शबाहत हुसैन विजेता
नरेन्द्र मोदी सरकार ने किसानों के 13 महीनों के लगातार चले आन्दोलन से घबराकर कृषि कानूनों को वापस ले लिया. किसानों की एमएसपी जैसी मांगों के निबटारे के लिए सरकार ने पांच किसानों को शामिल करते हुए एक समिति भी बना दी. समिति के गठन के बाद दिल्ली बार्डर को खाली कर किसान अपने घरों को वापस लौट गए.
किसानों की वापसी के बाद केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने यह बात सार्वजनिक तौर पर कही कि सरकार फिर से कृषि क़ानून लेकर आयेगी. कृषि मंत्री के इस बयान को यह कहकर कि रस्सी जल गई बल नहीं गया छोड़ा नहीं जा सकता. बात देश के कृषि मंत्री ने कही है तो उसका कोई ओर छोर भी होगा. सरकार बैकफुट पर लौटी थी तब भी कुछ बीजेपी नेताओं ने कहा था कि शेर जब शिकार करता है तब कुछ कदम पीछे हटता है, फिर सीधे शिकार पर छलांग लगाता है.
समझने की बात है कि शेर रूपी सरकार का शिकार कौन है ? क्या सरकार का शिकार सिर्फ किसान है ? किसान को शिकार बना लिया तो आम आदमी पर इसका क्या असर पड़ेगा, इस पर भी मंथन की ज़रूरत पड़ेगी. मंथन भी फ़ौरन किया जाना चाहिए क्योंकि सरकार 18-18 घंटे काम कर रही है. सरकार के कदम जिस दिशा में बढ़ चले हैं वह इस देश के नागरिकों के लिए काफी खतरनाक होने वाले हैं.
केन्द्र सरकार बहुत जल्दी आस्ट्रेलिया के साथ दूध और दूध उत्पाद खरीदने का करार करने जा रही है. इस करार के होने के बाद के शुरुआती दिनों में देश का आम नागरिक सरकार के क़दमों में अपना सर झुका देगा क्योंकि आस्ट्रेलिया से आने वाला दूध भारत में 20 से 30 रुपये लीटर में बिकेगा. इसी तरह से दूध से बने उत्पाद यानि दही, पनीर और मक्खन भी बहुत सस्ते दाम में बिकने लगेंगे. आम नागरिकों को आधे दाम में दूध और दूध से बने उत्पाद मिलने लगेंगे तो आम आदमी तो सरकार की जय-जयकार में लग जायेगा. सरकार भी अपनी पीठ ठोकती दिखाई देगी कि इतना सस्ता दूध दही किसी भी सरकार ने नहीं बेचा होगा जितना हमने बेचकर दिखाया.
समझने की बात है कि आस्ट्रेलिया का दूध दही जब भारतीय घरों में खपने लगेगा तब भारतीय दूधियों के दूध का क्या होगा. भारत जिस तरह से कृषि प्रधान देश है ठीक उसी तरह से दूध दही के मामले में भी दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में से एक है. अचानक से भारत का दूध व्यापार लड़खड़ा जायेगा. दूधियों के सामने अपने जानवर पालना मुश्किल हो जायेगा.
दुधारू जानवर या तो बूचडखानों के हवाले कर दिए जायेंगे या फिर औने-पौने दाम में वही पूंजीपति खरीद लेंगे जो भारतीय कृषि पर अपना आधिपत्य जमा लेने की जुगत में नये कृषि क़ानून के समर्थन में खड़े थे. दूध उत्पादन के मामले में आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भारत से काफी आगे है. न्यूजीलैंड की तरफ से साल भर पहले यह बयान सामने आया था कि अपने उत्पादन का सिर्फ पांच फीसदी ही वह भारत को सप्लाई करेगा.
