देश में दलगत राजनीति ने एक नये विभाजन का स्वरूप गढना शुरू कर दिया है। नागरिकों की मानसिकता पर अब व्यक्तिवाद हावी होकर स्वार्थपरिता के हिंडोले पर झूलने लगा है।
परिवादवाद पर आधारित पार्टियों के मध्य जनसेवकों की समाजसेवा का स्वरूप चाटुकारिता के रूप में परिवर्तित हो गया है।
व्यक्तिगत योग्यता एवं पार्टी के प्रति समर्पण जैसे कारक अब गौड हो गये हैं। चुनावी बयार आते ही धनबल पर ठहाके लगाने वाले उभरकर सामने आ जाते है।
धनबल से जनबल को प्रभावित करने की परम्परा लम्बे समय से चली आ रही है। सो पार्टियां भी अपने समर्पित कार्यकर्ताओं की चुनावी दावेदारी को पैसे की चमक के सामने शहीद कर देतीं हैं।
निकट भविष्य में अनेक राज्यों में चुनावी बिगुल फूंका जाना है। ग्राम पंचायतों से लेकर विधानसभाओं तक के लिए जनप्रतिनिधियों का चयन होना है। पंचों से लेकर विधायकों तक के ज्यादातर पदों पर राजनैतिक दलों के झंडा थामने वाले आसीत होंगे।
देश की स्वाधीनता का श्रेय लेने से लेकर सिध्दान्तों की दुहाई देने वाले दलों तक में दलबदलुओं को प्राथमिकता के आधार पर टिकिटों का आवंटन होगा। ऐसे में जीवन का लम्बा समय पार्टी के विस्तार को निष्ठा से साथ देने वालों को निराशा ही हाथ लगेगी।
कुछ दल स्वयं के वजूद को कार्यकर्ताओं से ऊपर मानते हैं तो कुछ अपने स्टार प्रचारकों को सर्वोपरि की संज्ञा देते हैं। कुछ पार्टियों को जातिवाद के आधार पर स्थाई वोटबैंक का घमंड है वहीं अनेक दल अपने संस्थापकों के नाम की दुहाई पर जीत का दावा करते हैं।
ऐसे राजनैतिक दलों की नीतियों, सिध्दान्त और मान्यतायें समय के साथ निरंतर बदल रहीं हैं। तोड-फोड, दल-बदल और ले-दे जैसे कारकों का बाहुल्य होता जा रहा है।
एक दल छोडकर आने वालों को दूसरे दल में तत्काल महात्वपूर्ण औहदा मिल जाता है। जबकि उस ओहदे का वास्तविक हकदार वह वफादार कार्यकर्ता है जिसने अपने जीवन का लम्बा समय पार्टी की मजबूती के लिए निछावर किया था। दूसरी ओर चरणवंदगी करने वालों की संख्या में भी निरंतर इजाफा होता जा रहा है।
बंद कमरे में यशगान सुनने वाले भविष्य की सुखद कल्पनाओं की उडान समय से पहले ही भरने लगते हैं। भाटों की भीड में सत्य का स्थान उसी तरह से है जैसे नक्कारखाने में तूती की आवाज।
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भारत गणराज्य के राजनैतिक सिध्दान्त हमेशा ही टूटते-बिखरते रहे। वहीं जनप्रतिनिधियों के दायित्वों, कर्तव्यों और कार्यशैली पर अंकित होते प्रश्चचिन्ह भी गहराने लगे हैं।
वास्तविकता तो यह है कि पार्टियों के टिकिट पर चुनावी दंगल में विजय प्राप्त करने वाले अधिकांश प्रत्याशी स्वयं को पार्टी का वफादार प्रमाणित करने में ही लगे रहते हैं।
ऐसे लोग जनप्रतिनिधि बनने के बाद स्वयं के हितों, अपने खास सिपाहसालारों के हितों और पार्टी हितों पर क्षेत्र के हितों को कुर्बान कर देते हैं। वे क्षेत्रवासियों की समस्याओं के निराकरण से कहीं ज्यादा महात्व अपनी पार्टी के वरिष्ठों की बैठकों को देते हैं। सत्तादल के जनप्रतिनिधि तो सरकारी कार्यालयों में हो रही मनमानियों का भी विरोध करने से कतराते हैं।
उन्हें अनुशासन के नाम पर पार्टी के डंडे का डर सताने लगता है। दूसरी ओर जनप्रतिनिधि के पद हेतु पार्टियां भी आयातित उम्मीदवारों की दावेदारी सुनिश्चित कर देतीं है।
