- भारत से नजदीकी ठीक लेकिन चीन से संबंधों पर साइड इफेक्ट से बचना चाहेगी नेपाली कांग्रेस
यशोदा श्रीवास्तव
नेपाल में स्थानीय निकाय के चुनाव संपन्न हो जाने के बाद राजनीतिक दलें अब आसन्न संसद व विधानसभा के चुनाव की रणनीति तय करने में जुट गई हैं।
सत्ता रूढ़ नेपाली कांग्रेस जहां हिंदू राष्ट्र के मुद्दे पर चुनाव मैदान में जाने को सोच रही है वहीं भारत विरोध की हवा के साथ ओली के नेतृत्व वाली एमाले राष्ट्रवाद को चुनावी मुद्दा बना सकती है।
ओली ने लिपुलेख लिंपियाधुरा व कालपानी का राग फिर अलापना शुरू कर दी है।
बता दें कि निकाय क्षेत्र के सभी 751सीटों में से किसी भी दल की एक तरफा जीत नहीं हुई इसलिए कोई भी दल सात आठ महीने बाद होने वाले संसद और विधानसभाओं के चुनाव में अपनी जीत का दावा नहीं कर सकता।
लेकिन चौंकाने वाली बात है कि बिना किसी गठबंधन के अकेले दम पर निकाय चुनाव में उतरी एमाले ने पहाड़ से लेकर मैदानी इलाकों में 205 सीटें हासिल कर ली है।
उम्मीद से अधिक सीटें हासिल कर लेने से केपी शर्मा ओली के हौसले बुलंद हैं और उन्हें केंद्रीय सत्ता की कुर्सी करीब दिखने लगी है। सत्ता रूढ़ नेपाली कांग्रेस के सहयोगी दलों की संख्या पांच है।
लेकिन तमाम जगहों पर इसके सहयोगी दल अलग-अलग चुनाव लड़े थे। नेपाली कांग्रेस के मुख्य सहयोगी दल मोओवादी केंद्र है जिसके अध्यक्ष प्रचंड हैं। निकाय चुनाव में इस पार्टी को 121 सीटें मिली है।
328 सीटों के साथ नेपाली कांग्रेस बड़ा दल के रूप में निकायों पर काबिज हुआ है। इस हिसाब से आम चुनाव में नेपाली कांग्रेस गठबंधन और एमाले के बीच सीधे मुकाबले की संभावना बनती हुई दिख रही है। नेपाली कांग्रेस के सहयोगी दल यदि अलग अलग लड़ते हैं तो भी स्थिति यही रहेगी।
एमाले से उसके बड़े नेता माधव कुमार नेपाल के अलग हो जाने से कयास लगाया जा रहा था कि एमाले कमजोर हो गई लेकिन निकाय चुनाव परिणाम से उसके अभी भी मजबूती के साथ खड़े रहने का संकेत मिला है।
आम चुनाव के दृष्टिगत नेपाली कांग्रेस की कोशिश जहां गठबंधन दलों को साथ रखने की है वहीं ओली की रणनीति राष्ट्र वाद के मुद्दे पर मैदान में उतरने की है।
इसका संकेत पिछले दिनों उन्होंने दे भी दिया है। नेपाली पीएम देउबा की भारत यात्रा और उसके बाद भारत के प्रधानमंत्री मोदी का नेपाल के लुंबिनी आगमन के फ़ौरन बाद ओली ने देउबा पर सवाल दाग दिया कि वे बताएं कि काला पानी व लिपुलेख नेपाल का हिस्सा है कि नहीं?
