जुबली न्यूज़ डेस्क
नयी दिल्ली. फिनलैंड की लापीनराटा-लाटी यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलॉजी (एलयूटी) और दिल्ली स्थित क्लाइमेट ट्रेंड्स के आज जारी एक अध्ययन में दावा किया गया है कि वर्ष 2050 तक उत्तर भारत की ऊर्जा प्रणाली को 100 फीसद अक्षय ऊर्जा आधारित प्रणाली में तब्दील किया जा सकता है।
वर्ष 2020 में भारत में 825 मैट्रिक टन ऑफ कार्बन डाईऑक्साइड इक्वेलेंट ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2050 तक उत्तर भारत में ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) के उत्सर्जन की मात्रा को शून्य किया जा सकता है, वहीं रोजगार के 50 लाख नये अवसर भी पैदा किये जा सकते हैं। इस अध्ययन को आज इंटरनेशनल सोलर अलायंस द्वारा आयोजित वर्ल्ड सोलर टेक्नॉलॉजी समिट में पेश किया गया।
यह अध्ययन अपनी तरह का पहला मानकीकरण है जिसमें भविष्य की सबसे किफायती ऊर्जा प्रणाली का खाका तैयार करने के लिये भू-स्थानिकतथा घंटेवार मांग का विश्लेषण किया गया है।
क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा कि भारत की अर्थव्यवस्था काफी हद तक परंपरागतजीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा पर निर्भर करती है लेकिन इस निर्भरता के लिए अब पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के नुकसान रूपी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। यह अध्ययन हमें साफ तौर पर बताता है कि भारत कोविड-19 महामारीके बाद पैदा हालात में हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई कर रहा है लिहाजा एकीकृत ऊर्जाप्रणाली की सोच को साकार करना संभव है और यह समय की मांग भी है।
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उत्तरभारत में 63% बिजली कोयले से पैदा की जाती है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में भारत ने ऊर्जा क्षेत्र को कार्बन से मुक्त कराने की दिशा में प्रगति की है लेकिन उत्तर भारत के कुछ राज्य अब भी इस काम में पिछड़े हुए हैं। लॉकडाउन के दौरान जब बिजली की मांग में उल्लेखनीय गिरावट आई थी तब ऊर्जा आपूर्ति मिश्रण में अक्षय ऊर्जा स्रोतों का दबदबा बढ़ा था क्योंकि कोयला आधारित बिजली घरों को प्लांट लोड फैक्टर को संभालने में मुश्किल हो रही थी। यह किफायती अक्षय ऊर्जा को एनर्जी कैरियर के तौर पर लेकर विद्युतीकरण को बढ़ाने का सही समय है।
रिपोर्ट के मुख्य लेखक मनीष राम ने कहा ‘यह अध्ययन हमें बताता है कि कम खर्च वाली अक्षय ऊर्जा किस तरह भारत में ऊर्जा के वाहक के तौर पर उभर सकती है। यह काम ऊर्जा, ऊष्मा, परिवहन तथा उद्योग क्षेत्रों में एक एकीकृत ऊर्जा प्रणाली के जरिये होगा। यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है जो बिजली, परिवहन और ऊर्जा का इस्तेमाल करने वाले अन्य क्षेत्रों के लिये आर्थिक रूप सेसम्भव एकीकृत ऊर्जा प्रणाली मॉडल उपलब्ध कराता है। इससे अधिक रोजगार, बेहतर औद्योगिकीकरण और स्वच्छ वातावरण जैसे अनेक फायदे होंगे।’
