उत्कर्ष सिन्हा
2019 के अप्रैल का तीसरा शुक्रवार उत्तर प्रदेश की राजनीति के इतिहास में अपनी जगह बना चुका है और मैनपुरी इसका गवाह बना है। 24 साल तक एक दूसरे का चेहरा न देखने वाले पिछडो के नेता मुलायम सिंह और दलितों की रानी मायावती का एक मंच पर न सिर्फ आना, बल्कि एक दूसरे की तारीफ में कसीदे पढ़ना, एक बार फिर से उस कहावत को सिद्ध कर गया कि “राजनीती में न कोई स्थाई दोस्त होता है और न ही कोई स्थाई दुश्मन”।
24 साल बाद माया और मुलायम के एक मंच पर आने की वजहें कमोबेश वही हैं जो 24 साल पहले थी। भाजपा की प्रचंड लहार को रोकना। फर्क महज इतना ही है कि तब भाजपा राम के नाम पर सवार थी और अब भाजपा मोदी के नाम की सवारी कर रही है। राम लहर ने भी जातीय गोलबंदी को तोड़ा था और मोदी लहर ने भी इसे तोड़ा।
1992 में अयोध्या में जब बाबरी ढांचा गिरा था , उस वक्त यूपी में राम लहर अपने चरम पर थी। मगर एक साल बीतते बीतते यूपी की राजनीति के आसमान में एक नारा उछला , “मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम” . यह नारा सियासत में सोशल इंजीनियरिंग का प्रतीक बन गया। पिछड़ा- दलित गंठजोड़ तब राम लहर पर भारी पड़ा था और हिंदुत्व के नायक बन चुके कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा 1993 के विधानसभा चुनावो में हार कर यूपी की सत्ता से बेदखल हो गई थी।
93 में सपा बसपा ने अपनी सरकार तो बना ली मगर ये साथ लम्बा नहीं चल सका। लखनऊ के चर्चित गेस्ट हॉउस काण्ड ने मायावती और मुलायम के बीच दुश्मनी की वो लकीर खींच दी थी जिसे मायावती ने हमेशा अपनी अस्मिता से जोड़े रखा और लगा कि सपा बसपा के फिर से एक साथ आने की सारी संभावनाएं हमेशा के लिए ख़त्म हो गई हैं।
मगर राजनीति संधियों और दुरभि संधियों का नाम है और परिस्थितयां ही इसे तय करती हैं। 24 साल में परिस्थितियां बहुत बदली। समाजवादी पार्टी पर मुलायम का युग ख़त्म हो चुका है और अखिलेश यादव पार्टी को नए सिरे से परिभाषित करने में जुटे हैं। इस बार के गठबंधन की पहल भी अखिलेश ने ही की।
नरेंद्र मोदी की व्यक्तिवादी राजनीति का मुकाबला करने के लिए ही सपा और बसपा एक साथ आई। कहा गया कि अखिलेश का ये कदम आत्मसमर्पण की और बढ़ाया हुआ कदम है। खुद मुलायम भी इस गठबंधन के खिलाफ रहे। लेकिन जातियों में बंटे यूपी के वोटरों का गणित हल करने के लिए यह एक बेहतर फॉर्म्युला रहा है।
तो क्या 26 साल पहले वाला फॉर्म्युला फिर वही असर दिखायेगा ?
अखिलेश और मायावती ने तो इसके पहले भी साझा रैलियां की थी लेकिन मुलायम इनमे शामिल नहीं रहे थे। शुक्रवार को जब मुलायम सिंह ने मायावती के साथ मंच साझा किया तो दोनों के चेहरों पर तल्खी नहीं बल्कि मुस्कान थी। मायावती ने मुलायम को पिछडो का सबसे बड़ा नेता बताया और अखिलेश को उनका इकलौता वारिस। उन्होंने गेस्ट हॉउस कांड का जिक्र तो किया मगर यह कहना नहीं भूली कि मिशन के लिए समझौते करने पड़ते हैं।
मुलायम भी नहीं चूके और मायावती को साथ आने का न सिर्फ धन्यवाद दिया बल्कि ये भी कहा कि उन्होंने समय पर बड़ी मदद की है। मुलायम ने तो समाजवादी समर्थको से ये तक कह दिया कि मायावती का हमेशा सम्मान करना।
रैलियां ताकत दिखने के आलावा सन्देश देने की वजह भी होती हैं। अपने अपने वोट बैंक को माया और मुलायम ने यह साफ़ संकेत दे दिया है। सामाजिक विश्लेषक मनीष हिन्दवी का मानना है कि मुलायम सिंह के बयान के बाद यादव वोट बैंक में भी कोई संदेह नहीं बचेगा। पहले दो चरणों में यादव वोट बैंक बहुत बड़ा नहीं था , लेकिन तीसरे चरण से यादव वोट बैंक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सेदारी वाला है। इसलिए मैनपुरी की रैली का सन्देश भी महत्वपूर्ण होगा।
वरिष्ठ पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक राजेंद्र कुमार का कहना है – 2014 के चुनावो को भी देखें तो आखिरी के 5 चरणों में दलित, यादव, मुस्लिम गठबंधन के कुल वोट भाजपा को मिले वोटो से ज्यादा होते हैं। अगर इस बार ये वोट सपा बसपा गठबंधन की और झुक जाते हैं तो भाजपा के लिए 2014 दोहराना ना मुमकिन होगा।
पहले दो चरणों के वोटिंग में फिलहाल कोई साफ़ लहर नहीं दिख रही है। ऐसे में पूरा चुनाव सीटों के गणित पर ही टिकता है। 24 साल पहले वाला गणित क्या इस बार भी वही नतीजे निकालेगा ? इसका उत्तर मतगणना के दिन ही मिलेगा।
लेकिन यह भी सत्य है कि राजनीती में जिस तरह दोस्ती दुश्मनी स्थाई नहीं होती उसी तरह गणित भी स्थाई नहीं होता।