रूबी सरकार
स्वाधीनता के बाद महिलाओं के सशक्तिकरण की चिंता का मुद्दा सामाजिक और राजनीतिक दोनों स्तर पर उठा। महिला सशक्तिकरण की अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए पिछले कुछ वर्षों के दौरान बहुत काम हुआ है। जब महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला, तो उनका महत्व और बढ गया।
हांलांकि महिलाओं की जागृति के लिए सामाजिक स्तर पर पहले भी कार्यक्रम होते रहे हैं, लेकिन उनमें चेतना जगाने का सबसे ज्यादा और बड़ा प्रयास महात्मा गांधी ने किया था। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उन्होंने नशाबंदी आंदोलन शुरू किया था, जिसमें उन्होंने महिलाओं को जोड़ा था। नशाबंदी ही नहीं, बल्कि स्वाधीनता आंदोलन में भी गांधी ने महिलाओं को जोड़ा था, जिससे पूरे देश में महिलाओं के भीतर चेतना आई थी।
जब स्वाधीनता आंदोलन में महिलाएं जेल जाने लगीं शराब की दुकानों पर महिलाएं धरना देने लगी, तो उनमें सामाजिक चेतना आई, उनकी शिक्षा के स्तर पर भी थोड़ा सुधार हुआ और एक सामाजिक आंदोलन के लिए जैसे पुरुषों में चेतना जगी थी, वैसे ही महिलाओं में भी जगी। इसका श्रेय महात्मा गांधी को जाता है। यह स्वाधीनता आंदोलन की बात है।
महिलाओं के सशक्तिकरण की जब हम बात करते हैं, तो भारत में महिलाओं की समस्या, अन्य देशों की तुलना में अलग है। भारत में महिलाओं के दो अलग स्तर है, ग्रामीण और शहरी महिला। यहां उनके साथ परिवार और समाज की समस्याएं हैं। शहरी और ग्रामीण स्तर पर महिलाओं की मुख्यतः चार प्रमुख समस्याएं हैं- शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और रोजगार। स्वाधीनता के बाद इन चारों समस्याओं की ओर ध्यान दिया गया है, जिससे उसके परिणाम भी निकल कर आए हैं, उनमें शिक्षा का स्तर बढ़ा है, स्वास्थ्य का स्तर भी ठीक हुआ है उनकी सुरक्षा की भी चिंताएं बढ़ी हैं और उन्हें रोजगार भी मिले हैं।
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लेकिन सामाजिक स्तर पर जिस तरह की जागरुकता होनी चाहिए थी, वह उतनी तेजी से नहीं हो पायी। ग्रामीण स्तर की महिलाओं के साथ एक बड़ी समस्या यह भी है, कि उन्हें बराबर यह ध्यान रहता है, कि उनके साथ उनका एक परिवार है। वह मां भी हैं, बहन और पत्नी भी है, इसीलिए परिवार को साथ लेकर ही उनके सशक्तिकरण की कल्पना की जा सकती है।
दूसरी तरफ सामाजिक स्तर पर जो असुरक्षा बोध है, जो उनका पिछड़ापन है वह जितनी तेजी से कम होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। शिक्षा कम होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के पास उनकी पूंजी उनका श्रम है और उस श्रम को वह परिवार के लिए इस्तेमाल करती हैं। बच्चों के पालन-पोषण, बड़े-बूढ़ों की देखभाल, घर की जिम्मेदारियां आदि। इन सबके बाद जब उन्हें थोड़ा समय मिलता है, तो वे परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने की कोशिश करती हैं। इसी वजह से ग्रामीण स्तर की महिलाएं सरकारी योजनाओं का लाभ पूरी तरह नहीं ले पातीं और इस तरह सरकार की योजनाएं गांव में पूरी तरह से सफल नहीं हो पाती।
इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि उन्हें सामाजिक स्तर पर पूरी तरह से समर्थन न मिलना है। उदाहरण के लिए जब वह पढ़ने के लिए बाहर जाती है, तो परिवार, पति और समाज उन्हें ताना मारते हैं। सरकार की तरफ से जब प्रौढ़़ शिक्षा अभियान शुरू हुआ, तब पुरुष तो पढ़ने के लिए निकले, लेकिन ग्रामीण महिलाओं के स्तर पर ऐसा प्रयास बहुत कम हुआ। इसका एक कारण समाज की ओर से उन्हें जिस तरह का प्रोत्साहन मिलना चाहिए था, वह नहीं हुआ। इसके साथ ही लगातार ग्रामीण-आदिवासी महिलाओं के लिए गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य की दिशा में काम किये जा रहे हैं, इससे महिलाओं में चेतना तो धीरे-धीरे जाग रही है, फिर भी जो एकदम निचले स्तर पर है, उनमें चेतना जगाने में अभी मीलों चलना होगा।
