जुबिली न्यूज़ डेस्क
जिस आदमी ने अपनी पूरी जवानी असम से घुसपैठियों को निकालने की मुहिम में कुर्बान कर दी वही शख्स निराश होकर कह रहा है कि हमने एक पागलपन में जिंदगी बर्बाद कर दी। आखिर ऐसा क्या हुआ कि यह शख्स अपनी इस लम्बी लड़ाई को जीतने के बाद ख़ुशी मनाने की बजाय पछता रहा है। इस सवाल का जवाब जानने के लिए आपको इस व्यक्ति की पूरी कहानी को जानना होगा।
यह आदमी हैं मृणाल तालुकदार, एनआरसी पर इनकी लिखी किताब ‘पोस्ट कोलोनियल असम’ का विमोचन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने किया है। इनकी दूसरी किताब, जिसका नाम है- ‘एनआरसी (NRC) का खेल’ (गेम कॉल्ड एनआरसी) कुछ दिनों बाद आने वाली है।
मृणाल असम के जाने-माने पत्रकार हैं। वे एनआरसी मामले में केंद्र सरकार को सलाह देने वाली कमेटी में भी नामित हैं और आल असम स्टूडेंट यूनियन (आसु) से जुड़े हैं।
मृणाल बताते हैं कि उनकी और उनके जैसे हजारों लोगों की जवानी असम से घुसपैठियों को निकालने की कोशिश में बीती।
वो कहते हैं कि, हम में जोश था मगर होश नहीं था। पता नहीं था कि हम जिनको असम से बाहर निकालने के लिए आंदोलन कर रहे हैं, उन्हें किस तरह पहचाना जाएगा और उन्हें बाहर करने की प्रक्रिया क्या होगी।
गोपाल कृष्ण पिल्लई ने NRC प्रक्रिया सुझाई
मृणाल बताते हैं कि, उन्होंने 1979 में आंदोलन शुरू किया और 1985 में असम की सरकार में थे। इसके बाद वह अगले पांच साल के लिए सत्ता से बेदखल हो गए लेकिन फिर वापसी की और फिर से घुसपैठियों (बांग्लादेशियों) को पहचानने और उन्हें बाहर निकालने के लिए हल खोजने लगे।
काफी समय के बाद उन्हें इसकी प्रक्रिया भारत के होम सेक्रेटरी रहे गोपाल कृष्ण पिल्लई ने सुझाई। उन्होंने ही समझाया कि कि आप सब की नागरिकता चेक कराओ।
अपने आप की भी नागरिकता चेक कराओ और जो रह जाएं वह बाहरी। चोर को पकड़ने के लिए क्लास रूम में सभी की तलाशी लेने वाला यह आइडिया हमें खूब जंचा।
जब आंदोलन करने वाले ही एनआरसी की लिस्ट में नहीं आएं
मृणाल आगे बताते हैं कि, हमने चोर को पकड़ने के लिए चोर तलाशने वाली प्रक्रिया को मान तो लिया लेकिन तब नहीं मालूम था कि सवा तीन करोड़ लोग जब कागजों के लिए परेशान होकर इधर-उधर भागेंगे तब क्या होगा?
बाद में एनआरसी वजूद में आया और वजूद में आते ही हम सब सोचने लगे कि यह हमने क्या कर डाला ? खुद हमारे घर के लोगों के नाम गलत हो गए। सोचिए कैसी बात है कि जो लोग घुसपैठियों को बाहर निकालने के लिए आंदोलन कर रहे हैं उन्हीं के घर वालों के नाम एनआरसी की लिस्ट में नहीं आएं? बहरहाल यह गलतियां बाद में दूर हुईं। 42 हज़ार कर्मचारी 4 साल तक करोड़ों कागजों को जमा करते रहे और उनका वेरिफिकेशन चलता रहा।
असम जैसे पागल हो गया था। एक-एक कागज की पुष्टि के लिए दूसरे राज्य तक दौड़ लगानी पड़ती थी। जैसे किसी के दादा 1971 के पहले राजस्थान के किसी स्कूल में पढ़े तो उसे दादा का स्कूल सर्टिफिकेट लेने के लिए कई बार राजस्थान जाना पड़ा। लोगों ने लाखों रुपया खर्च किया। कई लोगों ने दबाव में आत्महत्या कर ली। कितने ही लाइनों में लगकर मर गए।
हमने अपने लोगों को कितनी तकलीफ दी। और फिर अंत में हासिल क्या हुआ? पहले 40 लाख लोग एनआरसी में नहीं आए। अब 19 लाख लोग नहीं आ रहे हैं। चलिए मैं कहता हूं अंत में 5 लाख या 3 लाख लोग बच जाएंगे तो हम उनका क्या करेंगे? हमने यह सब पहले से नहीं सोचा था। हमें नहीं पता था कि यह समस्या इतनी ज्यादा उलझी से हुई है।
मुझे लगता है की हम इतने लोगों को ना वापस बांग्लादेश भेज सकेंगे, ना डिटेंशन कैम्पों में रख सकेंगे और ना ही इतने लोगों को ब्रह्मपुत्र में फेंका जा सकता है। तो अंत में यह निर्णय निकलेगा की वर्क परमिट दिया जाए और एनआरसी से पीछा छुड़ा लिया जाए।
यह भी पढ़ें : ‘अमित शाह अभिनंदन के पात्र हैं’
यह भी पढ़ें : पकड़े जाएंगे टैक्स चोर, मोदी सरकार कर रही ये काम
यह भी पढ़ें : उपद्रवियों के पोस्टर चस्पा, शासन ने बताया नुकसान की भरपाई कैसे करनी है