भारतीयों के लिए समझने की बात यह है कि न्यूजीलैंड के उत्पादन का पांच फीसदी कितना है. न्यूजीलैंड के कुल दूध उत्पादन का पांच फीसदी भारत के लिए ज़रूरी दूध का एक तिहाई है. आस्ट्रेलिया दूध उत्पादन के मामले में न्यूजीलैंड से कहीं आगे है. ज़ाहिर है कि आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड अपने उत्पादन का पांच-पांच फीसदी भारत को सप्लाई कर भारत के पूरे दूध व्यापार पर कब्ज़ा जमा लेंगे और हमारा अपना दूध का समृद्ध बाज़ार हाथ में कटोरा लेकर खड़ा हो जायेगा.
भारत जब दूध उत्पादन के मामले में पहले से आत्मनिर्भर देश है तो फिर हमें दूध और दूध उत्पाद विदेशों से खरीदने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है. भारत के बाज़ारों में बिकने वाले दूध के दाम घटाने की ही कोशिश करनी है तो हमें जानवरों के चारे के दाम घटाने की कोशिशों की तरफ बढ़ना चाहिए था. जानवरों का चारा तभी सस्ता मिल सकेगा जब खेतों में फसल लहलहायेगी. जब किसान समृद्धि की तरफ बढ़ेगा. जब किसानों को खाद और बीज कम दाम में उपलब्ध होंगे लेकिन एक तरफ भारत के दूध व्यापार को बंद कराने की कोशिश है तो दूसरी तरफ जापान और दक्षिण कोरिया से बीज, दवाइयाँ और कृषि रसायनों की खरीद बढ़ाई जा रही है.
देश में आर्थिक मंदी है इसमें कोई शक नहीं है. कोरोना महामारी ने हमारे व्यापार की कमर तोड़ दी है इसमें भी कोई दो राय नहीं है. अनाज के साथ-साथ सब्जी उगाना भी महंगा हो गया है. दूध और दूध उत्पादों की कीमतें आसमान छूने लगी हैं. आम आदमी महंगाई से कराहने लगा है लेकिन आम आदमी को सस्ता दूध सप्लाई करने के नाम पर अपना खुद का व्यापार समेत देना कहाँ की समझदारी है.
मकान की देखरेख महंगी हो जाए तो कोई अपना घर बेचकर किराए के घर में नहीं रहने लगता है. दूध व्यापार समृद्ध है. दूध ज़रूर महंगा है. दूध के दाम कम करने के लिए उसका उत्पादन बढाने की कोशिश करना समझदारी है न कि अपना धंधा चौपट कर हम दूसरों से खरीदने लग जाएं.
इसकी क्या गारंटी है कि भारत में अपना दूध बाज़ार जमाने के बाद आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड दाम नहीं बढ़ाएंगे. भारत में आते वक्त वह जो दूध 20 से 30 रुपये लीटर बेचने की बात कर रहे हैं वही पांच साल बाद 100 रुपये लीटर बेचने लगेंगे तब हम कहाँ जायेंगे. तब तक तो हमारा खुद का व्यापार पूरी तरह से खत्म हो चुका होगा.
जब हमारे बच्चे आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड का दूध पीकर बड़े होंगे तो गऊ माता का सपना भी तो मर जायेगा. दूध का व्यापार करने वाले अपने जानवरों को किसलिए पालेंगे. जिस गाय को माता बताकर देश के सौहार्द को छलनी करने की कोशिशें की जा रही हैं उसी गाय के साथ अन्याय की इबारत भी लिखी जा रही है.
दूध का व्यापार करने वालों को किसानों के संघर्ष से सबक लेना चाहिए. जिस तरह से उन्होंने कृषि क़ानून वापस करा दिए उसी तरह से आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से दूध खरीदने का करार भी तुडवाना होगा. यह करार अगर हो गया तो यह मान लेने में भी कोई दिक्कत नहीं होगी कि गाय इनकी माता नहीं सियासत का अस्त्र थी.
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