स्थानीय कार्यकर्ता उस आयातित प्रत्याशी की जीत हेतु खून-पसीना एक कर देते हैं। ऐसा न करने वाले कार्यकर्ताओं के दिमाग को किसी वरिष्ठ का एक फोन ठिकाने लगा देता है। उस फोन पर अतीत के दु:खद संस्मरणों को दोहराते हुए आने वाले समय की सुखद-दुखद भविष्यवाणियां की जाती है।
आयातित प्रत्याशियों की चरणबंदगी करने का देश में लम्बा इतिहास रहा है। आक्रान्ताओं और आयातित प्रत्याशियों में ज्यादा अन्तर नहीं होता। सशक्त आक्रान्ताओं को भी देश के जयचन्द ही आमंत्रित करते थे, सहयोग करते थे और बाद में उन्हें स्वयं के अस्तित्व का विलय भी कर देना पडता था।
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ऐसा ही आयातित प्रत्याशियों के मामले में भी है। देश में गुलामी का यह जडें बहुत गहराई तक जमीं हैं। परिवारवाद पर फलफूल रहे दलों के आकाओं के इशारों को कालीदास की तरह परिभाषित करने वालों की कमी नहीं है।
चन्द सिक्कों, थोथा सम्मान और विलासता के संसाधनों के लालच में अधिकांश लोगों का ईमान बिक चुका है। वे अपने आकाओं के किसी भी गलत निर्णय को सही साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोडते। मरने-मारने तक पर तैयार रहतेे हैं।
आश्चर्य तो तब होता है कि जब पंचायती राज में मुुखिया और सहयोगियों के चुनाव हेतु आम मतदाता को अधिकार दिया गया है तो फिर मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जैसे पदों पर आम मतदाता की राय से चयन क्यों नहीं होता।
यदि ऐसे हो रहा होता तो निश्चित मानिये कि टी.एन.शेषन जैसा योग्य नागरिक राष्ट्रपति के पद पर कभी पराजित नहीं होता। वास्तविकता तो यह है कि देश को राजनैतिक जातियों में विभक्त कर दिया गया है।
गण का तंत्र तो संविधान की संरचना के साथ ही दफना दिया गया था। सत्ताधारी राजनैतिक दलों की नीतियों पर सरकारों की कार्यशैली निर्धारित होती है। अधिकारियों को लाभ मिलता है।
एक विशेष वर्ग का पोषण होता है। तुष्टीकरण के आधार पर योजनायें तैयार की जातीं हैं। काम कम, नाम ज्यादा का भौंपू बजाया जाता है। धर्म निरपेक्षता के सौन्दर्यबोध को मुखौटे के रुप में सजाकर रखा जाता है।
ईमानदाराना बात तो यह है कि कही औबैसी का अल्पसंख्यक राग तो कहीं मायावती का दलित कार्ड उभरकर आपसी वैमनुष्यता को चरम पर पहुंचाते हैं। इतना ही नहीं बल्कि कहीं जातिवादी परचम की ऊंचाई बढाई जा रही है तो कहीं दंगों का षडयंत्र खून-खराबे की इबारत लिखने वाले अपनी सरगर्मियां तेज कर रहे हैं।
इन दलों के सत्तासीन होने पर तंत्र का स्वरूप भी तो दल के मुखिया की सोच के ही अनुरूप होगा। वास्तविक लोकतंत्र के लिए अब अनिवार्य हो गया है राजनीति का राष्ट्रीय मसौदा जिसमें राष्ट्रहित, राष्ट्रप्रेम एवं राष्ट्रीयता के अलावा कुछ भी न हो।
इस मसौदे को सभी राजनैतिक दलों को एकमात्र दलगत संविधान के रूप में स्वीकार करना होगा। विभेद के आधार पर जन्मे दलों मान्यता समाप्त करना चाहिए।
जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा जैसे मुद्दों को सामाजिक सरोकारों में उठाने वालों को राष्ट्रद्रोही करार देना चाहिए। धर्म को प्रदर्शन के स्थान पर निजता तक ही सीमित होना चाहिए।
जातियों को वर्ग में परिवर्तित करके कार्य, क्षमता और सामर्थ के आधार रेखांकित किया जाना चाहिए। राजनैतिक दलों की विभाजनकारी मानसिकता को समाप्त किये बिना वास्तविक गणतंत्र की स्थापना असम्भव है।इसे हर हाल में समाप्त करना ही होगा। तभी देश वास्तव में धर्म निरपेक्ष गणराज्य बन सकेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
(लेखक वरिष्ठï पत्रकार हैं.)