यशोदा श्रीवास्तव
नेपाल में राजशाही का अंत हुए तकरीबन डेढ़ दशक बीतने को है लेकिन नेपाल न तो विरोध और प्रर्दशनों से मुक्त हो पाया और न ही लोकतंत्र ही मजबूत हो सका। संविधान सभा के चुनाव के बाद अब दूसरी बार आम चुनाव भी होने जा रहा है, नेपाल का अपना संविधान भी लागू हो गया,कभी अखंड राष्ट्र के रूप में जाना जाने वाले नेपाल को सात प्रदेश भी मिल गया और हिंदू राष्ट्र से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र भी हो गया फिर भी नेपाली जनता को सिर्फ बार बार मत देने के अधिकार के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ। परिवर्तन क्या होता है इसकी अनुभूति कराने में नेपाल के लोकतंत्र वादी सत्ताधीश विफल रहे।
नेपाल में 20 नवंबर को होने वाले आम चुनाव में मुकाबला दो ही दलों के बीच होने की उम्मीद है। एक दल (नेपाली कांग्रेस) अपेक्षाकृत भारत के नजदीक है तो दूसरा दल(एमाले) चीन के हाथों खेल रहा है। पिछले दिनों नेपाल के कुछ हिस्सों तक जाना हुआ जहां पहाड़ी और भारतीय मूल के नेपाली लोगों से चुनावी माहौल पर बात हुई। बात चीत में दो बातें खुलकर सामने आई। एक यह कि नेपाल के लोगों को राजशाही खत्म होने के बाद जितनी भी सरकारें आई,वे सभी के सभी आम जनता में परिवर्तन की अनुभूति कराने में विफल रहे। दूसरा यह कि नेपाल में मजबूत लोकतंत्र बिना भारत के सहयोग से संभव नहीं है।
नेपाल का मिला-जुला जनमानस यह मानता है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है जहां तमाम राजनीतिक और वैचारिक मतभेद के बावजूद, चाहे यह राजनीतिक दलों में हो या पब्लिक में, विकास और राष्ट्र के प्रति सभी का समर्पण भाव एक जैसा है। वे मानते हैं चूंकि नेपाल भारत का नन्हा पड़ोसी राष्ट्र है और तमाम मायनों में वह भारत से घुला मिला है इसलिए भी नेपाल बिना भारत के सहयोग के आगे नहीं बढ़ सकता। पहाड़ी टोपी पहने एक बुजुर्ग नेपाली सज्जन ने साफ कहा कि राजशाही के वक्त से ही भारत और नेपाल के बीच अन्य देशों की अपेक्षा संबंध मधुर और निकटता के रहे हैं।
नेपाल में कुछ माह पहले हुए स्थानीय निकाय के चुनाव परिणाम देखें तो निकाय क्षेत्र के सभी 751सीटों पर एक तरफा जीत किसी की नहीं हुई। जनता में तीन ही दलों की उपस्थिति देखी गई। इसमें नेपाली कांग्रेस 328 सीटों के साथ पहले नंबर पर है,205 सीटें हासिल कर एमाले दूसरे नंबर पर और121 सीटों के साथ प्रचंड के नेतृत्व वाला माओवादी केंद्र तीसरे नंबर पर रहा। प्रचंड नेपाली कांग्रेस के साथ गठबंधन में प्रमुख साझेदार हैं।
एमाले को पहाड़ से लेकर मैदानी इलाकों तक 205 सीटों की उम्मीद शायद एमाले अध्यक्ष केपी शर्मा ओली को भी नहीं रही होगी। एमाले प्रमुख केपी शर्मा ओली के हौसले बुलंद हैं और उन्हें केंद्रीय सत्ता की कुर्सी करीब दिखने लगी है। चीन भी एमाले को बढ़ावा दे रहा है। सत्ता रूढ़ नेपाली कांग्रेस के सहयोगी दलों की संख्या पांच है। लेकिन निकाय चुनाव में तमाम जगहों पर इसके सहयोगी दल अलग-अलग चुनाव लड़े थे।
आम चुनाव के दृष्टिगत नेपाली कांग्रेस गठबंधन को जनसरोकार के मुद्दों की तलाश है वहीं ओली की रणनीति भारत के खिलाफ माहौल बना कर कथित राष्ट्र वाद के मुद्दे पर मैदान में उतरने की है।पिछले महीने नेपाली पीएम देउबा की भारत यात्रा और उसके बाद भारत के प्रधानमंत्री मोदी का नेपाल के लुंबिनी आगमन के फ़ौरन बाद ओली ने काला पानी व लिपुलेख का मुद्दा उठा कर देउबा को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की।
उत्तराखंड की सीमा से लगने वाले नेपाल के दावे वाले हिस्से लिपुलेख,लिंपियाधुरा व काला पानी पर पर भारत ने मानसरोवर तक जाने का मार्ग बना लिया है। ओली जब प्रधानमंत्री थे तो इस मुद्दे पर भारत के खिलाफ बहुत जहर उगले थे। उन्होंने नेपाल का नया नक्शा तक जारी कर दिया था।
आम चुनाव में सबसे बुरा हाल मधेशी दलों का होने जा रहा है। 2008 में राजशाही के अंत के बाद नेपाल में आधा दर्जन मधेशी दलों ने आकार लिया था जिसमें सबसे मजबूत मधेशी जनाधिकार फोरम नाम का मधेशी दल था जिसके मुखिया उपेंद्र यादव थे। अब तो महंत ठाकुर, हृदयेश त्रिपाठी, राजेंद्र महतो आदि मधेशी नेताओं का भी अलग अलग नाम से मधेशी दल है। 2008 में हुए पहले संविधान सभा चुनाव में मधेशी दलों को मधेश क्षेत्र में शानदार सफलता मिली थी लेकिन उसके बाद के चुनावों में इनका जनाधार घटता चला गया। इनके प्रभाव शून्य होते जाने की वजह यह भी है कि ये जिसके खिलाफ चुनाव लड़ते हैं,उसी की सरकार में मंत्री उपप्रधानमंत्री तक बन जाते हैं। मधेश क्षेत्र में मधेशी दलों के कमजोर होने का सीधा फायदा कम्युनिस्ट पार्टियों को मिला। कहना न होगा कि आज भारत सीमा से सटे नेपाली भू-भाग तक लाल झंडा गड़ गया है। यहां भारी संख्य में लोग कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन कर रहे हैं और भारत विरोध का जहर भी भरपूर घोला जा रहा है। एमाले के भारत विरोधी एजेंडे के मुकाबले नेपाली कांग्रेस कौन सा एजेंडा लेकर आती है यह देखना दिलचस्प होगा। हां मैदान के 22 जिलों में भले ही कम्युनिस्टों का प्रभाव बढ़ रहा हो, यहां नेपाली कांग्रेस को भारत से निकटता का फायदा मिलता हुआ दिख रहा है।
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उनका हिंदू राष्ट्र भी एक मुद्दा हो सकता है लेकिन उनके गठबंधन में चार ऐसे साथी हैं जो धर्म निरपेक्ष राष्ट्र का समर्थन करते हैं,ऐसे में इस मुद्दे पर गठबंधन के सहयोगियों को साधना देउबा के लिए एक अलग चुनौती है। 2018 के आम चुनाव के वक्त भी देउबा प्रधानमंत्री थे। उन्होंने पार्टी लाइन से हटकर तब भी हिन्दू राष्ट्र का मुद्दा उछाला था लेकिन तब उनका यह मुद्दा कारगर नहीं हो पाया था।
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