वर्ल्ड सोलर टेक्नोलॉजी समिट में इस अध्ययन को पेश करने वाले और एलयूटी यूनिवर्सिटी में सोलर इकॉनमी के प्रोफेसर क्रिश्चियन ब्रेयर ने कहा “हाल के वर्षों में दुनिया भर में सौर तथा वायु ऊर्जा की कीमतों में बहुत तेजी से गिरावट हुई है और बैटरी स्टोरेज उपलब्ध होने से ऊर्जा प्रणाली में अक्षय ऊर्जा की भागीदारी बहुत बढ़ने की संभावना है, जैसा कि इस अध्ययन में भी कहा गया है।
उत्तर भारत में अक्षय ऊर्जा और बैटरी स्टोरेज की सुविधा ऊर्जा क्षेत्र की रीढ़ बन सकतीहै। “यह अध्ययन जाहिर करता है कि कैसे दुनिया के सबसे बड़े मेट्रोपॉलिटनक्षेत्रों में शुमार किए जाने वाले दिल्ली एनसीआर को इस सदी के मध्य तक अक्षयऊर्जा से लैस किया जा सकता है। ‘बिल्डिंगब्लॉक्स ऑफ इंडियाज एनर्जी फ्यूचर-नॉर्थ इंडियाज एनर्जी ट्रांजिशन बेस्ड आनरिन्यूएबल्स’ शीर्षक वाले इस अध्ययन में इस बात का प्रारूपीकरण किया गया है कि अक्षय ऊर्जा मेंरूपांतरण न सिर्फ तकनीकी और वित्तीय रूप से संभव है बल्कि उत्तर भारत की ऊर्जाप्रणाली की जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता खत्म किए जाने से वर्ष 2050 तक रोजगार के 50 लाख अवसर पैदा होंगे, जबकि 2020 में मौजूदा जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जाप्रणाली में करीब में करीब 30 लाखरोजगार पैदा हुए थे।
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इस रिपोर्ट में भारत द्वारा ग्रीन हाउस गैसों के भारी उत्सर्जन, बिजली की बढ़ती मांग और पानी केअत्यधिक दोहन के गंभीर खतरे का भी जिक्र किया गया है। साथ ही देश के लिए एक संभावित रोड मैप भी दिया गया है ताकिपेरिस समझौते के तहत उत्सर्जन में कमी लाने के लक्ष्यों को पूरा किया जा सके। इस रिपोर्ट में भारत के 8 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों जम्मूकश्मीर (लद्दाख सहित), हिमाचल प्रदेश, पंजाब और चंडीगढ़,उत्तराखंड, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश पर ध्यान केंद्रित किया गया है। अध्ययन में बिजली पर निर्भर रहनेवाले क्षेत्रों जैसे परिवहन, ऊर्जा, ऊष्मा इत्यादि की बिजली सम्बन्धी आवश्यकताओं को जीवाश्म ईंधन और परमाणु ऊर्जा से इतर अक्षय ऊर्जा में रूपांतरित करने काखाका भी पेश किया गया है।
आईईएफए में एनर्जी फिनांसस्टडीज के निदेशक टीम बकली ने कहा “यह जाहिर है कि सौर ऊर्जा नई ऊर्जा आपूर्ति का सबसे किफायती स्रोत है और ऐसा नजरियाहै कि आने वाले दशकों में जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता में सालाना 10% की कमी लाना जारी रखा जाए, ताकि इसके वित्तीय पहलू को बेहद मजबूत किया जा सके। यह भारत के लिए बहुत बड़ा आर्थिक अवसर पैदा करेगा, जिसके तहत भारी मात्रा में आयात किए जाने वाले जीवाश्म ईंधन से निर्भरता घटेगी। साथ ही इससे मुद्रा को ज्यादा स्थिरता मिलेगी और महंगाई पर भी सकारात्मक असर पड़ेगा।
