शबाहत हुसैन विजेता
कर्बला के शहीदों की याद में होने वाले जंजीरी व कमा के मातम पर सवाल तो कई बार उठे हैं लेकिन इस बार जिस तरह के लोगों ने सवाल उठाए उसने सवाल उठाने वालों पर ही सवालिया निशान लगा दिया।
आल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अम्बर को प्रगतिशील मुस्लिम महिला के रूप में पहचाना जाता है। शाइस्ता अम्बर संघ के कार्यक्रमों में भी उसी दिलचस्पी से शिरकत करती हैं, जितनी दिलचस्पी से मुस्लिम महिलाओं के मसायल उठाती हैं।
शाइस्ता अम्बर ने हज़रत इमाम हुसैन के नाम पर खून बहाने वालों को अशिक्षा का शिकार बताते हुए लिखा है कि धर्म की अफीम उनसे इस तरह का काम करवा रही है। किसी और देश मे ऐसा होता तो जेल भेज दिया गया होता।
मोहर्रम के जुलूसों में जंजीर व कमा का मातम कर खुद को लहूलुहान कर लेने की परम्परा बहुत पुरानी है। इस मातम पर सवाल पहले भी उठते रहे हैं लेकिन इसे अशिक्षा से जोड़ना और धर्म की अफीम बताने वालों को इस मातम पर खुद समीक्षा करनी चाहिए।
कर्बला के शहीदों की याद में अकेले मुसलमान नहीं बड़ी संख्या में हिन्दू भी अपना खून बहाते हैं। लखनऊ में स्वामी सारंग का नाम इसमें प्रमुखता से लिया जा सकता है। स्वामी सारंग पढ़े लिखे हैं, धर्म की अफीम का शिकार नहीं हो सकते। मातम करने वालों की पहचान हो तो उसमें एक भी जाहिल नहीं मिलेगा।
मौलाना आगा रूही प्रख्यात इस्लामिक विद्वान हैं। ईरान से उन्होंने धार्मिक शिक्षा हासिल की है। हर साल 9 मोहर्रम की शाम को वह अपने सर पर कमा लगाते हैं। अब उनके साथ उनका बेटा भी मातम करता है। शहीदों की याद में खून बहाना और दहकते अंगारों पर चलना सिर्फ अक़ीदत का हिस्सा है। जंजीरी व कमा के मातम पर सवाल उठाने वाले अगर अध्ययन करें तो इस मातम से दुनिया में कहीं भी कोई मौत का एक्ज़ामपिल नहीं दे पाएंगे।
जंजीर व कमा का मातम करने वालों के जख्म पर सिर्फ गुलाब जल लगाया जाता है। किसी का मेडिकल ट्रीटमेंट नहीं होता, कोई अस्पताल में भर्ती नहीं होता। इस ज़ख्म को भरने में तीन से चार दिन लगते हैं, लेकिन मातम करने वाला कभी आराम करता हुआ नहीं मिलेगा। मातम के फौरन बाद वह अपने दैनिक कामों में लग जाता है।
मोहर्रम में मासूम और दुधमुंहे बच्चों के सर पर कमा लगाने पर भी सवाल उठते हैं। इसकी वजह यह है कि जिन माँ बाप के बच्चे नहीं होते या फिर पैदा होने के बाद भी बचते नहीं। वह अगर हज़रत इमाम हुसैन के ताज़िये के सामने औलाद की मन्नत मांगते हैं तो वह अपने बच्चे के पहले मोहर्रम पर उसके सर पर कमा लगवाते हैं। यह उनकी अक़ीदत से जुड़ा मसला है। बच्चे की सुरक्षा पर माँ बाप से ज़्यादा सोचने वाला कोई नहीं हो सकता।
हालांकि पिछले कुछ दशकों से मोहर्रम पर ज़रूरतमंदों के लिए ब्लड डोनेशन कैम्प लगाने का सिलसिला भी शुरू हुआ है। इस कैम्प में मुसलमान ही नहीं बड़ी संख्या में हिन्दू अकीदतमंद भी रक्तदान करते हैं। वरिष्ठ पत्रकार उत्कर्ष सिन्हा भी मोहर्रम के कैम्प में रक्तदान कर चुके हैं।
मोहर्रम दरअसल यज़ीदी आतंकवाद के खिलाफ आंदोलन का नाम है। मोहर्रम के जुलूसों में अपना खून बहाकर अकीदतमंद इस बात का भरोसा दिलाते हैं कि शांति की स्थापना के लिए और आतंकवाद के विरोध में लड़ने के लिए अगर उन्हें अपना खून बहाने की ज़रूरत पड़ेगी तो वह पीछे नहीं हटेंगे।स्वामी सारंग पढ़े लिखे संत हैं। हिन्दू मुस्लिम एकता के पैरोकार हैं। महंत दिव्या गिरी ने रमज़ान में रोज़ा अफ्तार कराया था तब भी बड़े सवाल उठे थे लेकिन स्वामी सारंग उस अफ्तार पार्टी में शरीक हुए थे।इस साल 10 मोहर्रम के जुलूस के दौरान थाना खाला बाज़ार के पास के हनुमान मंदिर के पुजारी को भी सड़क पर आकर मातम करते हुए देखा गया। मोहर्रम हकीकत में किसी धर्म विशेष का त्यौहार नहीं है। यह त्यौहार शांति और इंसाफ के लिए हज़रत इमाम हुसैन और उनके 71 साथियों द्वारा दी गई कुर्बानी की यादगार है। नाइंसाफी और ज़ुल्म के खिलाफ उठने वाली आवाज़ है यह। कर्बला दुनिया की इकलौती जंग है जिसमें गर्दन काटने वाला हार गया और गर्दन कटाने वाला जीत गया।कर्बला की जंग से प्रभावित महात्मा गांधी ने डांडी मार्च में अपने साथ सिर्फ 72 लोगों को लिया था और कहा था कि जिस तरह से इमाम हुसैन ने कर्बला की जंग अपनी जान कुर्बान कर जीती थी ठीक उसी तरह से हम भी हर कुर्बानी पेश करेंगे और हिन्दुस्तान को आज़ाद कराएंगे।
मोहर्रम और मातम पर सवाल उठाने वाले मुसलमान बेहतर होगा कि राहुल दिवाकर के इस शेर का मतलब समझें मैं दिल की सरजमीं को सजाने में लगा हूँ मंदिर तेरा हुसैन बनाने में लगा हूँ। करबोबला से जाता है जन्नत का रास्ता, ये बात हिन्दुओं को बताने में लगा हूँ।