चंद्र भूषण
यह शीर्षक आपको अजीब और अटपटा लग सकता है। ऐसे समय में जब भारत सहित सारा विश्व कोरोना महामारी से लड़ रहा है तो हंसुआ की शादी में खुरपी के गीत का क्या तुक? मतलब ये कि अभी सारा बहस कोरोना केंद्रित होना चाहिए फिर यह राजनीतिक बहस क्यों?
दोस्तो ! यह जरूरी है। हम सबके दिमाग की बत्ती जलाने का इससे माकूल समय और क्या हो सकता है? जब आप घर में बैठे टीवी पर खासतौर पर इन्हीं दो नेताओं को देख-सुन रहे हैं। वह दोनों अगले क्षण क्या निर्णय ले लें और क्या घोषणा कर दें, इसकी जानकारी उनके चंद सलाहकार को छोड़कर शायद ही किसी को होती है।
समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, राजनीति शास्त्र और मनोविज्ञान की पढ़ाई के बाद कोई यह दावा करे कि वह मोदी और केजरीवाल के मस्तिष्क को पढ़ सकता है तो वह या तो झूठ बोल रहा होता है या फिर उसे सुपरमैन या आइंस्टिन के अवतार की संज्ञा दी जा सकती है।
मौजूदा दौर में दोनों नेता अपने-अपने वर्गों के मनोविज्ञान को समझ पाने में सक्षम हैं। वरना दिल्ली विधानसभा चुनाव में मतदाता केजरीवाल को भारी मैंडेट नहीं देता और जब कोरोना वायरस का दौर हो तो मोदी के एर आह्वान पर लोग थाली- ताली नहीं बजा रहे होते या मोमबत्ती दीया नहीं जला रहे होते!
दरअसल यह दोनों नेताओं की खासियत है। मोदी को मध्यम, शहरी और अधिकतर हिंदुओं का समर्थन प्राप्त है। यही कारण है कि मोदी के पिछले भाषणों पर गौर करें तो वह स्वच्छ भारत, अमीरों या सक्षम लोगों से एलपीजी की सब्सिडी छोड़ने और नोटबंदी से लेकर कोरोना महामारी तक वह टीवी देखने वाले या अखबार पढ़ने वाले अथवा सोशल मीडिया पर सक्रिय अमीर, मध्यम, शहरी या आम जनता को हर बार एक संदेश देने की मुद्रा में होते हैं और उन्हें राष्ट्र के प्रति उनकी जवाबदेही याद दिलाने की कोशिश करते नजर आते हैं।
उनकी यही मुद्रा आमजन को भाती है। दरअसल मोदी की भाव भंगिमा, बॉडी लैंग्वेज आमजन के बहुत भीतर प्रवेश कर जाता है। जबकि बेचारा गरीब, मजदूर, दलित और मुसलमान तबका उनसे ज्यादा प्रभावित नहीं होता। मोदी जब नोटबंदी के समय रूंधे गले से 50 दिन मांग रहे थे और किसी भी चौराहे पर बुलाने की बात कर रहे थे अथवा कोरोना महामारी पर लॉक डाउन से हुई असुविधा को लेकर लोगों से माफी मांग रहे थे, तो लोग उनके हर ‘मूव’ का समर्थन कर रहे थे। यह तबका उनसे सवाल नहीं करता है।
मोदी जानते हैं कि जो तबका उनसे सवाल करेगा वह है- गरीब मजदूर वर्ग। अपने भाषणों में वह कहीं भी गरीबों के विस्थापन का उल्लेख नहीं करते। हजारों नौकरी जाने, व्यापार खत्म होने की बात नहीं करते। वह हर बात पर राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए मोटिवेट करने की मुद्रा में होते हैं। उन प्रसंगों को छोड़ देते हैं जिस पर विरोधी, आलोचक, टिप्पणीकार हमलावर होते हैं। साथ ही उनके भाषणों को बचकाना कहकर खिल्ली उड़ाते हैं या मजाक उड़ाते हैं।
दूसरी प्रमुख बात। ऐसा नहीं है कि मोदी गरीबों की उपेक्षा करते हैं बल्कि वह जानते हैं कि किसी गरीब को क्या दिया जाना है? और कितना दिया जाना है? जिससे वह तबका खुश होता है और वोट देते समय वह याद रखता है। यह भी कि पहले की सरकारों में तो ऐसा नहीं मिलता था, जैसे फ्री रसोई गैस (एलपीजी), जनधन खाते में नगद राशि, किसान सम्मान राशि या मनरेगा में बढ़ोतरी, शौचालय, प्रधानमंत्री आवास आदि के माध्यम से वह प्रत्यक्ष रूप से मदद करते नजर आते हैं।
