सुरेंद्र दुबे
उत्तर प्रदेश विधानसभा में भाजपा के विधायक नंद किशोर गुर्जर के पक्ष में लामबंद हुए लगभग 200 विधायकों की घटना के बाद से एक प्रश्न उठने लगा है कि क्या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नौकरशाही पर अत्याधिक निर्भरता से विधायक और सांसद नाराज हैं। अफसर इन्हें भाव नहीं देते। नेताओं की नहीं सुनते। हर काम के लिए नेताओं को मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर निहारना पड़ता है। ये भी एक सच है कि मुख्यमंत्री विधायकों को ज्यादा लिफ्ट नहीं मारते। शासन-प्रशासन में ब्यूरोक्रेट्स ही हावी हैं।
सत्ता पक्ष की ओर से ये सफाई दी जा रही है कि नंद किशोर गुर्जर दूध के धुले नेता नहीं हैं। इसलिए गाजियाबाद में उनके खिलाफ जो कुछ हुआ वह ठीक ही है। राजनीति में दूध से धुले नेताओं की उपस्थिति गुजरे जमाने की चीज हो गई है। पर विधायक या सांसद जिन्हें स्वयं राजनैतिक दलों ने टिकट दिये हैं। उन्हें दोयम दर्जे का नेता बनाने से अफसरशाही बेलगाम होती जा रही है।
अगर अफसरों की मर्जी से ही शासन-प्रशासन चलना है तो फिर विधायकों व सांसदों की जरूरत ही क्या है। प्रदेश में सिर्फ मुख्यमंत्री होना चाहिए और उसकी मदद के लिए अफसरों की फौज। पर जबतक हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधायिका और कार्यपालिका दो अलग-अलग स्तंभ बने हुए हैं तब तक विधायिका को किनारे कर सिर्फ कार्यपालिका के जरिए शासन चलाना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।
भाजपा के विधायकों और सांसदों तथा पार्टी कार्यकर्ताओं की एक आम शिकायत है कि बाबा से मुलाकात नहीं होती या फिर बाबा उनकी सुनते नहीं हैं। बाबा से तात्पर्य मुख्यमंत्री से है, जिन्हें भाजपाई नेताओं के बीच सामान्यत: बाबा नाम से ही पुकारा जाता है। बाबा जिस कड़ाई से शासन चला रहे हैं उसमें धंधेबाज नेताओं को बहुत तवज्जो नहीं मिल रही है। बाबा के तार सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से जुड़े हैं। इसलिए उनके खिलाफ लामबंदी भी असरदार साबित नहीं हो पा रही है।
नंद किशोर गुर्जर की घटना ने भाजपा के असंतुष्ट नेताओं को बाबा के खिलाफ मोर्चा खोलने का एक स्वर्णिम अवसर प्रदान कर दिया है। पार्टी नेतृत्व इन नेताओं को समझाने बुझाने में भी लगा है। पर इस सबके बावजूद बाबा की कुर्सी पहले की तरह ही मजबूत है। बाबा के खिलाफ विद्रोह जैसी किसी स्थिति की कल्पना करने का कोई मतलब नहीं है। बाबा इन दिनों न केवल उत्तर प्रदेश में बल्कि पूरे देश में प्रखर हिंदू वादी नेता के रूप में बखूबी स्थापित हो चुके हैं। भाजपा के राजनैतिक एजेंडे में हिंदुत्व ही सबसे ऊपर है। इसलिए बाबा की कुर्सी न तो कोई खतरा है और न ही ऐसा होने की संभावना है।
ये भी एक सत्य है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस राज्य में जिसे मुख्यमंत्री बना दिया, फिर उसके विरूद्ध चाहे जितनी शिकायतें हो या प्रशासनिक असफलता के कारण, उसे कुर्सी से हटाया नहीं गया। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर जो एक कमजोर मुख्यमंत्री समझे जाते हैं, उन्हें भी नरेंद्र मोदी ने दोबारा कुर्सी सौंप दी। महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस को ही दोबारा मुख्यमंत्री बनवाने की जिद्द पर अड़े रहे। भले ही महाराष्ट्र में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई। ये कुछ उदाहरण हैं जो ये साबित करते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तरह बात-बात में मुख्यमंत्री बदलने की परंपरा के कायल नहीं हैं।
अधिकारियों के बल पर शासन चलाने की परंपरा इंदिरा गांधी के समय से ही शुरू हुई थी। आज भी कमोवेश पूरे देश में इसी परंपरा अनुशरण किया जा रहा है। केंद्र में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पीएमओ ही चलाता है, जिसके सामने केंद्र सरकार के बड़े-बड़े मंत्री और भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री नत्मस्तक रहते हैं। उनके बाद पूरे देश में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का ही जलवा है, जिन्हें लोग नरेंद्र मोदी की रेपलिका ही समझते हैं। यानी कि उत्तर प्रदेश में सीएमओ (चीफ मिनिस्टर्स ऑफिस) और केंद्र में पीएमओ की सब कुछ है। ऐसे में योगी आदित्यनाथ की कुर्सी के जाने की कल्पना करना बेकार सी बात लगती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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