इसमें शामिल प्रौद्योगिकियां, हिंदुस्तान के मामले में आज भी सिद्ध और व्यावसायिक रूप से व्यावहारिक नहीं है लेकिन पिछले दशक ने प्रौद्योगिकी नवाचार की दर और एक गहन ऊर्जा प्रणाली व्यवधान को विस्तार से बयान किया है जो अब अच्छी तरह से चल रहा है। इसकी अपस्फीति संबंधी शक्तियों ने इस नये-नवेले व्यवधान को लाज़मी बना दिया है और अवसर भी व्यापक हुए हैं। जैसा कि इस रिपोर्ट में कहा गया है।
प्रमुख निष्कर्ष
जहां वर्ष 2020 से 2035 के बीच क्षेत्र की प्राथमिक ऊर्जा की मांग करीब 3000 टेरावाट/घंटा (टीडब्ल्यूएच) से करीब दोगुनी होकर वर्ष 2050 तक 5200 टीडब्ल्यूएच (ऊर्जा क्षेत्र में तीव्र विद्युतीकरण के कारण) हो जाएगी। वहीं, ऊर्जा क्षेत्र में बिजली की लेवलाइज्ड कॉस्ट (एलसीओई) 2020 में 5325 रुपए/मेगावाट (71 यूरो/मेगावाट) के मुकाबले वर्ष 2050 तक करीब 2100 रुपए/मेगावाट (28 यूरो/मेगावाट) तक गिर जाएगी। अक्षय ऊर्जा की बढ़ती भागीदारी के कारण ईंधन की कीमतों में गिरावट एक प्रमुख कारक है।
अक्षय ऊर्जा पर निर्भरता को 100 फीसद तक किए जाने की स्थिति में राज्यों के बीच बिजली के ट्रांसमिशन के दौरान होने वाली ऊर्जा की हानि को 30% से घटाकर 17% तक लाया जा सकता है। ऐसा स्रोत रूपांतरण में दक्षता की वजह से हासिल होने वाले बड़े फायदे के कारण होगा। सोलर पीवी ऊर्जा के बेहद प्रभावशाली स्रोत के रूप में उभर रहे हैं और वर्ष 2030 में कुल उत्पादित बिजली में अक्षय ऊर्जा की भागीदारी 50% से बढ़कर 2050 तक करीब 97% हो जाएगी। यह यूटिलिटी स्केल और प्रोज्यूमर बैटरी एनर्जी स्टोरेज से लैस है वर्ष 2050 तक ऊर्जा भंडारण में इसकी हिस्सेदारी 80% से अधिक हो जाएगी।
अगर जीवाश्म ईंधन से चलने वाले वाहनों की जगह इलेक्ट्रिक वाहन इस्तेमाल किए जाएं और उनमें सिंथेटिक ईंधन जैसे कि हाइड्रोजन और फिशर ट्राप्स फ्यूल और सस्टेनेबल बायोफ्यूल का इस्तेमाल किया जाए तो यात्री किराया और माल ढुलाई की कीमतें भी गिरेगी हालांकि विमानन और रेल के मामले में यह लागतें स्थिर रहेंगी। सोलर पीवी और वायु ऊर्जा पर निर्भरता की स्थिति में समुद्र के पानी के अलवणीकरण की एलसीओई में मौजूदा 83 रुपये/घन मीटर (1.1 यूरो/घन मीटर) से घटकर वर्ष 2050 में 53 रुपये/घन मीटर (0.7 यूरो/घन मीटर) रह जाएगी।
कोयले के बजाय सोलर पीवी से बिजली पैदा किए जाने को तरजीह देने पर वर्ष 2030 के बाद रोजगार के दोगुने से ज्यादा अवसर (16 लाख 50 हजार) पैदा किए जा सकेंगे। कुल मिलाकर अक्षय ऊर्जा पर 100 फीसद निर्भरता होने से खत्म होने वाले रोजगार अवसरों के मुकाबले कहीं ज्यादा नए मौके पैदा होंगे। इससे क्षेत्र में जल सुरक्षा को भी बढ़ावा मिलेगा। साथ ही यह पावर टू एक्स एप्लीकेशंस के लिए इलेक्ट्रोलाइजर पैदा करने में भी प्रमुख भूमिका निभाएगा। इसमें सिंथेटिक ईंधन का उत्पादन करने के लिए हाइड्रोजन का इस्तेमाल भी शामिल है। वर्ष 2050 में हर राज्य में एलसीओई अलग-अलग होगी। उत्तर-प्रदेश, जम्मू कश्मीर और लद्दाख में एलसीओ जहां 1650 रुपए/मेगावाट होगी। वहीं, दिल्ली और पंजाब में यह 4200 रुपए प्रति मेगावाट रहेगी। वर्ष 2050 तक औसत क्षेत्रीय लागत करीब 2100 रुपए/मेगावाट रहेगी।
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