मुजफ्फर अली साहब का जन्म 14 अक्टूबर 1944 में लखनऊ में हुआ था। मुजफ्फर अली साहब के पिता राजा सैयद साजिद हुसैन अली साहब कोटवारा रियासत के शाही परिवार से ताल्लुक रखते थे। लखीमपुर के गोलागोकरण नाथ के समीप है कोटवारा रियासत। मुजफ्फर अली साहब की शुरूआती पढ़ाई लामार्ट्स में हुई। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। यहां के उर्दू साहित्य और शेरो शायरी से नाता जुड़ा।
यहां वे शहरयार, राही साहब, अली रहमान आजमी जैसे मशहूर व मारूफ शायरों से काफी मुतासिर थे। उसके बाद विज्ञापन की दुनिया का ककहरा सीखने कलकत्ता चले गये।
जहां उन्होंने कलकत्ता की जिस विज्ञापन कम्पनी में काम सीखा उसके चेयरमैन थे महान फिल्मकार सत्यजीत रे। रे साहब के साथ रहते हुए उनके अंदर फिल्म निर्माण के बीज पनपने लगे।
वहां से लौटकर बम्बई पहुंच गये और एयर इंडिया में मार्केटिंग व एडवरटाइजिंग के एक्जीक्यूटिव हो गये। नौकरी में ज्यादा मन नहीं लगा और सब कुछ छोड़कर अवध की पृष्ठभूमि पर फिल्म बनाने की धुन में जुट गये।…
वो बम्बई पहुंचे और ‘गमन” फिल्म का ताना बाना बुनने लगे। बम्बई प्रवास के दौरान उन्होंने देखा कि अपना घर गांव छोड़कर मायानगरी में कमाने आये कामगारों पर क्या बीतती है। वे न तो अपने माशरे (समाज) के रह पाते हैं न महानगर में घुल मिल पाते हैं।
इस दिल को छू लेने वाले विषय को लेकर पहली फिल्म बनायी ‘गमन” (1978)। फिल्म अच्छी बन गयी और चल गयी। गाने काफी मकबूल हुए। फैज अहमद फैज ने भी इसकी तारीफ की। उसके बाद अवध की मशहूर रक्कासा की बायोग्राफी ‘उमराव जान अदा” जो मिर्जा हादी रुसवा साहब ने लिखी थी, पर बायोपिक बनाने का विचार आया।
1857 के पहले इस अवध के पीरियड ड्रामा पर काम करने के लिए दस साल रिसर्च वर्क किया गया। फिल्म का संगीत पहले जयदेव देने वाले थे लेकिन बाद में खय्याम साहब ने तैयार किया था व गजलें जिन्हें शहरयार ने लिखी थीं, आशा जी ने गाया, लोगों की जुबान पर चढ़ गयीं।
शहरयार से उनका मेल मिलाप अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान हुआ था। लखनऊ की पहचान कथक नृत्य को भी फिल्म के माध्यम से काफी प्रामोट किया गया। फिल्म मील का पत्थर साबित हुई। उसके बाद मुजफ्फर अली सुपर स्टार हो गये। फिर उन्होंने गन्ना किसानों पर फिल्म ‘आगमन” बनायी जिसमें प्रदेश के गन्ना किसानों के शोषण और समस्याओं को बखूबी दर्शाया गया था। यह अनुपम खेर साहब की पहली फिल्म थी।
1986 में फिल्म ‘अंजुमन” बनायी। इस फिल्म में केन्द्र में अवध को ही रखा गया था। फिर 1989 में कश्मीर को लेकर काम शुरू किया। कश्मीर की कवियत्री हब्बा खातून के जीवन पर बनने वाली फिल्म ‘जूनी” वहां के बिगड़े हालत की वजह से अभी तक अधूरी है। लेकिन ये फिल्म उनके जेहन में आज भी जिन्दा है।
सरोकारनामा के लेखक दयानंद पाण्डेय लिखते हैं कि मुजफ्फर अली साहब ने बताया था कि राजा मोरध्वज के वंशजों पर विष्णुजी का आशीर्वाद है। मुजफ्फर अली साहब का कहना है कि विष्णुजी का आशीर्वाद है इसीलिए उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। जिस तरह की परीक्षा से हम गुजरे हैं, हमारा परिवार गुजरा है और आज भी हम परीक्षा से ही गुजर रहे हैं। ये बात कम लोग जानते होंगे कि लखनऊ में जन्में मुजफ्फर अली साहब ने अपना नाता शायरी से अलीगढ़ में पढ़ाई के दौरान जोड़ लिया था।
