- सूखे ही नहीं बल्कि ज्यादा बारिश और बाढ़ की वजह से से भी किसान करते हैं आत्महत्याएं
जुबिली न्यूज डेस्क
देश में किसानों की आत्महत्या के आंकड़े घटने के बजाए बढ़ते जा रहे हैं। हर साल सैकड़ों किसान फसल बर्बाद होने की वजह से आत्महत्या कर लेते हैं। हांलाकि अब तक किसानों की आत्महत्या की प्रमुख वजह सूखा बताया जाता रहा है पर ऐसा नहीं है।
किसान सिर्फ सूखे की वजह से आत्महत्या नहीं करते। आत्महत्या की और भी वजह है। एक नए अध्ययन से पता चला है कि सिर्फ सूखा ही नहीं बल्कि बाढ़ और पानी की अधिकता ये कारण 15 साल मे ऊपर उम्र के किसानों के आत्महत्या करने के ज्यादातर मामलों से जुड़े हैं।
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मेलमैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ, कोलंबिया यूनिवर्सिटी ऑफ एपिडेमियोलॉजी, एपिडेमियोलॉजी विभाग में रॉबिन ए रिचर्डसन और बायोस्टैटिस्टिक्स, और व्यावसायिक स्वास्थ्य, कनाडा में मैकगिल विश्वविद्यालय और आईआईटी गांधीनगर के शोधकर्ताओं ने मिलियन डेथ स्टडीज (एमडीएस) के नेतृत्व में एक स्टडी किया जिसमें यह खुलासा हुआ है।
शोधकर्ताओं ने 2001 और 2013 के बीच बेतरतीब ढंग से चुने गए ग्रामीण क्षेत्रों में 9456 आत्महत्याओं का विश्लेषण किया है जिसमें शोधकर्ताओं ने पाया कि सामान्य मौसम की तुलना में बेहद गीले फसल वाले मौसम में आत्महत्या के कारण होने वाली मौतों का प्रतिशत 18.7 प्रतिशत हो गया जबकि शुष्क फसल के मौसम में ये आंकड़ा 3.6 प्रतिशत तक रहा।
शोधकर्ताओं ने 2001 से 2013 के बीच बेतरतीब ढंग से चयनित ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लगभग 80.5 लाख लोगों के बीच होने वाली मौतों की निगरानी की। शोधकर्ताओं ने ग्रामीण क्षेत्रों को 5000 से कम आबादी वाले लोगों को चुना, जिनका घनत्व 1000 प्रति वर्ग मील से कम है और जहां 25 प्रतिशत से अधिक पुरुष कृषि कार्य में लगे हैं। पानी की उपलब्धता को मानकीकृत वर्षावन इवापोट्रांस्प्रेन्स इंडेक्स (एसपीआई) के साथ मापा गया जिसमें एक निर्दिष्ट समय अवधि के दौरान वर्षा की मात्रा और संभावित वाष्पीकरण के बीच के अंतर को लेकर सामने आया।
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आत्महत्या के लिए कौन सा तरीका इस्तेमाल किया
शोधकर्ताओं की टीम ने 1 जून से 31 मार्च तक की पूरी बढ़ती अवधि के लिए जिलों के तापमान और बारिश के आंकड़ों का उपयोग करते हुए एसपीआई मूल्यों की गणना की। टीम ने पाया कि आत्महत्या के तरीको में जहर खाना, फांसी लगाना, जलाना और गला घोंट कर मरना सामान्य थे।
इसी अवधि के दौरान गैर-आत्महत्या से होने वाली मौतों में बहुत मामूली परिवर्तन देखा गया। ये भी पता चला कि वे पानी की उपलब्धता में चरम सीमा से नहीं जुड़े थे।
नवंबर में विज्ञान प्रत्यक्ष पर्यावरण अनुसंधान पत्रिका में प्रकाशित होने वाले अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया, “हमारे ज्ञान के अनुसार, हमारे अध्ययन से पहले किसी भी अध्ययन ने दोनों चरम सीमाओं, आत्महत्या और पानी की उपलब्धता के बीच के किसी भी लिंक के होने की जांच नहीं की है। हमने पाया शायद आश्चर्यजनक रूप से अत्यंत पानी वाली परिस्थितियाँ, अत्यंत शुष्क परिस्थितियों की तुलना में आत्महत्या से अधिक मजबूती से जुड़ी हुई थीं। हमारे परिणाम कई संवेदनशीलता विश्लेषणों के लिए मजबूत हैं।”
आईआईए गांधीनगर के सिविल इंजीनियरिंग, एसोसिएट प्रोफेसर और सह-लेखक ने कहा, “बहुत पानी वाली स्थिति फसलों के लिए बहुत हानिकारक हो सकती है क्योंकि परिस्थितियों को संभालने के लिए संसाधम कम होते हैं। सूखे में सिंचाई की कमी हो सकती है, अधिक पानी की परिस्थितियां- जैसे बाढ़ या मूसलाधार बारिश, ऐसी परिस्थितियां पैदा कर सकती हैं जिन्हें संभाला नहीं जा सकता और ये फसलों को अधिक नुकसान पहुंचाती हैं।”
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो से एकत्र किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि ज्यादा नुकसान और कर्ज का न उतरना किसानों में होने वाली आत्महत्याओं में मुख्य कारण हैं। कृषि क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के लिए खराब फसल का होना विनाशकारी साबित हो सकता है।
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इस मामले में सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक रामंजनेयुलु जीवी कहते हैं, “यह अध्ययन बताता है कि जलवायु परिवर्तन का कृषि पर क्या प्रभाव पड़ता है। किसान सीधे तौर पर पर्यावरण पर निर्भर हैं। ऐसे लोगों की तीन श्रेणियां हैं जो विशेष रूप से कमजोर हैं।
वह कहते हैं जो बाढ़ प्रवण या बारिश वाले क्षेत्रों में हैं, छोटे और सीमांत किसान, महिलाओं और दलितों जैसे सामाजिक रूप से वंचित समूह। जलवायु परिवर्तन एक वास्तविकता है और हम फ्लैश फ्लड और फ्लैश ड्रॉट दोनों देख रहे हैं। कुछ दिनों में अत्यधिक बारिश होती है और कई दिनों तक बारिश नहीं होती है। इससे सीमांत किसानों का जीवन उल्टा हो जाता है।
जीवी कहते हैं कि बीमा कंपनियों को प्रभावित लोगों की सेवा करनी चाहिए और पीएम किसान योजना को कृषि श्रमिकों की सभी श्रेणियों के लिए उपलब्ध होना चाहिए।
इस वर्ष की शुरुआत में जारी पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (एमओईएस) की एक रिपोर्ट “भारतीय क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का आकलन” के अनुसार, 1950 के बाद से केंद्रीय की तुलना में अत्यधिक भारी बारिश की घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मौसम विज्ञान द्वारा 2017 में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला है कि 1950 और 2015 के दौरान पश्चिमी तट और मध्य भारत के साथ चरम बारिश में तीन गुना वृद्धि हुई है।