जुबिली न्यूज डेस्क
केंद्र में ही नहीं राज्यों में भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नाराज हैं। केंद्र में जहां कई वरिष्ठï नेता नेतृत्व परिवर्तन की मांग कर चर्चा में हैं तो वहीं उत्तर प्रदेश कांग्रेस में बदलाव की बयार कई पुराने चेहरों को रास नहीं आ रहा।
उत्तर प्रदेश में 2022 में विधानसभा चुनाव है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस मेहनत कर रही है। इसके लिए कांग्रेस पार्टी ने कई बदलाव किया है। यह बदलाव संगठन में चेहरों के साथ ही पार्टी के तौर-तरीकों में भी है, पर कांग्रेस के भीतर कई पुराने चेहरों को यह बदलाव रास नहीं आ रहे। कई नेताओं ने तो पार्टी दफ्तर से दूरी बनानी भी शुरू कर दी है।
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पार्टी के प्रदेश नेतृत्व में बदलाव के बाद इस पर एक विचारधारा के लोगों के हावी होने के आरोप लगा है। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह सरीखे नेताओं की जयंती मनाये जाने से कांग्रेस के भीतर ही एक वर्ग में नाराजगी पनपने लगी।
उनका सवाल है कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए जो खुद पार्टी छोड़कर अलग हुआ, उसकी जयंती पार्टी दफ्तर में कांग्रेस नेता कैसे मना सकते हैं?
इसके अलावा, हाल ही में पार्टी दफ्तर में पेरियार और फलस्तीनी मुक्ति संगठन के प्रमुख रहे यासिर अराफात की जयंती पर भी उत्सव हुआ। इस तरह के आयोजनों पर प्रदेश कांग्रेस के पुराने नेताओं ने तमाम तरह के सवाल खड़े किए हैं। उनका आरोप है कि प्रदेश संगठन में जो नए चेहरे शामिल किए गए हैं, उनकी वामपंथी विचारधारा को पार्टी पर थोपा जा रहा है।
समस्याएं एक ही नहीं है। पुराने नेता कई बदलाव को लेकर परेशान है। हाल ही में सर्वसमाज के आंदोलनों में नीले पटका डालकर आंदोलन करने को भी पार्टी में लोग नहीं पचा पा रहे हैं। इसके पहले भी लखनऊ में हुए प्रदर्शन के बाद पार्टी के कई नेताओं ने इस पर सवाल खड़े किए थे। नेताओं ने तर्क देते हुए कहा कि पार्टियां अपने झंडे और पोस्टरों से पहचानी जाती हैं। अब ऐसे में नीला पटका पहनकर आंदोलन करने से लोगों के बीच आखिर क्या संदेश दिया जा रहा है।
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बातचीत के दरवाजे बंद
कांग्रेस में सबसे बड़ा संकट है कि नेताओं की बात सुनने वाला कोई नहीं है। ऐसा आरोप लंबे समय से लगता आ रहा है। पार्टी के गर्त में जाने के पीछे की एक बड़ी वजह ये भी है।
ऐसा ही आरोप प्रदेश कांग्रेस नेताओं का भी है। नेताओं का कहना है कि प्रदेश नेतृत्व में बदलाव के बाद से पार्टी में बातचीत के दरवाजे भी बंद हैं। मौजूदा संगठन से किसी भी तरह की शिकायत पर शीर्ष नेतृत्व को न तो बताया जा सकता है और न ही उन्हें भरोसे में लेकर स्थितियों के बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।
जानकारों की माने तो नेताओं के खिलाफ लगातार हो रहीं कार्रवाइयां भी इसी का हिस्सा हैं। पहले पार्टी से दस वरिष्ठ नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया गया, जिनमें से रामकृष्ण द्विवेदी को निधन के कुछ पहले पार्टी में शामिल किया गया था। हालांकि, उनके पार्टी में शामिल किए जाने के पत्र की भाषा भी सवालों के घेरे में थी। इन नेताओं की बात पहुंचाने की तमाम कोशिशें असफल रहीं।
अदिति सिंह के प्रकरण में भी उनकी बात सुने बिना लखनऊ से लोगों को उनके आवास पर प्रदर्शन के लिए भेज दिया गया। जितिन प्रसाद के मामले में भी पूर्व सांसद जफर अली नकवी के इशारे पर उनके खिलाफ नारेबाजी हुई।