रही बात शहरी, अमीर, मध्यमवर्गीय मतदाताओं की, जो इन ‘फ्रीबीज’ से ऊपर है और यही वर्ग एजेंडा तय करता है और यह वर्ग भी उनसे सवाल नहीं करता है। अगर वह सवाल करता तो थाली- ताली क्यों बजाता? वह मोदी जी के आह्वान पर रात 9:00 बजे 9 मिनट के लिए बालकनी छत पर मोमबत्ती, दीया, टॉर्च या मोबाइल का फ्लैशलाइट नहीं जला रहा होता। यानी यह वर्ग आज्ञाकारी और राष्ट्रहित में अनुशासित बालक बनकर खुश है।
मोटे – मोटे तौर पर मोदी जी के भाषणों का आशय यह है कि वह किसी से वादा नहीं करते, हमेशा वह आपसे राष्ट्र हित के लिए कुछ त्याग कर आपको जवाबदेह बनने को कहते हैं। अपने किए किसी काम के लिए वह कभी खेद नहीं जताते या उन्हें अफसोस नहीं होता। अपने भाषणों में क्या कहना है, क्या एजेंडा हो, किसे संबोधित करना है और किसकी अनदेखी करनी है यह तय होता है।
अब बात केजरीवाल की। इन्हें पसंद या नापसंद करने वाले काल- परिस्थिति पर निर्भर होते हैं। यूं इन्हें गरीब, दलित, मुस्लिम तबका काफी पसंद करता है, लेकिन मध्यमवर्गीय चुनाव के वक्त जिधर पलड़ा भारी होता है उधर झुक जाता है।
हालांकि केजरीवाल के संबंध में यह कहा जा सकता है कि दिल्ली चुनाव के बाद कोरोना महामारी के दौरान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में मोदी के बाद सबसे ज्यादा उपस्थिति उनकी देखी जा रही है। यूं भी अभी आंखें मूंदकर मोदी जी का समर्थन करते देखे जा रहे हैं , जिससे उनके आलोचक, टिप्पणीकार अचंभित हैं, हतप्रभ हैं और इसे भी पर्दे के पीछे से कोई चाल समझ रहे हैं।
हालांकि केजरीवाल साफ-साफ कह चुके हैं कि इस महामारी के दौरान कोई राजनीतिक बातें नहीं होनी चाहिए और वह भारत के दो झंडे के बीच से मीडिया को अपना संबोधन करते हैं और कोरोना को हराने के लिए प्रधानमंत्री मोदी का समर्थन करते नजर आते हैं।
मोदी से जहां मध्यम वर्गीय उनसे सवाल नहीं करता बल्कि गरीब-मजदूर सवाल करता है, ठीक उसके विपरीत केजरीवाल से वही मध्यमवर्गीय सवालों की बौछार कर देता है, लेकिन मौजूदा दौर में वह अपने विपक्षियों के प्रहार को झेलते हुए सकारात्मक संदेश देते हैं कि इस समय कोरोना को हराना है इसलिए हम सभी आरोप झेल लेंगे लेकिन कुछ न कहेंगे। अपने कार्यकर्ताओं को भी ताकीद करते नजर आते हैं कि अपना लक्ष्य अर्जुन की तरह बनाए रखें। कुल मिलाकर मोदी के विपरीत केजरीवाल के भाषणों के निम्न सबक हैं।
पहला तो ये कि वह अपने भाषणों में जनता से वादा करते हैं, गारंटी देते हैं। दूसरी बात वह सभी वर्गों के लिए मुफ्त कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिलवाते हैं। वह समय-समय पर अपने किए अहितकारी कामों के लिए माफी या खेद भी प्रकट करते हैं। पहले वह हर बात पर मोदी पर हमलावर थे लेकिन अब प्रतिक्रिया नपी-तुली और मोदी जी या केंद्र सरकार को सहयोग करने की बात करते हैं।
उनके भाषणों में कोई एजेंडा नहीं होता और न ही किसी की उपेक्षा या अनदेखी होती है। सबको साथ लेकर राष्ट्र निर्माण की बात होती है। संक्षेप में मौजूदा दौर में ये दोनों नेता आज चर्चा के केंद्र बिंदु में हैं और शायद आगे भविष्य का रास्ता यहीं से निकलेगा।