संस्थाओं को महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ्य की चिंता है, उन्हें परिवार में ठीक से पोषण मिले, गर्भ में पल रहे शिशु स्वस्थ हो। लेकिन जब यही गांव की लड़कियां थोड़ी बड़ी होने लगती हैं, तो उन्हें परिवार की जिम्मेदारी संभालनी पड़ती है। उन्हें स्कूल छोड़कर अपने छोटे-भाई बहनों की देखभाल करनी पड़ती है। लड़कियों को लकड़ी चुनने से लेकर, गाय, बैल, भैस और बकरी चराने का काम भी करना पड़ता हैं। गोबर पातने, सफाई करने से लेकर खेतों में घण्टों काम करना पड़ता है।
समाज में जागृति लाने के लिए स्वाधीनता आंदोलन में जिस तरह से महात्मा गांधी ने सामाजिक आंदोलन चलाया था, उस तरह का सामाजिक आंदोलन स्वतंत्र भारत में नहीं हुआ, जो महिलाओं के अंदर चेतना जगाने का काम करें। यह अलग बात है, कि उत्तराखण्ड में सुंदरलाल बहुगुणा जी के नेतृत्व में चिपको आंदोलन हुआ, जिसमें महिलाएं पेड़ों को पकड़ कर उससे लिपट जाती थी, पेड़ों को घेर लेती थी, जिससे वहां के पेड़ कटने से बच गये थे। स्वतंत्रता के बाद यह सामाजिक आंदोलन का एक बड़ा उदाहरण था। महिलाओं ने आगे बढ़कर वनों के विनाश को रोका।
ग्रामीण भारतीय समाज में भी दो तरह की व्यवस्थाएं हैं। एक पूर्वोत्तर भारत है, जहां आदिवासी समाज है, यहां महिलाएं समाज को नियंत्रित करती हैं। आदिवासी क्षेत्रों में मुख्य भूमिका में महिलाएं ही होती हैं। वह घर की प्रमुख होती हैं, इसलिए वह परिवार और पूरी अर्थव्यवस्था के साथ-साथ समाज को नियंत्रित करती हैं। उत्तर भारत की ग्रामीण महिलाओं की अपेक्षा उनके अंदर चेतना ज्यादा है। इस तरह भारत में महिलाओं के संदर्भ में अलग-अलग तरह की चेतना हैं जहां पुरुष प्रधान है जैसे उत्तर-प्रदेश, बिहार खासकर हिन्दी पट्टी वाला क्षेत्र जहां ज्यादा पिछड़ापन है, वहां महिलाओं को शुरू से दबाकर रखा गया।
मुगलों के शासनकाल में तो सुरक्षा के कारण लड़कियों का बाल विवाह कर दिया जाता था, लेकिन धीरे-धीरे यह प्रथा बन गई। जबकि एक खास समय पर उसकी जरूरत समझी गई थी, लेकिन अब यह परंपरा बन गई। आजादी के 70 साल बाद भी राजस्थान, मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में और हरियाणा जैसे कई राज्यों में आज भी बाल विवाह एक समस्या बनी हुई है, जबकि बाल विवाह रोकने के कानून है। बावजूद इसके आज भी चेतना के अभाव में बाल विवाह हो रहा है। यह अलग बात है, कि गैर सरकारी संस्थाएं महिलाओं के आर्थिक स्वालंबन के लिए भरपूर कोशिश करती हैं, लेकिन उनकी सामाजिक ताकत या सशक्तिकरण के लिए कोई प्रयास गैर सरकारी स्तर पर भी उतनी शिद्दत से नहीं हुआ। उन्हें सामाजिक रूढ़ियों से अलग करने की कोई कोशिश नहीं हुई, इसलिए ग्रामीण स्तर पर सामाजिक रूढ़ियों को खत्म करने के लिए अभी बहुत काम करने की जरूरत है। क्योंकि जब तक महिलाएं सामाजिक रूढ़ियों से अलग नहीं होंगी, तब तक पूरी तरह से उनका सशक्तिकरण नहीं होगा।
