Monday - 28 October 2024 - 5:47 AM

मतदान ना देना और नोटा एक बात नहीं

डॉ श्रीश पाठक

राजनीतिक शिक्षा के अभाव में अक्सर लोग नोटा और मतदान ना देना एक बराबर समझते हैं। दुर्भाग्य से कई जगहों पर तो कई दलों ने इसके खिलाफ अभियान भी चलाया। अक्सर लोग कहते हैं कि नोटा को गया मत बेकार हो जाता है और यदि मत बेकार ही करना है तो मतदान की जरूरत ही क्या है!

कुछ बारीकियाँ लोकतंत्र में बहुत अहम होती हैं। राज्य के चार मूलभूत अंग होते हैं- जनता, भूभाग, संप्रभुता एवं सरकार। नागरिक समाज और सरकार के लोग मिलकर ही राज्य को क्रियाकारी बनाते हैं। लोकतंत्र में यों तो निर्णायक शक्ति (संप्रभुता) जनता में निहित होती है परंतु सत्ता को चलाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। सरकार की शक्तियाँ इसी तर्क से उसे प्राप्त होती है।

लोकतंत्र में यह तय तथ्य है कि राज्य, सरकार आदि सभी ताने बाने जनता के लिए हैं, इसलिए किसी लोकतंत्र में सरकार निरंकुश व दिशाहीन न हो तो नागरिक समाज को अनवरत प्रयास करने होते हैं। इसप्रकार लोकतंत्र में नागरिक समाज और सरकार अपने महत्‍व में एक जैसे ही हैं।

चूँकि सरकार के पास तंत्र को चलाने की शक्ति होती है तो उसपर एक नियंत्रण आवश्यक है तथा सरकार लगातार जन आकांक्षाओं के अनुरूप ही चले इसलिए एक नियमित अंतराल पर स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की व्यवस्था की जाती है। नागरिक समाज, सचेत होकर पिछली सरकार के कार्यों की पड़ताल करता है और उसी के अनुरूप अगली सरकार चुनता है।

भारत में सरकार के प्रमुख को प्रत्यक्ष चुनने का विधान नहीं है ताकि वह निरंकुश न हो सके इसलिए ही उसे सांसदों के माध्यम से चुना जाता है। विकास के किसी भी डिजाइन में विविधता को भी स्थान मिलता रहे इसलिए चुनावों में अलग अलग दल व निर्दल प्रत्याशी को भी बराबर ही स्थान दिया गया। स्पष्ट है कि उचित सांसद चुनने का चुनाव है लोकसभा चुनाव न कि उचित दल अथवा प्रधानमंत्री।

लंबे औपनिवेशिक अवधि से उपजी राजनीतिक शून्यता, विश्व के साथ कदमताल करने की मंशा एवं देश की साक्षरता की तात्कालिक स्थिति को संज्ञान में लेते हुए भारत ने लोकतंत्र को चुना, सभी को मताधिकार दिया और चुनाव पद्धति की सबसे सरल विधि फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट (FPTP) को अपनाया गया। इसी FPTP की अच्छाई और इसकी सीमा समझेंगे तो नोटा का महत्व समझ आएगा।

FPTP की सबसे खास बात इसका सरल होना है। 100 मतदाताओं वाले क्षेत्र में यदि छह उम्मीदवार खड़े हैं और यदि वहाँ किसी बार 60% ही मतदान हुआ तो संभव है कि एक प्रत्याशी केवल बाकियों से छह अधिक मत पाकर विजयी हो जाए और शेष पाँच प्रत्याशी केवल 9-9 मत पाकर परास्त हो जाएँ। एक मत से भी विजय पायी जा सकती है।

FPTP की सीमा उपर्युक्त उदाहरण में स्पष्ट है कि 100 मतदाताओं वाले क्षेत्र का प्रतिनिधित्व अंततः 15 मत पाने वाला व्यक्ति पाँच साल तक कर सकेगा। शेष 45 मत का प्रतिनिधित्व विजेता के मतों में नहीं होगा। अब इसकी वज़ह से नेताओं को जहाँ सभी 100 मतदाताओं के कल्याण के लिए प्रयासरत रहना चाहिए, वे आसान तरीका अपनाते हैं। अस्मिता, पहचान के मुद्दे के साथ वे वोटर्स को वोटबैंक में तब्दील कर देते हैं। पाँच साल वे 10 मतों के पहचान के हिसाब से वक्तव्य देते हैं और पाँच प्लस वोटों के जुगाड़ में रहते हैं, जिसके लिए कभी धर्म, कभी जाति तो कभी राष्ट्रवाद के मुद्दों से लामबंदी की जाती है।

