सुरेंद्र दुबे
आज 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस है। इसकी टैग लाइन है-‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’। पर बेटियों की हालत आज से ज्यादा चिंताजनक कभी नहीं थी।
आज पूरे देश में इस समय बेटियां नागरिकता कानून के विरोध में धरना-प्रदर्शन कर रही हैं। इस कड़कडाती सर्दी में बेटियों को धरना देते लगभग दो महीने हो गए हैं। बेटियों ने शाहीन बाग पर प्रदर्शन कर एक नया इतिहास रच दिया है।
शाहीन बाग पूरे देश में महिलाओं के प्रदर्शन का एक प्रतीक बन गया है। अब जिस शहर में भी प्रदर्शन होता है उस जगह को वहां का शहीन बाग बताया जाता है। राष्ट्रीय बालिका दिवस के दिन अगर इन बेटियों की आवाज सुनने की दिशा में कोई सार्थक कदम बढ़ाया जाए तो फिर इसे सही मायने में बालिका दिवस समझा जा सकता है।
दुख की बात ये है जहां-जहां भी बेटियां नागरिकता कानून के विरोध में प्रदर्शन कर रही हैं, वहां इन महिलाओं को केवल मुस्लिम महिलाओं की संज्ञा देकर अपमानित करने की कोशिश की जा रही है। बेटी किसी की मां, किसी की बहन, किसी की चाची, किसी की बुआ सहित अनेक संज्ञाओं को धारण किए हुए धरने पर बैठी हैं। सत्ताधारी दल इसे सिर्फ मुस्लिम महिलाओं के प्रदर्शन के रूप में परिभाषित कर रहा है।
हालांकि, हिंदू, मुस्लिम व सिख सभी धर्मों की महिलाएं अपनी आवाज बुलंद कर रही हैं। वैसे भी बेटी, बेटी होती है। वो न हिंदू होती है और न ही मुसलमान। महिला खुद अपने आप में एक जाति व धर्म है, जिसे हिंदू-मुस्लिम करके अपमानित नहीं किया जाना चाहिए। बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ का नारा देने वाली सरकार बेटियों की इतनी बेकदरी करेगी, ऐसा सोचा नहीं गया था।
उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने आज ट्वीट किया है- आज राष्ट्रीय बालिका दिवस के अवसर पर देश की बेटियों को उनके उज्जवल भविष्य के लिए शुभकामनाएं देता हूं। उन्होंने आह्वान किया कि समाज ये सुनिश्चित करे कि हमारी बेटियों को हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा दिखाने और निखारने के बराबर अवसर मिलें। समाज की हर वह कुरीति समाप्त हो जो उनकी प्रगति को बाधित करती रही है।
नायडू ने कहा, ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ एक सामाजिक दर्शन, सामाजिक अभियान है, हमारा संवैधानिक संकल्प है। वैंकेया नायडू ने ट्वीट बड़ा सुंदर किया है पर उन्हीं की पार्टी की सरकार बेटियों की आवाज सुनने को तैयार नहीं है। सिर्फ ट्वीट में दर्शन बघारने से बेटियों को प्रतिभा दिखाने और निखारने का अवसर नहीं मिलेगा। सरकार को ट्वीट की तरह अपनी नीयत भी दिखानी होगी।
आंदोलन कर रही बेटियों का इससे ज्यादा अपमान क्या हो सकता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो आरोप लगा दिया है कि पुरूष घर में कंबल ओढ़े बैठे हैं और महिलाओं को आंदोलन में झोंक दिया है। अब इस तरह के बयान ये दर्शाते हैं कि हमारी राजनीति अपने फायदे के लिए किस तरह के ऊल-जलूल बयानों में उलझ गई है। उन्हें बेटियों के अंदर आई चेतना का आभास ही नहीं हो रहा है। बेटियों के अंदर आंदोलन की तरूणाई ने जन्म ले लिया है।
यही वजह है कि पूरे देश में सैकड़ों शाहीन बाग बन गए हैं। अब समय आ गया है कि बेटियों के सम्मान को किताबों तक सीमित रखने के बजाए उनसे संवाद किया जाए। अगर बेटियां भ्रम में हैं तो उनके भ्रम को दूर किया जाए। एक जागृत समाज हमेशा इस तरह की अपेक्षा रखता है। ये सोचने का कोई मतलब नहीं है कि बेटियां एक दिन थक हार कर बैठ जाएंगी या फिर सरकार दमन के बल पर इन्हें आंदोलन से मुख मोड़ लेने को मजबूर कर देगी।
24 जनवरी 1966 को ही कोई महिला इस देश की पहली बार प्रधानमंत्री बनीं थी, वो थीं श्रीमती इंदिरा गांधी। महिला शक्ति को सम्मानित करने के लिए ही 24 जनवरी 2008 से बालिका दिवस मनाने की शुरूआत हुई थी।
राष्ट्रीय बालिका दिवस पर एक तरफ बेटियों को आगे बढ़ाने की बातें हो रही हैं तो दूसरी तरफ महिलाओं से जुड़े अपराधों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। जब बेटियां बचेंगी ही नहीं तो आगे कैसे बढ़ेंगी। लिंगानुपात अभी भी साम्य को तरस रहा है। प्रतिकूल हालात में भी हमारी बालिकाएं हर क्षेत्र में नाम कमाने को आतुर हैं।
हाल ही राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार में अगर 12 लड़के शामिल रहे तो 10 लड़कियों ने भी खुद को शामिल कराया। पर अगर उन्हें असहमति व्यक्त करने और आंदोलन करने का अधिकार नहीं मिलेगा तो वे सिर्फ हाड़ मांस की मूर्ति बनकर रह जाएंगी और फिर राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने का मकसद ही खत्म हो जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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