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सरकार की तरफ से किये जा रहे सुधार प्रयासों में राजनीतिक चेतना तो होती है, लेकिन सामाजिक चेतना नहीं होती। हर राजनीतिक दल महिलाओं के रोजगार की बात करता है, उनके सशक्तिकरण की बात करता है, उनके लिए कानून बनाता है, महिला आरक्षण की बात भी होती है, यह सब राजनीतिक है। जैसे- देश के कई प्रदेशों में महिलाओं को पंचायतों में 50 फीसदी आरक्षण दिया गया, इससे 50 फीसदी से अधिक महिलाएं सरपंच चुनी गईं, लेकिन उसका नियंत्रण पुरुषों के पास है। शिक्षा के स्तर पर उनकी जागरूकता कम होने से पुरुष उन्हें नियंत्रित करता है। वे सरपंच पति बन महिलाओं के अधिकारों का शेाषण करते हैं। राजनीतिक अधिकार मिलने के बावजूद वे सामाजिक रूढ़ियों से बंधी रहीं।
सामाजिक रूढ़ियों से अलग करके उनके अंदर जो चेतना जगानी चाहिए थी, परिवार और समाज की ओर से उन्हें आगे लाने का जो समर्थन मिलना चाहिए था, वह उन्हें आज भी नहीं मिला है। यह काम सरकारी स्तर पर तो नहीं हो सकता, क्योंकि सरकार का प्रयास राजनीतिक स्तर पर हो सकता है, परंतु सामाजिक जागरुकता बढ़ाने का काम गैर सरकारी स्तर पर करना होगा।
हालांकि स्वयं सेवी संस्थाएं उनकी शिक्षा, सुरक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य के लिए गांव में काम तो बहुत किया, लेकिन सामाजिक चेतना के लिए उतना काम नहीं हुआ, महिलाओं के पक्ष में प्रगतिशील कानून भी बने, लेकिन वह लागू हो जाये इसकी कोशिश नहीं हुई, जिसके चलते पूरे देश में ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं प्रभावित हुई हैं।
इसलिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सुरक्षा के साथ ही साथ सामाजिक जागरुकता का प्रयास जो पुरुषों की तरफ से होने चाहिए और महिलाओं को पुरुषों का समर्थन मिलना चाहिए, क्योंकि आज भी महिलाएं अपने परिवार को ही प्राथमिकता देती हैं।
बहरहाल सरकार की तरफ से महिलाओं को राजनीतिक सशक्तिकरण के जो प्रयास हो रहे हैं वह और मजबूत होना चाहिए और उनके अंदर राजनीतिक चेतना जगाना चाहिए। राजनीति में 33 फीसदी आरक्षण देने के साथ ही राजनीतिक दलों को महिलाओं के अंदर सामाजिक चेतना जगाने के लिए आंदोलन भी होने चाहिए।
इसके अलावा जो गैर सरकारी संस्थाएं ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रही हैं और उनके पास जो साधन उपलब्ध है, उन साधनों को इकट्ठा कर सभी मुद्दों पर एक साथ मिलकर एक बड़ी शक्ति के रूप में उन्हें काम करने की जरूरत है। इससे वे बड़ा काम कर सकते हैं और इसमें उन्हें ज्यादा मदद भी मिलेगी। साथ ही कम समय में ज्यादा काम होगा। ये संस्थाएं जब अलग-अलग अपने स्तर पर काम करती हैं, तो इतना अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। सरकारें भी इन संस्थाओं के कामों में हस्तक्षेप किये बिना अपनी तरफ से निगरानी कर सकती है।
आज महिलाओं की सशक्तिकरण के लिए और कुछ नये प्रगतिशील कानूनों की जरूरत है, जो सामाजिक परंपराओं से अलग हो। देश की आजादी के बाद वातावरण बदला है। 8 मार्च को पूरी दुनिया में महिला दिवस मनाया जाता है। भारत में भी शहरी क्षेत्रों की महिलाएं शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ रही है, पुरुषों की बराबरी कर रही है। कानून और प्रशासन के साथ ही हर क्षेत्र में महिलाओं ने पैठ बनाई है। लेकिन पिछड़े क्षेत्रों की महिलाओं के साथ और तेजी से काम करने की जरूरत है। उनके लिए और अधिक साधन जुटाने और उनके सशक्तिकरण के लिए एक सामाजिक आंदोलन चलाया जाने चाहिए। महिलाओं में चेतना जगाने के लिए परिवर्तन का एक आंदोलन तब तक चलाया जाने चाहिए, जब तक कि उनमें चेतना नहीं जगती। महिलाओं के लिए यह काम स्वयं सेवी संस्थाएं बखूबी कर सकती हैं।
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार Jubilee Post के नहीं हैं, तथा Jubilee Post उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।)
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