एक अंतराल के बाद उन्होंने छोटे पर्दे का रुख किया और ‘पैगाम ए मोहब्बत” नामक सीरियल का निर्माण किया। फिर एक शॉर्ट फिल्म ‘शमा” बनायी। फिर ‘सीना बसीना” बनी। टीवी के लिए चौदह शायरों के सेंट्रल करेक्टर्स पर आधारित एक सीरियल ‘जबान-ए-इश्क” बनाया। मौलाना रूमी पर भी एक बड़ी फिल्म बनाने का ख्वाब पाला हुआ है। फकीरों पर हजरत अमीर खुसरो, वारिस अली शाह, ख्वाजा मुइनुद्दीन चिस्ती पर फिल्में बनायीं। 2000 में दिल्ली आ गये।
यहां भी वे सूफी कलाम को लेकर कुछ नया करना चाहते थे। 2001 में ‘जहान-ए-खुसरो” के नाम से एक फेस्टिवल शुरू किया। जिसमें देश विदेश के बड़े-बड़े कलाकारों का नये रंग रूप में परफार्मेंस होता।
ये काफी मकबूल हुआ। इसमें पाकिस्तान के भी कलाकार भी शिकरत करते थे। 2015 में ‘जानिसार” का निर्माण किया। यह फिल्म लोगों के जेहन में आज भी है।
आइये एक झलक उनके निजी जीवन पर भी डालते चलें। मुजफ्फर अली साहब की तीन शादियां हुई हैं। उनकी पहली शादी कला इतिहासकार (अकबरनामा पर पीएचडी) डा. गीति सेन से हुई उनसे एक लड़का है जिसका नाम मुराद अली है जो एक्टर है।
चार साल के बाद दोनों में तलाक हो गया। पुलीटिशियन सुभाषिनी अली से दूसरी शादी हुई जिससे उनके एक लड़का शाद अली है जो कामयाब फिल्म डायरेक्टर है। दस साल के बाद दोनों के बीच तलाक हो गया।
तीसरी शादी मीरा अली से हुई जो एक फैशन डिजाइनर हैं। उससे उनकी एक बेटी हुई जिसका नाम सामा अली है। उनका कोटवा फैब्रिक कलेक्शन नाम से बूटीक है और वे फैशन शो भी डिजाइन करती हैं। दो तलाक के पीछे उनका कहना है कि वो दोनों महिलाएं मुझसे काफी स्ट्रांग पर्सनाल्टी की थीं। मैं आजाद ख्याल पंछी हूं। वो पिंजरे का पंछी चाहती थीं। मैं चाहता हूं कि मैं जो करना चाहता हूं उसमें वो टीम बने न कि रोक टोक वाली टीचर। मुझे यह पसंद नहीं कि किसी भी चीज मैं खरीदना चाहूं तो पैसे के लिए उनकी तरह देखूं।
वैसे भी मैं पैसों को हाथ नहीं लगाता। मैं अगर फिल्मों में नहीं होता तो शायद पेंटर होता। सूफी संत होता। मैं अपनी मर्जी का मालिक हूं। न मैं किसी को दबा कर रखता हूं न मैं यह चाहता हूं कि कोई मुझे गुलाम बनाए।
मुजफ्फर अली मानते हैं कि वो आज जो कुछ भी इसी अवध और लखनऊ की बदौलत हैं। लखनऊ मेरी रगों में लहू बनकर दौड़ता है। मैं जब कहीं नहीं होता हूं तो समझ लीजिए मैं लखनऊ की बाहों में होता हूं। मुझे बम्बई इसलिए पसंद नहीं है क्योंकि मैं वहां मछली नहीं मार सकता।
मुजफ्फर अली साहब लखनऊ से 180 किलोमीटर दूर कोटवारा हाउस को एक हेरिटेज डेस्टीनेशन में तब्दील कर, लोगों को वहां तैयार किये जाने वाले फैब्रिक्स और बुटीक में काम करने वाले वर्कस से रूबरू कराते हैं।
चाय कॉफी पिलाते हैं और सूफियाना संगीत सुनवाते हैं। लंच भी सर्व करते हैं। शाम होने से पहले लखनऊ अपनी लग्जरी गाड़ियों से छुड़वा देते हैं। वो कहते हैं कि मैं यहां नंगे पांव घूमता हूं।
बताते चलें कि मुजफ्फर अली जी का फिल्मी करियर बेहद शानदार रहा। उन्हें अपनी हिंदी फिल्मी सफर के लिए पदमश्री (2005) से भी नवाजा जा चुका है। ‘उमराव जान” के लिए बेस्ट डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड, फिल्म ‘गमन” के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। इसके अलावा उन्हें साल 2014 में राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार व उत्तर प्रदेश का सर्वोच्च पुरस्कार यश भारती से भी सम्मानित किया जा चुका है।
मुजफ्फर अली साहब ही इकलौते वाहिद फनकार हैं जिन्होंने सेल्युलाइड जो भी कविता लिखी, अवध की माटी की सुगंध भरपूर थी।