कृष्ण मोहन झा
बिहार में नौवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले नीतीश कुमार के बारे में तो अब राजनीतिक विश्लेषकों को भी यह याद रखने में कठिनाई हो रही है कि अभी दो दिन पहले तक जो नीतीश कुमार बिहार में महागठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री थे वे अब राज्य में एनडीए सरकार के मुख्यमंत्री बन गये हैं।
उन्होंने पहले महागठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और फिर अपनी पार्टी जनता दल यूनाइटेड को इस शर्त पर भाजपा नीत एनडीए में शामिल कर दिया कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वही बैठेंगे।
भाजपा ने उनकी यह शर्त मानकर उन्हें नवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का रिकॉर्ड बनाने का अवसर तो उपलब्ध करा दिया परंतु इस सौदे में कौन कितने फायदे में रहा यह आगे आने वाला समय ही बताएगा लेकिन यह तो तय है कि नीतीश कुमार और भाजपा, दोनों ने ही अपने राजनीतिक लाभ के लिए यह सौदा करते समय इस कड़वी सच्चाई को नजरअंदाज करने से कोई परहेज नहीं किया किया कि इस सौदे के कारण जनता की नजरों में उनकी विश्वसनीयता भी दांव पर लग सकती है।
दरअसल नीतीश कुमार की विश्वसनीयता तो बहुत पहले समाप्त हो चुकी थी, अब यह भाजपा को सोचना है कि नीतीश कुमार से बार बार धोखा खाने के बावजूद उनके साथ एक बार फिर गठजोड़ करके उन्हें मुख्यमंत्री पद सौंपने का फैसला क्या बिहार की जनता को रास आएगा । ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा ने आगामी लोकसभा चुनावों में बिहार में अपनी संभावनाओं को बलवती बनाने की मंशा से नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड को एनडीए में पुनः शामिल करने का फैसला किया है हिस्सा है जिसके तहत उसने नीतीश कुमार को नौवीं बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का अवसर प्रदान किया है।
नीतीश कुमार भी इस कड़वी हकीकत से भली भांति वाकिफ हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में अपनी इस नौवीं पारी में वे भाजपा से बड़े भाई का वह सम्मान नहीं पा सकेंगे जो पहले उन्हें मिला करता था लेकिन कुर्सी के मोह ने उन्हें इस तरह जकड़ लिया है कि वे अपना राजनीतिक वजूद ही भाजपा के पास गिरवी रखने के लिए सहर्ष तैयार हो गए हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस बार बिहार की एनडीए सरकार में भाजपा बड़े भाई की भूमिका में होगी और नीतीश कुमार उसकी अंगुली पकड़कर ही कदम आगे बढ़ा सकेंगे लेकिन इस बार नीतीश कुमार को अपने समर्थन से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा कर भाजपा भी असहज महसूस कर रही है और वह यह तर्क देकर अपना बचाव करने की स्थिति में भी नहीं है कि राजनीति संभावनाओं को खेल है जैसा कि अतीत में नीतीश सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे सुशील कुमार मोदी ने पिछले दिनों कहा था।
गौरतलब है कि जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन में शामिल होकर सरकार बनाई थी तब उन्होंने कहा था कि वे जीवन में अब कभी भी भाजपा से संबंध नहीं रखेंगे। यही बात नीतीश कुमार के लिए भाजपा की ओर से कही गई थी लेकिन दोनों ने ही उस कहावत को चरितार्थ कर दिया है कि राजनीति में स्थायी मित्रता और स्थायी शत्रु जैसे शब्द कोई मायने नहीं रखते।
नीतीश ने नौवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद भले ही फिर वही जुमला दोहराया है कि जहां थे वहीं वापस आ गये हैं ,अब यहां से कहीं जाने का सवाल ही नहीं उठता परंतु वे स्वयं जानते हैं कि अब उनकी विश्वसनीयता समाप्त हो चुकी है।
बहरहाल, अब यह उत्सुकता का विषय है कि क्या भाजपा ने उन्हें आखिरी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का अवसर प्रदान किया है। सवाल यह उठता है कि अभी तक तो विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी जदयू को भाजपा या राजद से कम सीटें मिलने के बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का सौभाग्य मिलता रहा है परन्तु क्या आगे भी ऐसा होता रहेगा। ऐसी संभावना दूर दूर तक नजर नहीं आती क्योंकि अब सुशासन और आत्मानुशासन, दोनों को उन्होंने ताक पर रख दिया है। नीतीश कुमार को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि भाजपा ने इस बार किसी विशेष रणनीति के तहत ही मुख्यमंत्री बनाया है।
सवाल यह उठता है कि क्या नीतीश कुमार इतने भोले भाले हैं कि वे भाजपा की रणनीति का अनुमान लगाने में असमर्थ हैं। ऐसा मान लेना गलत होगा। फिर एक बार एनडीए में शामिल होने के अपने फैसले के पक्ष में उनका तर्क यह है कि वहां ( महागठबंधन सरकार) सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था।
यह बात कभी हद तक सही हो सकती है क्योंकि उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव उस सरकार में अपना कद नीतीश कुमार से ऊंचा दिखाने की कोशिश में लगे हुए थे। दरअसल को यह आशंका सताने लगी थी कि तेजस्वी यादव स्वयं मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं इसलिए उन्होंने मुख्यमंत्री बने रहने की महत्वाकांक्षा से भाजपा का द्वार खटखटाने में अपनी भलाई समझी। भाजपा ने अपना राजनीतिक हित साधने के लिए नीतीश कुमार की शर्त स्वीकार कर ली।
एनडीए में शामिल होने का दूसरा बड़ा कारण यह है कि विपक्षी दलों के इंडिया एलायंस के संयोजक का पद अर्जित करने में उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। कांग्रेस उनकी यह शर्त स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी।
गौरतलब है कि आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा को हराने की मंशा से विपक्षी दलों का गठबंधन बनाने की पहल भी नीतीश कुमार ने ही की थी और उसके लिए पहली बैठक उन्होंने पटना में ही बुलाई थी परन्तु बाद में उन्हें ऐसा लगा कि इंडिया एलायंस में वे हाशिए पर पहुंच गए हैं इसलिए उन्होंने ऐसा रास्ता चुना जिसमें उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी भी न छोड़ना पड़े और विपक्ष से नाता भी टूट जाए।
उधर भाजपा को तो अपने चुनावी हित साधने के लिए पहले से ही नीतीश कुमार की जरूरत महसूस हो रही थी इसलिए नीतीश कुमार को पाला बदलने में कोई दिक्कत नहीं हुई। दोनों एक दूसरे के प्रति अपनी कटुता भुलाकर ऐसे गले मिल गये जैसे मन से कभी अलग ही नहीं हुए थे। अब देखना यह है कि क्या इस दोस्ती का हश्र भी वही होगा जो अब तक होता रहा है।
(लेखक राजनैतिक विश्लेषक है)