विनायक सिन्हा
9 दिन मैं शराब नहीं पीऊंगा। मांस नही खाऊंगा। शेव भी नही करूँगा। रोज सुबह जल्दी उठूंगा, नारी के नौ देवी रूपों की 9 दिन पूजा करूँगा। शक्ति मांगूंगा देवी से। व्रत रखूंगा।
घर-बाहर की तमाम स्त्रियाँ सोचती हैं, पुरुष ऐसा होता तो कितना भला होता, कितना अच्छा होता। स्त्री के सम्मान की बात करता, उसके देवी स्वरूप को भीतर उतारता और स्त्री ऐसे समाज में तमाम भय से मुक्त हो जाती। उसे हर मुसीबत से वह पुरुष बचा ले जाता जो नारी के देवी स्वरूप को सत्य मानता है।
वस्तुस्थिति यह है कि माताएं अपनी बेटियों को bad touch, good touch की ट्रेनिंग दे रही हैं। उन्हें टच फीलिंग की वीडियो दिखा दिखा कर समझा रही हैं। क्या समझा रही हैं वे। थोड़ा ध्यान दीजिये। वे अपनी बच्चियों को समझा रही हैं कि कुत्ते, भालू, शेर, भेड़िए से तुम्हे इतना खतरा नही जितना पुरुष से है तुम्हें।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ने 1998 में कहा था कि 2010 तक महिलाओं पर अपराध की वृद्धि दर भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर को लांघ जाएगी। आज 2018 की स्थिति यह है कि महिलाओं पर अत्याचार, हमलों, शोषण, बलात्कार, कुपोषण स्वास्थ्य में हम विश्व के 10 सबसे बुरे देशों में शुमार हैं। पुलिस में अधिक़तम मामले नही पहुँच पाते बावजूद इसके महिलाओं पर यौन अपराध के मामलों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है।
हर एक घन्टे में देश की किसी महिला पर यौन हमला हो रहा है। पुलिस में तो अधिकतर नृशंस घटनाएं ही दर्ज होती है और हैरान होंगे सुनकर कि नृशंस अपराधों में भी गुणात्मक वृद्धि हुई है बावजूद इसके कि सख्त कानून हैं और पढ़ लिख रहा है समाज। तो क्या समझा जाए कि स्त्री को देवी समझने के ढोंग के बीच हम ऐसे ही बने रहेंगे?
15 से 45 बरस की 88 प्रतिशत स्त्रियाँ एनीमिया की शिकार हैं। क्या आपको यह आंकड़े पढ़कर हैरत नही होती? मासिक चक्र में भी उन्हें उसी प्रकार काम करना पड़ता है जिस प्रकार बाकी दिनों में करती हैं। काम सभी करवाते हैं हम उनसे उन दिनों में भी, बस मंदिर नहीं जाने देते, बस पूजा स्थल से दूर कर देते हैं। गज्जब ही तो करते हैं हम।
महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर इस देश में कभी स्वास्थ्य शिविर नहीं लगते। कभी फ्री कैम्प नहीं लगते कभी फ्री दवाईयां नही दी जाती जबकि स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े कहते हैं कि आधी महिलाएं डिप्रेशन, एनीमिया, सरदर्द, नजला, बच्चेदानी के रोगों से बुरी तरह पीड़ित हैं और रोग के प्रति लापरवाही का शिकार हैं। हम सड़क के बीचो-बीच लेकिन तंबू गाड़ कर लंगर लगायेंगे, डीजे बजाएँगे और उत्सवमयी होने के तमाम पलों का आनंद मनाएंगे , जहां हमें कोई ठोस काम करना पड़ जाए, हमारे चेहरे की भाव भंगिमा बदल जाती है।
इसी मुल्क में आज भी दहेज के लिए हर बरस 5 हजार स्त्रियाँ जान गवाँ बैठती हैं, कितने ही अदृश्य डर हैं जो स्त्री को दबाए ही रखते हैं तमाम उम्र। उसका अपना कोई दोष ना होने पर भी उसे डाउन करने की दोष युक्त सोच इसी देवी पूजक मुल्क में सबसे ज्यादा है।
देश के अस्सी प्रतिशत राज्यो में लड़का लड़की अनुपात में लड़के ज्यादा हैं, लड़कियां कम हैं। एक राज्य में तो आसपास के कई गांवों में लड़की ही पैदा होने नही दी गयी। फिर से पढ़िए यह पंक्ति कि लड़की पैदा ही होने नहीं दी गयी। कितने निरीह लगते हैं हम अष्टमी के दिन लड़कियां तलाशते।
स्त्री में रेसिस्टेन्स का गुण पुरुष से बेहतर है। प्राकृतिक रूप से ही वह पुरुष से ज्यादा सक्षम है लेकिन एक पूरी साजिश के तहत स्त्री को अबला कह कह कर उसके अवचेतन में ही यह बात बैठा दी गयी कि तुम कमजोर हो। जैसे बचपन से हाथी के पैर में जंजीर बांध दो तो वह तुड़वा नही सकता उसके बाद वह उस जंजीर से हार मान लेता है औऱ ताकत बढ़ने पर भी उस जंजीर को तोड़ने का प्रयास नहीं करता। स्त्री को भी ऐसी ही अदृश्य जंजीरों में कस दिया है और लगातार कहा जा रहा है कि जंजीरें ही जीवन है। जंजीर में बंधी स्त्री कभी दीखती हैं हमे अपने घर? नही दिखाई देती। जंजीरे तो हमारी सुविधा हैं। हम क्यो देखें उन्हें जानबूझकर।
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यह कमाल का सांस्कृतिक मुल्क है। कमाल के अभिनय से पारंगत लोग हैं हम। नौ दिन अभिनय को पूरी तन्मयता से निबाहेंगे,ताकत बटोरेंगे और दसवें दिन उसी स्त्री पर टूट पड़ेंगे नौ दिन जिसकी पूजा में कसीदे गा रहे थे हम।
मैं आपको नवरात्रों की शुभकामनाएं देना चाहती हूं लेकिन आंकड़े, इतिहास और वस्तुस्थिति बताती है कि आप नवरात्र मनाते हैं सिर्फ, नवरात्र जीते नहीं। मैं आपकी उत्सवधर्मिता के खिलाफ नही हूँ। बल्कि आपकी उत्सवधर्मिता स्त्री के खिलाफ है।