करीब आठ माह बाद होने वाले आम चुनाव में जताई जाने लगी है फिर बेमेल गठबंधन सरकार की आशंका, लोकतंत्र की मजबूती और परिवर्तन की अनुभूति पर ग्रहण की छाया
यशोदा श्रीवास्तव
नेपाल में संपन्न हुए निकाय चुनाव के परिणाम से यह कयास लगाना मुश्किल है कि सात आठ माह बाद ही होने वाले संसद व विधानसभा के चुनाव में मौजूदा सत्ता रूढ़ नेपाली कांग्रेस ही सत्ता में वापस होगी।
अभी भी उसकी अपनी अकेले की सरकार नहीं है। पांच दलों के समर्थन से नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री हैं। देउबा को समर्थन दे रहे इन पांच दलों में से दो तो खाटी कम्युनिस्ट हैं जिनकी राजनीति का आधार ही नेपाली कांग्रेस के विरोध पर था।
नेपाली कांग्रेस चूंकि भारत समर्थक राजनीतिक दल है इसलिए कम्युनिस्ट नेता जब उसका विरोध करते हैं तो समझा जाना चाहिए कि उनका असली विरोध किससे है? मालूम हो कि माओवादी केंद्र के अध्यक्ष प्रचंड और केपी शर्मा ओली से मतभेद के चलते अलग कम्युनिस्ट पार्टी बना लिए माधव कुमार नेपाल देउबा सरकार के प्रमुख समर्थक दल हैं जिनकी पहचान नेपाल की राजनीति में भारत विरोध की रही है।
निकाय चुनाव में उम्मीद थी कि देउबा सरकार को समर्थन दे रहे सभी पांचों दल एक साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे। ऐसा हुआ होता तो एक बात तय मानी जाती कि आम चुनाव में भी ये दल एक साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे और सत्ता में वापसी करेंगे।
लेकिन ऐसा न हो पाने से नेपाल के राजनीतिक हलकों में यह चर्चा तेज है कि आम चुनाव आते-आते नेपाली कांग्रेस सरकार के समर्थक दल शायद ही एक जुट रह पाएं। ऐसा कयास लगाने वाले सरकार विरोधी दलों के पास गत चुनाव का उदाहरण तो है ही जब प्रचंड चुनाव के वक्त देउबा का साथ छोड़ कर ओली की पार्टी एमाले के साथ जा मिले थे। हाल ही देउबा की भारत दौरे और फिर भारतीय पीएम मोदी के लुंबिनी (नेपाल) जाने पर प्रचंड की खामोशी के कई मायने निकाले जाने लगे हैं। दरअसल आम चुनाव के पहले संपन्न नेपाल भर के 753 स्थानीय निकाय के चुनाव परिणाम को आम चुनाव के लिटमस टेस्ट की दृष्टि से देखा जा रहा था। लेकिन जो चुनाव परिणाम आया है उससे कोई भी कयास लगाना मुश्किल है।
नेपाली कांग्रेस अध्यक्ष और मेयर पद की 320 सीटें हासिल कर सबसे आगे है लेकिन गांव पालिका में ओली के नेतृत्व वाली एमाले का दबदबा नेपाली कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है। यही नहीं निकाय के तमाम क्षेत्रों में जहां अध्यक्ष या मेयर पद पर नेपाली कांग्रेस विजयी हुई वहां उपमेयर या उपाध्यक्ष पद पर एमाले का उम्मीदवार विजई हुआ है।
मैदानी क्षेत्रों जिसे मधेश कहा जाता है वहां माओवादी केंद्र और एमाले दोनों ही अच्छी खासी सीटें जीतने में कामयाब हुई है। कहना न होगा कि भारत सीमा से सटे नेपाल के गांव और कस्बों में दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों का प्रदर्शन काफी बेहतर रहा।