ओली के इस सवाल से असहज देउबा ने इसका उत्तर अभी तक नहीं दिया है। पांचवीं बार प्रधानमंत्री बने देउबा जब पिछले दिनों दिल्ली गए थे तब दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच इस विवादित मुद्दे पर बात चीत न होने पर भी ओली ने सवाल उठाया है।
ओली के लिपुलेख व काला पानी पर सवाल उठाने से साफ जाहिर है कि आम चुनाव में ओली के एमाले का मुद्दा राष्ट्र वाद ही रहेगा। उत्तराखंड की सीमा पर लगने वाले नेपाल के दावे वाले हिस्से लिपुलेख,लिंपियाधुरा व काला पानी पर पर भारत ने मानसरोवर तक जाने का मार्ग बना लिया है।
ओली जब प्रधानमंत्री थे तो इसे लेकर बड़ा बवाल काटा था। उन्होंने नेपाल का नया नक्शा तक जारी कर दिया था। कहना न होगा कि ओली लिंपियाधुरा, लिपुलेख व काला पानी के बहाने यदि राष्ट्र वाद का मुद्दा गरमाने में कामयाब रहे तो गठबंधन सरकार के लिए मुश्किलें पेश आ सकती है क्योंकि ओली अब केवल पहाड़ के नेता नहीं रह गए। नेपाल के वे 22 जिले जो मधेश है और जहां के करीब 90 लाख लोग भारतीय मूल के हैं, वहां तक एमाले का प्रभाव बढ़ चुका है।
सबसे बुरा हाल मधेशी दलों का है। 2008 में राजशाही के अंत के बाद नेपाल में आधा दर्जन मधेशी दलों ने आकार लिया था जिसमें सबसे मजबूत मधेशी जनाधिकार फोरम नाम का मधेशी दल था जिसके मुखिया उपेंद्र यादव थे।
अब ये जनता समाज पार्टी के नेता हैं।उसके बाद महंत ठाकुर, हृदयेश त्रिपाठी, राजेंद्र महतो आदि मधेशी नेताओं का भी अलग अलग नाम से मधेशी दल है।
2008 के बाद हुए पहले संविधान सभा चुनाव में उपेंद्र यादव के नेतृत्व वाले मधेशी जनाधिकार फोरम को मधेश क्षेत्र में शानदार सफलता मिली थी लेकिन उसके बाद के एक चुनाव में इस पार्टी के सिर्फ दो सदस्य ही जीत सके थे जिसमें एक उपेंद्र यादव स्वयं थे दूसरे मधेश के ही अभिषेक प्रताप शाह थे।
मधेशी दलों के साथ दिक्कत यह है कि वे मधेश क्षेत्र के मतदाताओं को अपनी जागीर मान बैठे। शुरू के दो चुनाव तक तो मधेशी लोगों पर इनका जादू चला लेकिन उसके बाद ये हासिल पर जाते चले गए। इसकी वजह ये थी कि ये जिसके खिलाफ चुनाव लड़ते हैं,उसी की सरकार में मंत्री उपप्रधानमंत्री तक बन जाते हैं।
राजशाही खत्म होने के बाद अभी तक का इनका यही सिलसिला रहा है। धीरे-धीरे ये तब कमजोर होते गए जब इनमें अलगाव शुरू हुआ। आज विभिन्न नेतृत्व की इनके तीन चार दल हैं।
निकाय चुनाव में उपेंद्र यादव के नेतृत्व वाली जनता समाज पार्टी को मात्र 29 जगहों पर ही कामयाबी मिली है। शेष जो दो अन्य मधेशी दल हैं उन्हें भी 14 और 4 स्थानों पर कामयाबी मिली।
साफ है कि ये दल अपनी ही जमीन पर धंसते चले गए और अब इनके ऊपर आने की अब कोई संभावना शायद नहीं है। मधेश क्षेत्र में मधेशी दलों के कमजोर होने का सीधा फायदा कम्युनिस्ट पार्टियों को मिला। कहना न होगा कि आज भारत सीमा से सटे नेपाली भू-भाग तक लाल झंडा गड़ गया है।
यहां भारी संख्या में लोग ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन कर रहे हैं और हैरत है कि इनमें राष्ट्र वाद के नाम पर भारत विरोध का जहर भी भरपूर घोला जा रहा है जिसका उनपर असर भी होता हुआ दिखने लगा है।
ऐसे में सवाल उठता है कि ओली के कथित राष्ट्र वाद के मुकाबले नेपाली कांग्रेस का मुद्दा क्या होगा क्योंकि अभी तक तो गठबंधन सरकार की अगुवाई कर रही नेपाली कांग्रेस के पास नेपाली जनता को अतिरिक्त कुछ बताने के लिए है नहीं।