चुनाव प्रबंधन यही है कि जिसमें जाति, धर्म और किसी भड़काऊ मुद्दे के बल पर अपना वोटबैंक (माने 10 वोट) सहेजा जाता है और जिताऊ स्विंग वोट (5 वोट) के लिए कोशिश की जाती है। सभी दल यही करते हैं, जिस चुनाव में जो दल यह कर लेते हैं, वे चुनाव जीत जाते हैं। इसे कहते हैं चुनाव का समीकरण।

यहाँ ध्यान दें कि लोकतंत्र में चुनाव क्यूँ कराए जाते हैं, यह ऊपर लिखा गया है। लेकिन जब चुनाव में जनता परिभाग नहीं करती, अपने उम्मीदवारों की पड़ताल नहीं करती, सांसद नहीं प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व पर मत करके आ जाती है और जब बहुधा वह एक जागरूक वोटर नहीं बल्कि महज वोटबैंक बनकर मत दे आती है तो दलों को विकास आदि की चिंता नहीं करनी होती, उन्हें हर पाँच साल बस चुनाव प्रबंधन व समीकरण साधने की चिंता करनी होती है।

यहाँ समझने वाली बात यह है कि चुनाव, राजनीतिक दलों के लिए गणित या समीकरण हो सकता है परंतु नागरिकों के लिए यह महज गणित नहीं है, हाँ नेतागण अवश्य चाहते हैं कि चुनाव हम नागरिकों के लिए भी मनोरंजन अथवा गणित व समीकरण बनकर रह जाए। हम नागरिकों के लिए चुनाव तो अवसर है अपनी आकांक्षाओं के निरूपण का, नागरिक समाज के एक महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में सरकार पर नियंत्रण रख सकें ताकि लोकतंत्र की मजबूती से अंततः समाज का आखिरी व्यक्ति मजबूत हो सके। यह सभी शुभाशायें धूल धूसरित हो जाती हैं जब चुनाव, जनता के बल पर नहीं अपितु धनबल और प्रबंधन के बल पर जीत लिए जाते हैं।

जब हम मतदान जागरूक होकर वोटर बनकर अधिक प्रतिशतता में करते हैं अथवा नोटा का विकल्प चुनते हैं तो चुनाव प्रबंधन और समीकरण को तमाचा लगाते हैं। एकबार फिर हम वोटबैंक से वोटर बनना चुनते हैं। एकबार फिर चुनाव की लगाम हम वातानुकूलित कक्षों में बैठे प्रबंधकों के हाथ से लेकर नागरिक के हाथ में सुरक्षित कर देते हैं। अधिक मत प्रतिशतता से अनिश्चितता बढ़ जाती है क्योंकि नए मतदाता का रुख पता नहीं होता है। इसीतरह नोटा का मतदाता यदि मत नहीं देता तो मत प्रतिशतता घटाता किन्तु उसने मत देकर प्रतिशतता बढ़ाई है और अपना मत मूल्य किसी को नहीं दिया है। गुप्त मतदान प्रणाली से नोटा और भी प्रभावशाली बन जाता है।

नोटा का प्रभाव देखने के लिए मैंने चार ग्राफ बनाए हैं, जिनके चित्र दिए गए हैं।

पहली स्थिति:

पहले चित्र में 100 मतदाताओं वाले निर्वाचन क्षेत्र में 60% मतदान हुआ है और कुल 5 उम्मीदवार मैदान में हैं ।इस क्षेत्र में मान लें यदि कि किसी मतदाता ने भी नोटा का विकल्प नहीं लिया है तो इस आधार पर 14 मत पाकर उम्मीदवार A विजयी है, जबकि बाकी उम्मीदवारों के मतों में केवल 1 मत का अंतर है । यदि मतदान का प्रतिशत कम हो और नोटा बीच में न हो तो चुनाव प्रबंधक, धर्म, जाति आदि का समीकरण लगाकर पूरे 100 में से केवल 14 मतों का प्रबंधन उनके लिए आसान होगा । यदि 10 वोट, वोटबैंक से आये और 4 वोट ही उन्हें स्विंग करना हो तो यह खासा आसान होगा।

दूसरी स्थिति:

दुसरे चित्र में नोटा का विकल्प लिया गया है और यह माना गया है कि प्रत्याशी A के मत, नोटा को सर्वाधिक पहुंचे हैं । यदि प्रत्याशी A से 4 वोट और अन्य सभी के 1-1 वोट नोटा को चले गए हों और मत प्रतिशतता उतनी ही हो (60%) तो आप देखें, चुनाव का परिणाम बदल गया है। प्रत्याशी B विजयी हो गया है।

तीसरी स्थिति:

तीसरे चित्र में केवल एक तब्दीली की गयी है। इसबार यह माना गया है कि प्रत्याशी B के मत, नोटा को सर्वाधिक पहुंचे हैं। यदि प्रत्याशी B से 4 वोट और अन्य सभी के 1-1 वोट नोटा को चले गए हों और मत प्रतिशतता उतनी ही हो (60%) तो आप देखें, चुनाव का परिणाम फिर बदल गया है, प्रत्याशी A पुनः विजयी हो गया है और साथ ही प्रत्याशियों के अंतिम स्थान में भी बदलाव हो गया है।

चौथी स्थिति:

चौथे चित्र में में बदलाव का पैटर्न भी बदल दिया गया है l इसबार 60% ही मतदान है और प्रत्याशी भी कुल 5 ही खड़े हैं किन्तु इसबार यह माना गया है कि प्रत्याशी A के मत, नोटा को सर्वाधिक पहुंचे हैं किन्तु प्रत्याशी A से 4 वोट और B, C, D से 1-1 वोट तथा प्रत्याशी E से कोई मत नोटा को नहीं पहुँचा है तो देखें एक बार फिर चुनाव परिणाम में बदलाव आ गया है और प्रत्याशी B विजयी हुआ है और प्रत्याशियों के अंतिम स्थान में भी बदलाव बेहद मजेदार ढंग से हो गया है। दूसरे स्थान पर C आ गया है और प्रत्याशी A, D एवं E के मत बराबर हो गए हैं।

निष्कर्ष:

ऊपर के चारों स्थितियों में नोटा की उपस्थिति-अनुपस्थिति का प्रभाव स्पष्ट है। निश्चित ही यही चार स्थितियाँ नहीं संभव हैं। अनगिनत परम्युटेशन-काम्बीनेशन बनेंगे और सभी स्थितियाँ अनिश्चितता को बढ़ाती हैं। आपने देखा होगा जहाँ एक-दो मतों से (एक- दो प्रतिशत से ) जीत-हार का अन्तर हो, वहाँ आने वाले फिर किसी स्तर के चुनाव में चुनाव प्रबंधकों का ध्यान नोटा प्रतिशतता पर अवश्य जायेगा, वे जरुर सोचेंगे कि ये सक्रिय मतदाता हैं, इन्हें बूथ तक खींचना नहीं पड़ता, ये नोटा इसलिए चुनते हैं क्योंकि प्रत्याशी का चरित्र ठीक नहीं है, तो यदि सभी समीकरणों के साथ बेदाग चरित्र का प्रत्याशी मैदान में उतारा जाय तो यकीनन स्विंग वोट से विजय संभव है।

देखिये, नोटा ने कितने आहिश्ते से सभी दलों पर दबाव बना दिया कि प्रत्याशी साफ चरित्र का हो l स्मरण रहे, नोटा का विकल्प किसी दल ने संघर्ष करके हम नागरिकों को नहीं दिया है। नोटा हमारे लोकतंत्र में आया है नागरिक समाज के संघर्षों से l अब इसका इस्तेमाल करके एक बार फिर हम अपने लोकतंत्र को मजबूत बना सकते हैं।

किसी चुनाव में स्थितियाँ जितनी ही अनिश्चित होंगी, दल और प्रत्याशी जनता और नागरिक के करीब होंगे। वोटबैंक बनकर जब हम चुनाव प्रबंधकों को चुनाव में निश्चितता देते हैं तो वे भी हमारी अवहेलना करते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि चुनाव में एक निष्क्रिय वोटर होकर वोट न देना और जागरूक होकर, सक्रिय होकर, पूरी पड़ताल के पश्चात् नोटा के विकल्प लेने में भारी अंतर है।

चूँकि नोटा, दलों के चुनाव प्रबंधकों के समीकरण को ध्वस्त करता है और एकबार फिर लोकतंत्र की लगाम नागरिक को वापस हाथ में देता है इसलिए ही दल नोटा के खिलाफ एकजुट होते देखे गए हैं।

(लेखक राजनितिक विश्लेषक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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