निकाय चुनाव का पार्टी वार परिणामों पर नजर डालें तो मेयर व अध्यक्ष पद पर नेपाली कांग्रेस क्रमशः 320,293 एमाले 198,228 माओवादी केंद्र 120,128 ए समाजवादी 17,20 जसपा 29,30 राष्ट्रीय जनमोर्चा 4,3 राप्रपा 4,4 स्वतंत्र 11,4 सीटों पर विजई हुए हैं।अब इन परिणामों पर गौर करें तो सरकार समर्थक माधव कुमार नेपाल की ए समाजवादी, प्रचंड की माओवादी केंद्र, उपेंद्र यादव की जनता समाज पार्टी (जसपा) कुछ सीटों को छोड़ कर नेपाली कांग्रेस से अलग होकर चुनाव लड़े जिसमें प्रचंड गुट की कम्युनिस्ट पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन किया है।
उसके मेयर/अध्यक्ष पद के 120 और उप मेयर/ उपाध्यक्ष पद के 128 उम्मीदवार विजई हुए हैं। वहीं प्रमुख विपक्षी दल एमाले अकेले चुनाव लड़कर अध्यक्ष/ मेयर की 198 तथा उपाध्यक्ष/ उपमेयर की 228 सीटें जीतने में कामयाब हुई।
मजे की बात यह है कि मैदानी क्षेत्रों में एमाले और माओवादी केंद्र के उम्मीदवारों ने नेपाली कांग्रेस और मधेशी दलों को कड़ी टक्कर देते हुए विजय हासिल की। हैरत यह है कि पूर्व में जहां पहाड़ी लोग ही कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ होते थे वहीं अब मैदानी क्षेत्रों में गैर पहाड़ी जिन्हें भारतीय मूल का कहा जाता है,उनका तेजी से एमाले या माओवादी केंद्र की ओर झुकाव बढ़ा है।
भारत को इस पर जरूर चिंता करनी चाहिए क्योंकि नेपाल में मधेश क्षेत्र की करीब 90 लाख भारतीय मूल की यह आबादी नेपाल में भारत विरोधियों के बीच भारत जिंदाबाद का नारा लगाती है। अब अगर यह भी कम्युनिस्ट के रास्ते भारत से दूर हो गए तो नेपाल और भारत के बीच रोटी बेटी का रिश्ता सिर्फ कहने भर की रह जाएगी।
निकाय चुनाव में सबसे बुरी गति मधेशी दलों की हुई जिनका कभी मधेश क्षेत्र में खासा प्रभाव था। पहाड़ छोड़िए मधेशी क्षेत्र की जनता ने इन्हें नकार दिया। इसके पीछे यह बताया जा रहा है कि राजशाही खत्म होने के बाद जिस तरह मधेश के 22 ज़िलों में इनका प्रभाव बढ़ा था उसे ये बचा नहीं पाए और यहां की जनता को अपनी जागीर समझ बैठे।
जनता इन्हें संसद में अपनी आवाज बुलंद करने को चुनती थी और ये अपने विरोधी दलों की सरकार में मंत्री उपप्रधानमंत्री तक बन जाते थे। मधेश की जनता इन्हें पहचान ली है और अब शायद ही इनके झांसे में आए।
अपने ही क्षेत्र में हो रही अपनी दुर्गति पर मधेशी दलों को सोचना होगा। राजावादी पार्टी राप्रपा को सीटें केवल चार मिली है लेकिन इस चुनाव में पूरे दमखम से उतरे इस पार्टी के उम्मीदवारों को मतदाताओं का भरपूर समर्थन मिला। भारत सीमा से सटे दो नगरपालिका क्षेत्रों सहित मधेश के दो दर्जन से अधिक सीटों पर इसके उम्मीदवार बहुत कम वोटों से चुनाव हारे हैं।
पहाड़ी क्षेत्र में भी राजा समर्थक इस पार्टी को अच्छा समर्थन मिला है। निकाय चुनाव परिणाम का सार यह है कि अभी नेपाली कांग्रेस सरकार को समर्थन दे रहे सभी पांच दल यदि मिल कर आम चुनाव लड़े तभी इनकी सत्ता में वापसी हो सकती है और यदि अलग हुए जिसकी संभावना ज्यादा है तो नेपाल को एक बार फिर बेमेल गठबंधन की सरकार का बोझ सहने को मजबूर होना होगा और तब न तो नेपाल में लोकतंत्र के मजबूती की कल्पना की जा सकती है और न परिवर्तन के अनुभूति की।