Friday - 25 October 2024 - 4:08 PM

मध्‍य प्रदेश में लोकतंत्र का चीरहरण जारी आहे

सुरेंद्र दुबे

मध्‍य प्रदेश में जब लगभग 15 महीने पहले कमलनाथ की सरकार बनी थी तभी ये तय हो गया था कि कमलनाथ की सरकार पूरे पांच साल नहीं चल पाएगी। कारण साफ था कि भाजपा को अपने ‘ऑपरेशन कमल’ को हर राज्‍य में आजमाने की आदत पड़ गई है। लिहाजा भाजपा दुशासन की तरह शुरू से ही चीर खीचने में लग गई।

पिछले लगभग तीन-चार महीने से उनके हौसले काफी बुलंद थे, क्‍योंकि उन्‍हें ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया के रूप में कांग्रेस से एक दुशासन मिलने की उम्‍मीद बंध गई थी। जाहिर है कि जब सिंधिया के साथ 26 और दुशासन भी चीर खीचने के लिए मैदान में उतर आए तो फिर चीर हरण का नंग नाच तो होना ही था, जो अभी तक जारी है। हमारा लोकतंत्र अब इतना अधिक मजबूत हो गया है कि राजनैतिक संकट का हल निकालने के लिए सुप्रीम कोर्ट की ही शरण लेनी पड़ती है।

मध्‍य प्रदेश में जिस तरह से ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया को तोड़ कर भाजपा के साथ जोड़ा गया। वह इस देश के लिए कोई नया दृश्‍य नहीं था। कांग्रेसी सरकारें भी इस तरह के कुकृत्‍य करती रहीं हैं। यह बात अलग है कि भाजपा ने कांग्रेस के सत्‍तर वर्षों के चीर हरण रिकॉर्ड को साढ़े पांच साल में ही पूरा कर दिया।

कांग्रेस और भाजपा जब दोनों एक दूसरे को नैतिकता का पाठ पढ़ाने की कोशिश करने लगती हैं तो लगता है कि नैतिकता शब्‍द की परिभाषा ही बदल देनी चाहिए। डिक्‍शनरी में लिख दिया जाना चाहिए कि राजनैतिक दल अपने हितों की पूर्ति के लिए जो भी अनैतिक या असंवैधानिक हथकंडे अपनाएंगे उन्‍हें नैतिकता के तराजू पर नहीं तौला जाएगा।

अब ये विचार करने का समय आ गया है कि क्‍या देश में लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था की किसी अन्‍य प्रणाली को परखे जाने की जरूरत है। जनता जिस विधायक को जिस पार्टी के लिए चुनती है वह कभी भी जनता को बगैर बताए दूसरी पार्टी में माल पानी लेकर चला जाता है। इसे कभी आत्‍मा की आवाज पर दल बदल कहा जाता है तो कभी देश के विकास के लिए की जाने वाली कवायद।

यानी कि जनता के वोट देने का मकसद धीरे-धीरे खत्‍म होता जा रहा है। जब अंतत: राजनैतिक दल ही लोकतंत्र चलाने का काम करने में जुट गए हैं तो जनता को वोट देने की जहमत क्‍यों दी जा रही है। इससे अच्‍छा हो कि जनता सीधे-सीधे राजनैतिक दल के पक्ष या विपक्ष मतदान करे और फिर राजनैतिक दल अपनी मर्जी से सरकारें बनाती बिगाड़ती रहें। अभी तो जनता को बिला वजह शर्मिंदा होना पड़ रहा है।

राजनीति में थोड़ी बहुत शुचिता बनी रही इसलिए संविधान में दल बदल विरोधी कानून की व्‍यवस्‍था की गई। कांग्रेसी इसके प्रावधानों को लगातार धता बता कर सरकारें बनाते बिगाड़ते रहे। भाजपाईयों ने कुछ समय तक इस फॉर्मूले को अपनाया। पर बाद में भाजपाईयों को लगा कि न्‍यू इंडिया में लोकतंत्र का चीर हरण नए अंदाज से होना चाहिए। इसलिए उन्‍होंने विधायकों से सीधे-सीधे इस्‍तीफा दिलाने और फिर उन्‍हें चुनाव जिता ले जाने के फॉर्मूले पर काम करना शुरू कर दिया।

