरतों को अस्पताल भेजना पड़ा लेकिन इससे आन्दोलन तो खत्म नहीं हुआ उल्टे वहां पर भीड़ पहले से कई गुना बढ़ गई।
सभी समझदार लोग जानते हैं कि मौजूदा वक्त में सड़कों पर भीड़ का जमा रहना न सिर्फ इस भीड़ के लिये खतरनाक है बल्कि जो लोग उस भीड़ का हिस्सा नहीं हैं उनके लिये भी खतरनाक है।
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दरअसल यह आन्दोलन अब दो वजहों से चल रहा है। पहली वजह तो लोगों का इस क़ानून की वजह से पैदा हुआ डर है कि वह अगर नागरिक साबित न हो पाये तो डिटेंशन सेंटर में जाना पड़ेगा। अपने ही मुल्क में डिटेंशन सेंटर में कैद किये जाने का डर बहुत भयावाह है। इस डर के सामने मौत का डर भी कमज़ोर पड़ गया है।
आन्दोलनकारियों को पता है कि कोरोना जानलेवा हो सकता है लेकिन डिटेंशन सेंटर में कैद होने से बेहतर उन्हें यह मौत लग रही है। आन्दोलन जारी रहने की दूसरी वजह सरकार की हठधर्मी, एक इंच भी पीछे न हटने का एलान और पुलिस का दमनात्मक रवैया ज़िम्मेदार है।
सरकार एक तरफ तो आन्दोलनकारियों से बात नहीं करने का एलान करते हुए उन्हें इग्नोर करने का नाटक कर रही है तो दूसरी तरफ वह उनके खिलाफ पुलिस की सख्ती और लाठीचार्ज के ज़रिये उन्हें तोड़ने की कोशिश कर रही है। सरकार यह तो चाहती है कि आन्दोलन खत्म हो जाये तो दूसरी तरफ उसने इसे अपनी प्रेस्टीज इश्यू से भी जोड़ लिया है।
ठीक यही बात आन्दोलनकारियों की भी है। मौत का डर उनके सामने भी है लेकिन प्रेस्टीज इश्यू का मसला उनके सामने भी है। अपनी जिस मांग के लिये वह महीनों से खुले आसमान के नीचे हैं। अपनी जिस मांग के लिये उन्होंने सर्द रातें खुले मैदान में काटीं हैं। बरसात और ओलों की मार सही है उस आन्दोलन को अगर खत्म कर वह अपने घरों को लौट गये तो इतने दिनों की मेहनत भी उन्हें डिटेंशन सेंटर के डर से आज़ाद नहीं कर पायेगी।
आन्दोलन के मुद्दे की गेंद शुरू से ही सरकार के पाले में है। सरकार को यह बात समझनी होगी कि उसे प्रेस्टीज इश्यू के मुद्दे से ऊपर उठना होगा। उसे आन्दोलनकारियों के बीच अपने ऐसे नुमाइंदे भेजने होंगे जो आन्दोलन और सरकार के बीच पुल बन सकें। जिन नागरिकों के वोट से सरकार बनती है उन नागरिकों को दूध से मक्खी की तरह से निकालकर नहीं फेंका जा सकता। आन्दोलनकारियों में नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर जो शंकाएं हैं उन्हें सरकार को दूर करना चाहिए।
देश की सड़कों पर आन्दोलनकारियों की जो भीड़ जमा है हकीकत में वह एनआरसी और सीएए के गठजोड़ की वजह से जमा हुई है। असम में एनआरसी के बाद 19 लाख लोगों का खुद को नागरिक न साबित कर पाना इस आन्दोलन की वजह बनी है। यही वजह है कि असम में एनआरसी के बाद सरकार ने जैसे ही सीएए को पेश किया आन्दोलन का रास्ता तैयार हो गया।
देश में एक बड़ी आबादी के सामने यह सन्देश चला गया कि एनआरसी में अपनी नागरिकता खोने वालों के साथ सीएए के ज़रिये सौतेला व्यवहार होने वाला है। वक्त रहते सरकार ने अगर यह सन्देश दे दिया होता कि देश के किसी भी नागरिक के साथ सौतेला व्यवहार नहीं होगा तो शायद इस आन्दोलन की ज़मीन ही तैयार न हो पाई होती।
मौजूदा वक्त में सिर्फ हिन्दुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया गंभीर संकट के दौर से गुज़र रही है। कोरोना वायरस की शक्ल में एक बड़ी मुसीबत अपने डैने फैलाए हुए हमला करने को तैयार बैठी है। इस हमले को रोकने के लिये सरकार हर मुमकिन कोशिश में लगी है। लोगों को घरों में रोका जा रहा है।
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ऑफिस में वर्क फ्रॉम होम की सहूलियत दी जा रही है। बस, ट्रेन और जहाज़ को ब्रेक लगा दिए गए हैं। ऐसे में अगर आन्दोलनकारियों के बीच ऐसे समझदार लोगों को भेजा जाये जो उनकी शंकाओं को दूर कर सकें और सरकार भी सख्ती छोड़कर नरमी के मूड में आ जाये तो शायद चीज़ों को ठीक होने में ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा।
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(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।)