Saturday - 2 November 2024 - 7:05 PM

नये कलाकारों की कमर तोड़ गया लॉक डाउन, ख़्वाब हो गया लाईट-कैमरा एक्शन

जुबिली न्यूज़ डेस्क

लखनऊ. कोरोना वायरस ने जहाँ दुनिया को थाम कर रख दिया है वहीं फिल्मों की रुपहली दुनिया में भी रौशनी कम कर दी है. लॉक डाउन के दौर में लाईट-कैमरा-एक्शन की आवाजें भी सुनाई देना बंद हो गई हैं. फिल्मों की शूटिंग बंद हुई है तो इसका सबसे बुरा असर मेकअप मैन, लाइटमैन और रोजाना पारिश्रमिक पाने वाले नए कलाकारों के सामने दिक्कतों के पहाड़ खड़े कर दिए हैं.

डेली वेजेज़ पर काम करने वाले एक कलाकार ने बताया कि लॉक डाउन के शुरुआती दौर में जब काम खत्म हुआ था तब फ़िल्मी दुनिया में स्थापित लोगों ने मदद के लिए हाथ भी बढ़ाए थे लेकिन आखिर कोई किसी की मदद कब तक करेगा, वह भी तब जब दोबारा काम शुरू होने की उम्मीदें भी अनिश्चित हों.

मुम्बई में उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के बड़ी संख्या में थियेटर आर्टिस्ट हैं. थियेटर में अपनी पहचान बना लेने के बाद मुम्बई में जाकर अपना भविष्य बनाने का सपना लेकर लखनऊ के एक आर्टिस्ट डेढ़ दशक पहले मुम्बई गए थे. मुम्बई में पैर जमाने के लिए उन्होंने स्क्रिप्ट लिखने का काम शुरू किया. स्क्रिप्ट का काम चल निकला तो उनके पास यह सोचने की फुर्सत भी नहीं रह गई कि वह तो हीरो बनने आये थे.

लखनऊ के कुछ कलाकारों ने दस-बारह साल में ही मुम्बई में रहने के लिए फ़्लैट की व्यवस्था कर ली है. वह वहां कई-कई शिफ्टों में काम करते हैं और इतना कमा लेते हैं जितना अपने शहर में साल भर में नहीं कमा पाते.

मुम्बई में फिल्म बनाने वालों को ऐसे बहुत से कलाकारों की ज़रुरत होती है जो चार-पांच हज़ार रुपये रोज़ के पारिश्रमिक पर काम कर लें. जितने दिन का काम होता है उतने दिन का पैसा मिल जाता है और कलाकार दूसरी फिल्म की शूटिंग में व्यस्त हो जाता है. इतने पैसों में काम आराम से चल जाता है.

बिहार के राहुल लम्बे समय से पांच हज़ार रुपये रोज़ के पारिश्रमिक पर काम कर रहे थे. लगातार काम के बावजूद भी वह कुछ बचा नहीं पाए क्योंकि फिल्मों में अभिनय के लिए अपने शरीर को फिट भी रखना होता है. जिम जाना होता है. अच्छा खाना होता है. लॉक डाउन में जिम बंद हो गए. खाने का सामान मिलना भी मुश्किल हो गया. रोज़ की कमाई खत्म हो गई तो धीरे-धीरे जेब भी खाली हो गई. अब घर वापस लौट जाने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा है.

नए कलाकारों की कमाई को घटाने का इंतजाम हालांकि लॉक डाउन से पहले ही हो गया था. वेब सीरीज शुरू हुईं तो उसमें काम करने के एवज में तीन हज़ार रुपये ही रोज़ मिलते थे. पांच हज़ार रूपये से कमाई घटकर तीन हज़ार रोज़ की हो गई लेकिन खर्च पांच हज़ार वाले ही बने रहे. इसके बावजूद काम को न नहीं किया जा सकता क्योंकि काम है तभी पैसा भी है. कम-ज्यादा की बहस तो तब हो जब आपके पास दोनों ऑप्शन हों. दिक्कत यह है कि नामचीन लोग भी वेब सीरीज की तरफ ही मुड़ गए.

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लॉक डाउन के बाद काम बंद हो जाने के बाद नए कलाकार घर जाने से भी इसलिए डरे हुए हैं कि नज़रों से हट जाने के बाद फिल्म बनाने वाले उन्हें भूलने में वक्त नहीं लगायेंगे लेकिन अगर यहाँ बने रहे तो दिक्कत यह होगी कि भूख से मर जाने का खतरा भी खड़ा हो जाएगा.

एक कलाकार ने बताया कि नए लोगों की मदद शुरू में फ़िल्मी दुनिया के कई लोगों ने की भी थी लेकिन अब कोई पूछने वाला नहीं है. सच बात तो यह है कि अब कोई चाय के लिए भी पूछने वाला नहीं है. हालात इतने मुश्किल हो गए हैं कि ज़िन्दगी की गाड़ी पटरी पर आने तक के लिए अपने घर लौट जाना वक्त की मांग है. हालात ठीक हो जायेंगे तो वह काम पर फिर से लौटेंगे.

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