हाल ही नेपाली पीएम देउबा की भारत यात्रा के दौरान वाराणसी में यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ से मुलाकात को लेकर भी काठमांडू में चर्चाओं का बाजार गर्म है।
चर्चा तेज है कि नेपाली कांग्रेस एक बार फिर हिंदू राष्ट्र के मुद्दे पर चुनाव मैदान में उतरेगी। हालांकि इसे लेकर नेपाली कांग्रेस का स्टैंड अलग है। वह हिंदू राष्ट्र की हिमायती नहीं है।
दूसरा यह कि नेपाल का अल्पसंख्यक वोटर क्या नेपाली कांग्रेस के साथ रहेगा? हालांकि भारी संख्या में ये वोटर अब नेपाली कांग्रेस का साथ छोड़कर कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ जा चुके हैं। अल्पसंख्यक वोटर भले ही पूरे नेपाल में निर्णायक भूमिका में नहीं है लेकिन मधेश के कई जिलों के चुनाव क्षेत्रों में इनकी भूमिका निर्णायक है।
फिलहाल निकाय चुनाव के बाद नेपाल में संसद और विधानसभाओं के चुनाव की बिसात तेजी से बिछाई जाने लगी है। सत्ता रूढ़ नेपाली कांग्रेस और उसके सभी पांचों सहयोगी दलों ने अपने अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में रैलियां शुरू कर दी है।
नेपाली कांग्रेस हिंदू राष्ट्र के मुद्दे पर अभी खुलकर सामने नहीं आई है जबकि एमाले नेपाली भू-भाग पर भारत के कथित कब्जे का मुद्दा जोर शोर से उठाना शुरू कर दी है।
हिंदू राष्ट्र के मसले पर नेपाली कांग्रेस को यह फायदा हो सकता है कि नेपाल में हिंदू राष्ट्र के समर्थकों सहित राजावादी समर्थकों का समर्थन मिल सकता है और मधेश क्षेत्र के 22 ज़िलों में मजबूत और सशक्त हिंदू वादी संगठनों का साथ भी मिल सकता है।
आसन्न आम चुनाव की अभी तक का जो परिदृश्य है वह यही कि नेपाली कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दल एमाले के बीच चुनाव में जाने का राष्ट्र वाद बनाम हिंदू राष्ट्र का ही मुद्दा है।
दोनों ही पार्टियों के पास अपने अपने सरकारों के समय जनता के लिए किया गया कोई काम बताने को नहीं है। हिन्दू राष्ट्र के मुद्दे पर नेपाली कांग्रेस के सहयोगी दलों में सहमति बन पाए इसमें संदेह है।
2018 के आम चुनाव के वक्त भी देउबा प्रधानमंत्री थे। उन्होंने पार्टी लाइन से हटकर तब भी हिन्दू राष्ट्र का मुद्दा उछाला था लेकिन तब उनका यह मुद्दा कारगर नहीं साबित हो पाया था।
पिछले चुनाव परिणाम को देखते हुए नेपाली कांग्रेस हिंदू राष्ट्र के मुद्दे को लेकर भी उहापोह में है। दूसरे आम चुनाव में ज्यादा वक्त भी नहीं है बताने की जरूरत नहीं कि नेपाल में लोकतंत्र कायम होने के बाद यहां के चुनाव में भारत और चीन की अप्रत्यक्ष दखलंदाजी रहती है।
चीन की पूरी कोशिश होगी कि नेपाल में अपेक्षाकृत उसका समर्थन करने वाली एमाले यानि केपी शर्मा ओली के नेतृत्व में सरकार बने वहीं नेपाल चुनाव को लेकर भारत की रणनीति चीन समर्थक दल को सरकार में आने से रोकने की होगी।
नेपाली कांग्रेस वेशक भारत समर्थक दल है लेकिन वह चीन से भी रिश्ते बनाए रखना चाहेगी।ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि नेपाली कांग्रेस ऐसा कौन सा मुद्दा लेकर चुनाव में जाएगी जिसका चीन से संबंधों पर साइड इफेक्ट न हो।
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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