जाहिर है कि अब दल बदल कानून इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। बिगड़ता है तो सिर्फ लोकतंत्र का, जिसे ये नहीं पता कि आज जो विधायक चुना गया है, कल वो कितने में बिकेगा। जनता को सुरक्षा देने का वादा करने वाले विधायक कब भेंड़-बकरियों की तरह बसों में बैठकर रिजॉर्ट रूपी स्‍वर्ग में पहुंच कर स्‍वयं असुरक्षित होने की गुहार लगाने लगेंगे। इस बात की भी खबरें मिल रही हैं कि तमाम माननीय पूरा पैसा न मिल पाने के कारण सुरक्षा के नाम पर दल-बदल में आनाकानी कर रहे हैं।

अब दो महत्‍वपूर्ण किरदार और बच जाते हैं। पहला महामहिम राज्‍यपाल और दूसरे नंबर पर हैं माननीय विधानसभा अध्‍यक्ष। दोनों ही संवै‍धानिक पद है और दोनों से निष्‍पक्ष रहने की अपेक्षा बाबा भीमराव अंबेडकर ने की थी। परंतु अब राज्‍यपाल का पद तो पूरी तरह से रिटायरमेंट बेनिफिट का पद बन कर रह गया है। हाशिए में पड़े किसी भी नेता को भी सरकार राज्‍यपाल बना देती है।

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उसकी स्थिति किसी ऐसे कर्मचारी से बेहतर नहीं होती, जिसे पता होता है कि जब तक साहब खुश हैं तब तक ही वह नौकरी पर है। सो जो भी लोग इन पदों को सुशोभित करते हैं उनमें से ज्‍यादातर लोकतंत्र के चीर हरण के समय दुशासन के साथ ही खड़े दिखाई देते हैं। जनता इन दृश्‍यों को मनोरंजक किंतु हॉरर फिल्‍म की तरह देखती है। अब तो राजभवनों में दिन हो या रात हर समय लोकतंत्र की फिल्‍म की मनचाही पटकथा पर शुटिंग चलती रहती है।

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विधानसभा अध्‍यक्ष का पद भी संवैधानिक है और उनसे पूरी तरह निष्‍पक्ष रहने की अपेक्षा भी की जाती है। पर अपेक्षा से क्‍या होता है। हमारा पूरा लोकतंत्र विधायिका की उपेक्षा पर ही चल रहा है। सत्‍ता पक्ष की मर्जी से ही अध्‍यक्ष चुना जाता है। इसलिए उसके पास ‘हिज मास्‍टरर्स वॉयस’ बने रहने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं है। राज्‍यपाल भले ही केंद्र के दबाव में शक्ति परीक्षण कराने का निर्देश दे दें, पर विधानसभा अध्‍यक्ष कोरोना वायरस की आड़ में सदन तो स्‍थगित कर ही सकता है।

हमारा पॉलिटिकल वायरस कोरोना वायरस से बहुत ज्‍यादा पावरफुल है। जो कुछ मध्‍य प्रदेश में हो रहा है वह काफी अर्से से पूरे देश में हो रहा है। किसी का नाम लेने से या बचाव करने से लोकतंत्र की बिगड़ी सेहत नहीं सुधरेगी।

लोकतंत्र का चीर हरण रोकने के लिए किसी कृष्‍ण की जरूरत है जो इन दिनों कोरेंटाइन में चल रहे हैं। महाभारत के समय तो युद्ध पांडवों और कौरवों के बीच में था।

अब सत्‍यनिष्‍ठ पांडव तो विलुप्‍त हो गए हैं। युद्ध सिर्फ कौरवों के बीच में है, जिसमें द्रोपदी की लाज बचाने की जिम्‍मेदारी लेने में कृष्‍ण भी कतरा रहे हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)

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(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।)

 

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